2 प्रतिक्रियाएँ
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब
मेरे पिताजी भी अकसर इस बात को दोहराते थे। लेकिन, उनकी इस बात को हम भाई-बहन अकसर उल्टे चश्मे से देखते। अब अपने बच्चों को यही सीख देते हैं, तो वे भी भूतकाल को दोहराते नजर आते हैं। वक्त का फेर है, जिसकी पाठशाला में बात कभी जल्दी तो कभी देर में समझ आती है। कई बार इतनी देर हो जाती है, वक्त ही हाथ से निकल जाता है।
पहला वाकया मुरादाबाद का
तीन साल पहले ‘अमर उजाला’ मुरादाबाद में था। बच्चों से दूर अकेला रहता था। खूब समय था मेरे पास। आफिस के सीनियर साथी आशीष शर्मा जी केसाथ एक योगा सेंटर ज्वाइन कर लिया। रात को डेस्क पर काम करते हुए 2 बजे के आसपास छूटते थे। सुबह 10 बजे जब हम सेंटर पहुंचते, तब तक सभी लोग जा चुके होते थे। विशेष अनुरोध पर सेंटर संचालक इस समय पर हमें योग सिखाने को तैयार हुआ था।
तीन साल पहले ‘अमर उजाला’ मुरादाबाद में था। बच्चों से दूर अकेला रहता था। खूब समय था मेरे पास। आफिस के सीनियर साथी आशीष शर्मा जी केसाथ एक योगा सेंटर ज्वाइन कर लिया। रात को डेस्क पर काम करते हुए 2 बजे के आसपास छूटते थे। सुबह 10 बजे जब हम सेंटर पहुंचते, तब तक सभी लोग जा चुके होते थे। विशेष अनुरोध पर सेंटर संचालक इस समय पर हमें योग सिखाने को तैयार हुआ था।
खैर, चार महीने दोनों ने गिरते-पड़ते कोर्स कर लिया। काफी मशक्कत के बाद दोनों ने कुछ इंच पेट कम कर लिया। वजन में भी कमी आई। मैंने दो और आशीष जी ने अप्रत्याशित चार किलो वजन कम कर लिया। उस वक्त योगाचार्य ने कहा था, जितना मैंने तुम्हें सिखाया है, उसका आधा भी रोज कर लोगे, जिंदगी में कभी डाक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मन ने भी ठान लिया था, आगे योग जारी रहेगा। किराए के कमरे में नियमित योगाभ्यास किया जाने लगा। सुस्ती के कारण धीरे-धीरे इस समय में कटौती होने लगी। इसके बाद देहरादून ट्रांसफर हो गया। घर-गृहस्थी के पचड़ों में ऐसा फंसा, अब तक फिर शुरू नहीं कर सका। रोज सोचता हूं, कल से शुरू करूंगा…। लेकिन उत्साह का संचार फिर अगले दिन के झंझावतों के फेर में आकर ठंडा हो जाता है।
दूसरा वाकया ताजा-ताज है
केदारनाथ आपदा के बाद मन में प्रभावित क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करने की इच्छा थी। डेस्क पर साथियों की कमी के चलते पहले तो संपादक जी से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर सोचा भेजें न भेजें, बात करने में क्या बुराई है, कल जरूर बात करूंगा। ऐसे करते-करते दो-तीन दिन निकल गए। जिस दिन मन पक्का करके आया, उसी दिन पता चला, संपादक जी दो साथियों को भेज चुके हैं। फिर मेरा वह कल दोबारा नहीं आया।
केदारनाथ आपदा के बाद मन में प्रभावित क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करने की इच्छा थी। डेस्क पर साथियों की कमी के चलते पहले तो संपादक जी से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर सोचा भेजें न भेजें, बात करने में क्या बुराई है, कल जरूर बात करूंगा। ऐसे करते-करते दो-तीन दिन निकल गए। जिस दिन मन पक्का करके आया, उसी दिन पता चला, संपादक जी दो साथियों को भेज चुके हैं। फिर मेरा वह कल दोबारा नहीं आया।
बहुगुणा जी ने भी देर कर दी
जो फावड़ा मुख्यमंत्री जी ने दो दिन पहले उठाया है, यही काम 15 दिन पहले कर लिया होता तो ज्यादा अच्छा होता। खैर, देर आए दुरुस्त आए… उनकी इस पहल को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए।
जो फावड़ा मुख्यमंत्री जी ने दो दिन पहले उठाया है, यही काम 15 दिन पहले कर लिया होता तो ज्यादा अच्छा होता। खैर, देर आए दुरुस्त आए… उनकी इस पहल को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए।