Saturday 28 March, 2009

टीवी पर न्यूज का टोटा

विनोद के मुसान
टीवी न्यूज चैनल की स्क्रीन से खबरें सिरे से गायब हैं। अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने वाले तमाम न्यूज चैनलों के पास खबरों का ऐसा टोटा है कि वे हांफते फिर रहे हैं। फिर भी प्रतिस्प्रर्धा की अंधी दाै़ड में बेशर्म होकर अपने को सर्वश्रेष्ठ कहलाने से नहीं हिचकते हैं।  
लोग सुबह उठते हैं, ताजातरीन होकर। टीवी का स्विच ऑन करते हैं, यह सोचकर की देश दुनिया की खबरों से रू-ब-रू हो सकें। लेकिन, इससे इतर उन्हें जानकारी मिलती है, बीती रात कौन से सीरियल में या घटित हुआ। नच बलिए में किस ने कौन से लटके-झटके दिखाए और हंसी के फूहड़ शो में पूरा शो खत्म हो जाने केबाद भी किसी को हंसी नहीं आई। छोटे उस्ताद में गंगू बाई ने किसके घर में झाड़ू लगाई। कौन से हिरो-हिरोइन ने इन दिनों किस कंपनी का प्रोड ट लांच किया। और इस सबकेबाद भी टाइम बचा तो आपको इसी लोक में पाताल लोक की सैर भी करा दी जाती है। जब दिखाने को कुछ न हो तो सदाबहार 'आतंकवाद` तो है ही। यह ऐसा विषय है, जिसके कभी भी चला दो। एजेंसी से उठाई हुई ि लप को मिर्च-मसाला लगाकर ऐसे पेश किया जाता है, जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खबर आज चैनल के हाथ लग गई हो। खबरों के नाम पर जो भाै़ंडा खेल चैनल वाले खेल रहे हैं, इसने रही-सही पत्रकारिता का भी सत्यानाश कर दिया है। चैलनों पर चलने वाली खबरों को देखकर कोफ्त होती है, सिर दर्द करने लगता है। आम शख्स आज न्यूज चैनलों केबारे में अपनी बेबाक रखता है तो उसकेमुख से कभी अच्छी बात नहींं निकलती। वैसे भी पत्रकारिता के इस पवित्र पेशे में कैसे-कैसे लोगों की गुसपैठ हो चुकी है, यह बात किसी से छुपी नहीं है। 
ईमानदारी से सोचो सौ कराे़ड से ज्यादा आबादी वाले इस देश में या बारह घंटे की खबरें नहीं जुटाई जा सकती। चलो मान लिया आप चौबीस घंटे केन्यूज चैनल हैं, आपको हर व त कुछ न कुछ दिखाना है। लेकिन खबरों केनाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, या वह उचित है। बासी ही सही लेकिन खबरें तो दिखाओ। चैनल वालों को लग रहा है, लोगों को फूहड़ हंसी वाले शो दिखाकर वे भी वे अपनी टीआरपी बढ़ा रहे, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा।  

Thursday 26 March, 2009

दिल्‍ली मेट्रो का सच: मेटो के कर्मचारियों ने किया मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन

दिल्‍ली मेट्रो केवल दिल्‍ली ही नहीं बल्कि पूरे देश की शान है। उसकी चमकती ट्रेन, दमकते प्‍लेटफॉर्म और टिकट वितरण आदि की व्‍यवस्‍था सभी को पसंद है। लेकिन इस चमक-दमक के तले काम करने वालों की स्थिति के अंधेरे पक्ष के बारे में शायद बहुत कम लोगों को पता है, क्‍योंकि मेट्रो का प्रबंधन मीडिया को इस तरह मैनेज करता है कि केवल उसका उजला पक्ष ही लोगों के सामने आता है। अब, मेट्रो के कर्मचारी अपने साथ हो रहे अन्‍याय के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे हैं, जिसका समर्थन लोकतांत्रिक मूल्‍यों में यकीन करने वाले हर व्‍यक्ति को चाहिए।
कल, यानी 25 मार्च को मेट्रो के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर मेट्रो भवन के सामने विरोध-प्रदर्शन किया और नारे लगाए। जनसत्‍ता में छपी खबर के अनुसार मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के बैनर तले मेट्रो के कामगार और मजदूरों ने न्‍यूनतम वेतन, साप्‍ताहिक छुट्टी और चिकित्‍सा सुविधा आदि की मांग को लेकर मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन किया। मजदूरों का कहना है कि उनसे 12-12 घंटे तक काम लिया जाता है और न्‍यूनतम मजदूरी 186 रुपये की जगह 90-100 रुपये ही दिये जाते हैं। द ट्रिब्‍यून की खबर के अनुसार न मजदूरों को कहना है कि उन्‍हें न तो पहचान पत्र दिए गए हैं और न ही प्रॉविडेंट फंड का अकाउंट खोला गया है। उनका आरोप है कि ठेकेदार मजदूरों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं और उन्‍हें कभी-कभी सप्‍ताह में बिना छुट्टी के सातों दिन काम करना पड़ता है। इंडोपिया डॉट इन के अनुसार अपनी मांगे उठाने पर मजदूरों के साथ गाली-गलौज की जाती है और उन्‍हें धमकी दी जाती और यहां तक नौकरी से भी निकाल दिया जाता है।

Monday 16 March, 2009

राजनीति में एंट्री


विनोद के मुसान
रामजी भाई गांव वाले इन दिनों काफी परेशान हैं। यूं तो उनकी परेशानी की वजह कुछ खास नहीं, लेकिन समस्या देशहित के साथ उनके कैरियर से जुडी है। व्यवस्था में रामजी भाई का योगदान मात्र इतना है कि वर्ष दर वर्ष किसी न किसी चुनाव में वे अपना कीमती मत 'दान` कर देते हैं। यूं तो उनका यह दान बहुत बड़ा है, लेकिन उन्हें लगता है मात्र दान कर लेने भर से उनकी और देश की समस्याएं हल होने वाली नहीं हैं। इसलिए पिछले दिनों उन्हें कुछ नया करने की सुझी और उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाने का निर्णय ले लिया। 
आम आदमी का लेबल लिए रामजी भाई भले ही 'आम` हों, लेकिन उनमें वह सारी काबिलियत मौजूद हैं, जो उन्हें आम से खास बना सकती हैं। लेकिन व्यवस्था से अपरिचित जब उनका सामना सच्चाई से हुआ तो सारी की सारी योजनाएं धरी रह गइंर्।
रामजी भाई चाहते थे कि वे जनता की बीच जाकर देश की सर्वोच्च संस्था से जुड देशहित में योगदान दें। लेकिन, यहां पर आकार वे फंस जाते हैं। 
उनके पास राजनीति में आने के लिए न तो किसी फिल्मीस्तान यूनिर्वसिटी की डिग्री है और न वे गुल्ली-डंडा केअलावा कभी क्रिकेटिया रंग में रंग पाए। गांव में रहते हुए उन्हें भाईगिरी करने का भी मौका नहीं मिला। बस नाम के ही 'रामजी भाई` बनकर रह गए। अब भला देश की समस्याएं हल कैसे हों, यही चिंता उन्हें आजकल दिन रात खाए जा रही है। इन दिनों रामजी भाई अपने गैर राजनीतिक खानदान को कोसने से भी बाज नहीं आते। दादा-नाना, चाचा-ताऊ, मामा-फूफा कोई तो होता, जो भवंर फंसी उनकी नैया का इस व त खेवनहार बनता। राजनीति केमैदान में उनका खानदान हमेशा से 'सफाच्चट` ही रहा। जिसका उन्हें इस दिनों खासा दुख है। 
आर्थिक तंगी से जूझ रहे रामजी भाई की बीते दिनों की गई समाज सेवा भी काम नहीं आ रही। बुरे कर्मों की बाढ़ में लोग अच्छे काम करने वाले को किस कदर भूल जाते है, इसका अहसास रामजी भाई को इन दिनों खूब हो रहा है। वोट बैंक की राजनीति का आधुनिक 'विकृत` चेहरा देख वे हैरान हैं। टिकट से पहले नोट, जातिगत समीकरण और सेलिब्रिटी लेबल के अलावा तमाम दूसरे दाव-पेचों से उनकी झोली बिल्कुल खाली है। आमोखास बनने का कोई भी रास्ता उन्हें दिखाई नहीं दे रहा। ऐसे में उनकी चिंता लाजिमी है। 
आखिर उनकी जुगत उनके साथ देशहित से जु़डी है। रामजी भाई बड़ा सोचते लेकिन बौनी व्यवस्था के आगे उनके कदम लड़खड़ाने लगते हैं। आखिर, हैं तो वह आम आदमी ही। जिसका कोई पूछनहार नहीं होता। कई तरह की जुगत लगाने के बाद भी जब रामजी भाई को कोई प्लेटफार्म नहीं मिल रहा तो वे अब इस क्षेत्र में आने से पूर्व अलविदा कहने की तैयारी कर रहे हैं।