Saturday 27 September, 2008

तकलीफ तो दूसरे को भी होती है ओमकार जी

भाई ओमकार जी, महज ये इत्तेफाक है कि आज पहली बार आपका ब्लॉग देखा है। उसमे भी आपकी पीडा देखी। फोटू देखकर लगता है कि उमर में हमसे छोटे ही होगे आप। जायज है आपकी तकलीफ। कभी आपसे मिला तो नही लेकिन पढ़ा बहुत है। वह भी गंगा जमुना के बीच में बसे शहर में रहते हुए। जिंदगी यहीं बीत गयी है। जब अपने साथ होता है तो तकलीफ होती है। फ़िर दूसरे के साथ क्यों किया जाता है। जो कुछ भी हरिभूमि में रोहतक में हुआ। उसके नायक आप ही बताये जाते हैं। वह भी सिर्फ़ इसलिए कि आप उसी बिरादरी के हो जिसके अख़बार के मालिक हैं। नहीं तो उस वरिष्ठ पत्रकार डा रविन्द्र अग्रवाल का क्या दोष था कि उनको नौकरी छोड़ने को कह दिया गया। क्योंकि वहां आपकी स्थापना की जानी थी। जब नाम कटने में इतनी तकलीफ होती है तो जिनका पेट कट रहा होगा उन पर क्या बीत रही होगी, यह आप जैसा संवेदनशील प्राणी बेहतर समझ सकता है। कम से कम आपको यह तो याद कि यह वही हरिभूमि है जहाँ लोकल जाट ने अपने जाट प्रभारी को ही पीट दिया था। देखिये कोई भी वाद वैसा ही सांप्रदायिक होता है जैसा कि मलियाना में हुआ था। या फ़िर बटला हाउस के बाद जो कुछ हो रहा है। अभी तो यह बातें देल्ही से इलाहबाद तक पहुँची हैं। और भी फैलेंगी और आपके यश में चार चाँद लगाएंगी। कभी कहीं आपसे मुलाकात का मौका मिला तो आपको मुबारकबाद जरुर दूंगा। मुशायरों के सिलसिले में हरियाणा दिल्ली आना जाना होता ही है। हरिभूमि का पानी जरुर पिया है, नमक नहीं खाया। अब आपको फैसला करना है कि तकलीफ आपकी सही है कि डा रविन्द्र अग्रवाल की। आपका भैया इलाहाबादी

निशीथ जोशी की नज्म


पेशे से पत्रकार और संवेदनाओं का समंदर। ऐसा कम ही देखने को मिलता है। आतंकवाद की आग में झुलस रहे हालात को लेकर आहत वरिष्ठ पत्रकार निशीथ जोशी की इस नज्म में ऐसी ही संवेदना दिखती है। उनका कहना है कि अहमदाबाद से लेकर दिल्ली में ब्लास्ट गुजरात से लेकर बटला हाउस के एनकाउंट तक मजहब के नाम पर राजनीत करने वालों की करतूतों ने अन्दर कही आग लगा दी है उसी आग के दरिया डूबकर जो निकला वो लफ्जों में कुछ इस तरह बयां होती है-

हालात
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फसां पर देह रख रख कर
अब वो खिलखिलाने लगी है
खुदा कसम , हद से ज्यादा
खूबसूरत नजर आने लगी है।

तबर से दोस्ती करने के बाद
अब वो तफरीहन खुन्खारी
मचने लगी है।
गैर मुमकिन था इस शहर में
घुस पाना उसका
अब वो हर इन्सान के हाथ में
नजर आने लगी है।
मजहबी खूंआसामियों के इशारे पर
इस अमन पाक शहर को वो
खूं आलूद बनाने लगी है।
सियासी दांव में सन सनकर
अब वो पैदा करने वालों को ही खाने लगी है।

फसां पर देह रख रख कर
अब वो खिलखिलाने लगी है
खुदा कसम , हद से ज्यादा
खुबसूरत नजर आने लगी है।

(फसां-हथियार पर सान लगाने के काम आने वाला पत्थर, तबर-फरसा या कुल्हाडा, खूंआसामियों - खून का व्यापर करने वाले, खूंआलूद- खून से सना हुआ)

Friday 26 September, 2008

एक सवाल


बटाला हाउस में हुई मुठभे़ड के मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। देश के हर नेता का और हर पार्टी का यही मानना है। फिर भाजपा, कांग्रेस, बसपा, सपा सहित सभी दल इस पर बयानबाजी यों कर रहे हैं? या सबकी मान्यता समाप्त नहीं कर दी जानी चाहिए? आपके विचार आमंत्रित हैं।

बंद करो फिल्मी लोगों को 'सितारे` कहना

विनोद के मुसान
अगर 'फिल्मी लोग` सितारों सी चमक बिखेरते तो, जरूर इनके चेहरों पर सितारों सा नूर होता। लेकिन, अफसोस ऐसा नहीं है। इनकी चमक सिनेमा के पर्दे पर तो दिखाई देती है मगर असल जिंदगी में इनके चेहरे धुंधले से नजर आते हैं। इसलिए अब व त आ गया है, जब आम लोगों को भी इन्हीं की तरह प्रोफेशनल बनकर सोचना पड़ेगा। 'सितारों` को सितारा कहना बंद करना पड़ेगा। एक हाथ से टिकट के पैसे लो, दूसरा लोगों को वो दिखाओ, जिसके लिए उन्होंने पैसे खर्च किए हैं। बात खत्म। रुपहले पर्दे के सितारे...। अरे...! किस बात के सितारे भाई? पर्दे पर नाच-गा कर ऐसा कौन सा तीर मार लिया, जो आपको सितारों का दर्जा दे दें।
वर्तमान परिदृश्य में सिनेमाई पर्दे की जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, इसके बाद तो इन्हें सितारा कहना भी सितारों की तौहीन है। सितारे इस जग को रोशन करते हैं। रात में टिमटिमा कर हमारी आंखों को सुकून देते हैं। बच्चों के सपनों में बसते हैं और दादा-दादी की कहानियों में आकर हमें मीठी लोरी सुनाते हैं। सदियों से सितारों ने दुनिया में नूर बिखेरने का काम किया है। पता नहीं लोगों ने कब और यों पर्दे पर नाचने-गाने वालों को 'सितारा` कहना शुरू कर दिया। जिस किसी ने भी ये शुरुआत की होगी, जरूर हकीकत की दुनिया से बाहर जीता होगा। अच्छा लगता अगर इस परंपरा के साथ देश के महान सुपूतों का नाम जु़डता। महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, शहीदे आजम भगत सिंह, रवींद्र नाथ टैगोर, मदर टैरेसा और कई ऐसी महान शख्सियतों को सितारा कहना सुखद लगता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों की भलाई में लगा दिया। इनके द्वारा किए गए कामों की चमक आज भी बरकरार है और सदियों तक रहेगी।
रही बात फिल्म इंडस्ट्री में सितारे कहलाने वाले कलाकारों की, तो मुझे नहीं लगता इनमें से किसी एक ने भी कोई ऐसा काम किया हो (अभिनय को छाे़डकर) जिसे आने वाली पीढ़ी याद रखे।
आम लोग इन लोगों को भगवान की तरह पूजते हैं। भारत में तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो घर में फिल्मी कलाकारों की फोटो की पूजा करते हैं। इनका जन्मदिन आने पर बाकायदा पार्टी आयोजित की जाती है, केक काटकर इनकी फोटो को 'खिलाया` जाता है। चिढ़ होती है ऐसे ढकोसलों को देखकर। दो रोज पहले की बात है। मैं एक समाचार पत्र में एक संक्षिप्त सी खबर पढ़ रहा था। सलमान खान की एक फैन ने उसकी दुल्हन के लिए आठ लाख रुपए कीमत की डोली तैयार की है, जिसे वह उसकी शादी में गिफ्ट करना चाहती है। उसी समाचार पत्र के एक हिस्से में बिहार, उड़ीसा में आई बाढ़ का जिक्र भी था और बाढ़ पीड़ितों की मदद को गुहार भी। यकीन मानिए इस समाचार को पढ़ने के बाद उस 'दानी फैन` के लिए मन से कोई भी अच्छी बात नहीं निकली।
पीछे कुछ फिल्मी कलाकारों ने राजनीति में आकार देश सेवा करने की पहल भी की। आम जनता को लगा उनके हीरो परदे की तरह संसद में भी धूम मचाएंगे। उनकी सारी मुश्किलें फिल्म के 'एेंड` की तरह सुखद क्षणों के साथ खत्म हो जाएंगी। लेकिन, असल जिंदगी में या हो रहा है, ये सब जानते हैं। उत्तरी मुंबई के मतदाताआें को तो अपने फिल्मी सांसद को ढूंढ कर लाने वाले को बतौर ईनाम एक कराे़ड रुपए देने तक की घोषणा कर दी गई थी। फिल्मी परदे पर तोते की तरह पटर-पटर बोलने वाले ये 'माननीय` जब एक बार किसी को थप्पड़ मारने के केस में फंसे तो इनका चेहरा टीवी पर देखने लायक था। बोलती जैसे बंद हो गई, जुबान ने दिमाग का साथ छाे़ड दिया और ये हकलाने लगे।
स्टार का जिक्र हो और 'सुपर स्टार` की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। एक जमाने से 'सुपर स्टार` का तमगा लिए घूम रहे बिग 'बी` की पूरी जिंदगी अपने इस तमगे को बचाने में ही चली गई। लोगों ने प्यार दिया, सम्मान दिया 'सुपर स्टार` का तमगा दिया। अब कोई इनसे पूछे माननीय आपने समाज को या दिया। इतनी शोहरत पाने के बाद चाय में थाे़डी 'चीनी कम` रह भी जाती तो या होता। आपने पूरी जिंदगी दोनों हाथों से दौलत बटोरी है। कितना अच्छा होता अगर आप इस दौलत का एक छोटा सा अंश समाज की भलाई में लगा देते। यकीन मानिए, इस दुनिया से जाने के बाद भी बिग 'बी` कहलाते।

Thursday 25 September, 2008

भैया इलाहबादी को तलाशती निगाहंे

भैया इलाहाबादी! आप जो भी हो सामने आइए। आपको अदृश्यमान रहने से हम बलागरों पर भारी विपति आन पड़ी है। हमारे साथ रहने वाले इलाहाबादी तत्वों पर सबसे ज्यादा संकट है। हर कोई उनको शक की निगाह से देखता है। वे बिचारे स्पष्ट ीकरण देते फिर रहे होते हैं। एक-दूसरे को सूंघते हुए बलागर एक-दूसरे पर जासूसी कर रेले हैं। इसमें कई बार ठुकाई भी हो रेली है अपन के यारों की।
इसका कारण यह है कि आपके विचार काफी तूफानी हैं, उनसे इधर अपन के शहर में सुनामी उठ रेली है। अपना कुछ चेहरा मोहरा दिखाओ भाई। ताकि हम आपको अफगानिस्तान की पहाड़ियों में बुश की तरह ढूंढना बंद करें।
आशा है कि भैया इलाहबादी आप इलाहबाद के अमरूद और संगम की तरह दृश्यमान होंगे।
ये इलाहीबख्श का पर्दा हटाइए और अपने तपस्थान से बाहर आइए।

Tuesday 23 September, 2008

हम हिन्दुस्तानी

बम बबम बम लहरी लहर लहर नदियाँ गहरी......क्या आतंक वाद की जड़ें भी गहराती जा रही है. बहुत याराना लगता है बाबू. तो पड़ेगी गोली . ये तो होना ही था गायेंगे सब. देखो भूल न जाना खाया है नमक जहाँ का वहां से गद्दारी मत करना. क्यों कि जैसी करनी वैसी भरनी . पर जिन्हों ने किया है पैदा उनके माथे पर कलंक क्यों लगा
गए. देखो ओ दिवानो तुम ये kam न करो बाप का नाम बदनाम न करो. चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाए हम दोनों. आ ओ बन जाए सबसे पहले हिन्दुस्तानी. हम हिन्दुस्तानी हम हिन्दुस्तानी. भइया का सलाम. भइया याने भाई.

Monday 22 September, 2008

निशीथ जोशी की दो कवितायें



स्वर्गीय आपा और लाला भाई (मो माबूद ) के नाम जिनके बिना ये बेटा इतना बड़ा नहीं हो सकता था। आपकी बहुत यद् आती है। इंशा अल्लाह कभी तो मुलाकात होगी। वैसे तो आप हरदम मेरे साथ हो। कभी तहजीब के रूप में तो कभी दुआओं के ताबीज के रूप में। सिर्फ़ यही है मेरी जिंदगी की कमाई -------निशीथ

खौफ

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रोक लो
इन हवाओं को
मत आने दो
शहर से
मेरे गांव की ओर

वरना मंगल मामा
हिंदू हो जाएगा

और रहमत चाचा

मुसलमान हो जाएगा

और रहमत चाचा
मुसलमान.....


जीवन साथी के नाम
चाह
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टेलीफोन की घंटी
की
आवाज सुनकर
जब वो रिसीवर उठाती है
सुनकर आवाज
एक पागल की

कमल सा खिल जाती है

जो फोन होता है किसी गैर का
तो दिल से निकलती है एक आह
जी, यह सच है मैडम
इसे ही कहते है चाह

Sunday 21 September, 2008

लालू , मुलायम प्लीज वहां मत चले जाना


वेद विलास
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बिना लाग लपेट के लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव से पूछा जा सकता है कि शहीद मोहन शर्मा की शहादत पर उनकी भी आंखे नम हुई या नहीं। डर यह लग रहा है कि कहां वह दिल्ली मेंं आतंकी विस्फोट करने वाले आतंकियों के घर पर मातम मनाने न चल जाएं। जो नेता अब्दुल बसर के घर पर जा सकते हैं वह ऐसा भी कर सकते हैं। नेताजी, प्लीज ऐसा न कीजिए। हो सकता है कि राजनीतिक समीकरणोंं से ऐसा करने से आप बड़े बड़े पदों पर आसीन रहें, आपकी राजनीति की दुकान चलती रहे ,हो सकता है कि पांच पीढ़ियों के लिए आपके पास पैसा जमा हो जाए, हो सकता है कि आप इतने ताकतवर हो जाए कि रावण की तरह अट्टहास कर सकें, लेकिन आप की हरकतों को सदियां कोसती रहेंगी। जब भी कोई दर्द भरी चीत्कार सुनाई देगी जो जितना आतंकवादियों को लानत देगी, उतनी ही उन नेताआें को भी जिनकी बदौलत आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई ठीक से लड़ी नहीं जा रही है।
बहुत हो चुका, कुछ राजनीतिक समीकरण तो सभी चलते हैं। पर अब वह स्थिति आ गई है कि या तो आप अपने को भी आतंकवादियों के समर्थक कहो या फिर आम जन से अपनी भूमिका साफ करो।
तुम ऐसा यों करते हों, यों समय समय पर ऐसे बयान देते होंं कि सिमी वाले खुश हो जाएं, यों आजमगढ़ मेंं आतंकवादी के घर मेंं जाकर परिवारजनों से मिजाजपुर्सी करते हो। या इसलिए कि तुन्हें लगता है मुस्लिम लोग इन बातों से खुश होंगे। यह बेवकूफी है, सच्चा मुसलमान तो आतंकवाद के खिलाफ है। वह अमन चाहता है। उसे लगता है कि आपकी टिप्पणियां माहौल को और खराब करती है। विस्तृत पढने के लिए क्लिक करें

Saturday 20 September, 2008

एक खुला पत्र 'दोस्त` के नाम

उस बच्ची को चेहरा आज भी आंखों के सामने जाता है। जब उसने कहा था 'बाबा मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं।` ...और अचानक उसके बाबा ने कहा 'हां बेटा यों नहीं, तुम भी कल से स्कूल जाओगी।` हमें खुशी हुई, चलो हम अपने प्रयास की कड़ी में एक और ऐसी बच्ची का नाम जाे़ड पाए, जो अब शिक्षित होकर समाज में उजाला फैलाएगी।
थै अंजुला। तुमने कर दिखाया।
मैं जनता हूं, तुम आज भी इस नेक काम में लगी हो। दो साल पहले जब तुम स्कालरशिप लेकर अमेरिका पढ़ने चली गई थी, उसकेबाद से मुलाकात नहीं हुई। लौटी तो कुछ पुराने दोस्तों ने बताया कि तुम फिर से अपने काम में लग गई हो। गरीब बच्चियों को शिक्षा के मंदिर तक पहुंचाने का तुमने जो बीड़ा उठाया है, मैं उसे सलाम करता हूं। हां अफसोस जरूर रहेगा कि तुम्हारी इस मुहिम में मैं बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर सका। जिस समय तुम अमेरिका की उड़ान भर रही थी, उस मैं लाहौरी सप्रेस में बैठकर एक नए अखबार के साथ जु़डने जालंधर की यात्रा पर था। इन दिनों अचानक कुछ ऐसा वाकया सामने आया कि तुम्हारी याद गई। सोचा फिर कभी मौका मिला तो जरूर मिलकर काम करेंगे। ऊपर लिखी लाइनों को पढ़कर शायद तुम्हारे सामने भी अंजनीसैण (टिहरी गढ़वाल) की उस बच्ची का चेहरा याद गया हो, जो उस घास लेकर रही थी। वह पढ़ना चाहती थी, लेकिन उसके पारिवारिक हालात उसे इस बात की इजाजत नहीं दे रहे थे। फिर हमने मिलकर पहल की और उसके बाबा को मना लिया। मुझे याद है, वह बच्ची बराबर स्कूल जाए, इसके लिए तुमने उस बच्ची की पढ़ाई का पूरा खर्च भी अपने कंधों पर ले लिया था। ...और फिर यह तो एक उदाहरण है। मैं जानता हूं, तुमने अपनी संस्था के माध्यम से सैकड़ों बच्चियों को गोद लिया है, जिनकी पढ़ाई का खर्च तुम आज भी उठा रही हो। तुमने खुद जिस स्तर की पढ़ाई की थी, उसके बाद तुम चाहती तो किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के साथ जु़डकर एक आलीशान जिंदगी गुजार सकती थी। कोई फर्क नहीं पड़ता, ज्यादातर लोग आज ऐसा ही कर रहे हैं। हां, इतना जरूर है फिर शायद मैं तुम्हें यह खुला पत्र कभी नहीं लिख पाता। लेकिन, आज मैं गर्व से कहता हूं, तुम मेरी दोस्त हो। तुम्हें याद होगा, जब हम शुरू में मिले थे तो मैं तुम्हें मैम कहकर संबोधित करता था, फिर तुमने अपने साथ जु़डे छोटी-बड़ी उम्र के साथियों की तरह मुझे भी नाम लेकर संबोधित करने का हक दिया। शुरू में मैं कई बार गलती कर जाता था और बार-बार तुम्हें मैम कहकर पुकारता था। अच्छा लगा तुम्हारा ये खुलापन। यकीन मानो इसके बाद तुम्हारे इस दोस्त की नजरों में तुम्हारा कद और ऊंचा हो गया।
इन दिनों मैं पंजाब में हूं। शिक्षा को लेकर यहां के हालात भी इतर नहीं हैं। पुस्तैनी जायजाद और डालर की चमक में शिक्षा की अलख बराबर धूमिल होती नजर रही है। ...और जिनके पास गंवाने को कुछ नहीं, उनके हालात के बारे में तुम खुद ही अंदाजा लगा सकती हो। युवा वर्ग नशे के दलदल में फंसा है। अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन, अच्छी खबर यह है कि अंधेरे के इस मायाजाल में तुम्हारी तरह कुछ लोग हैं, जो ज्ञान की अलख को बराबर जलाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। उम्मीद की जा सकती है आने वाले समय में हालात बेहतर होंगे।
अंत में,
मेरी आदरणीय दोस्त, इस पत्र को पढ़ने के बाद शायद तुम्हारे दिमाग में यह प्रश्न उठे कि मैंने तुम्हें यह खुला पत्र यों लिखा। तो इस बारे में मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा, मेरे देश को मेरी दोस्त की तरह और बेटियों की जरूरत है, अगर किसी और को वह मिल जाएं तो उनसे जरूर दोस्ती कर लेना।
भूलचूक के लिए क्षमायाचना के साथ
तुम्हारा दोस्त
विनोद के मुसान

Friday 19 September, 2008

निवाले को तरसते लोग

अगले सप्ताह एक बार फिर संयु त राष्ट्र में दुनिया भर के नेता सहस्राब्दी विकास लक्ष्य को पूरा करने के उपायों पर चर्चा के लिए जमा होंगे। इस सम्मेलन में भूख व गरीबी के अलावा वैश्विक शिक्षा प्रसार और एचआईवी/एड्स से निपटने के उपायों पर भी बातचीत की जाएगी। लेकिन इस बीच दुनिया में गरीबों की संख्या में इजाफा हो गया है। कराे़डों लोग एक जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं।
एक तरफ जहां दुनिया में अमीरों की तादाद में इजाफे का दावा किया जा रहा है, वहीं निवाले के लिए तरसते लोगों की संख्या भी बेलगाम बढ़ती जा रही है। मुंह बाए खड़ी महंगाई ने दुनिया में भूखों की तादाद ७.५ करोड़ और बढ़ा दी है। नतीजतन अब पेट भरने में नाकाम लोगों की संख्या बढ़कर ९२.५ करोड़ हो गई है। संयु त राष्ट्र खाद्य एजेंसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि ताजा आंकड़ों से साफ जाहिर होता है अंतरराष्ट्रीय समुदाय २०१५ तक भूख और गरीबी मिटा देने के सहस्राब्दी विकास लक्ष्य से भी काफी दूर हो गया है।
वीरवार को इटली की संसद के सामने संयु त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के प्रमुख जै यूज डियोफ द्वारा पेश रिपोर्ट के मुताबिक खाद्यान्न कीमतें बढ़ने से पहले २००७-०८ के दौरान भूखे लोगों की संख्या ८५ करोड़ ही थी। संयु त राष्ट्र के अधिकारियों और सहायता एजेंसियों के अनुसार २०१५ तक भूख व गरीबी उन्मूलन के तय लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम हो जाने की एक अहम वजह दुनिया के अमीर देशों से मिलने वाली वित्तीय मदद में देरी है। इसी महीने संयु त राष्ट्र महासचिव बान की मून की ओर से जागरूकता अभियान के तहत जारी रिपोर्ट के मुताबिक दाता देशों ने २००० से वित्तीय सहयोग बढ़ा तो दिया है लेकिन २००६ और २००७ में सहयोग स्तर में क्रमश: ४.७ व ८.४ फीसदी की कमी दर्ज की गई है।

ये कैसी श्रद्धा है हमारी


हर इंसान की भगवान के प्रति अपनी आस्था होती है। कोई अपने फायदे के लिए तो कोई मन की शांति के लिए भगवान को प्रसन्न करने में जुटा हुआ है। पर कभी सोचा है कि हम अंजाने में भगवान का आदर नहीं निरादर कर रहे है। मेरी मंशा किसी की भावना को ठेस पहुंचाने की नहीं है, बस मैं कुछ बातों के जरिए सब का ध्यान इस तरफ लाना चाहती हूं कि जिस भगवान की पूजा करते है उसे ही क्यों कूड़े का ढेर बना देते है। हम जिस भगवान की पूजा के लिए हर चीज को शुद्ध करते है। उसी का निरादर होते देख हम चुप्पी क्यों साध लेते है। अभी हमने कुछ दिन पहले गणेश महोत्सव मनाया है। दस दिन तक श्री गणेश की स्थापना के साथ उनकी दिन रात पूजा की। पूरी श्रद्धा के साथ उनका गुणगान किया। फिर बाद में उनको जल प्रवाह किया। इसी के साथ क्या हमारी आस्था, श्रद्धा भी जल में बह गई। जिस भगवान को हमने जल में प्रवाह कर दिया, क्या बाद में हमारी नजर गई उस भगवान की प्रतिमा का क्या हुआ। दरिया, नदियों के किनारे वह उनकी प्रतिभा किस हाल में है। शायद भगवान के भक्तों के पास इतना समय कहां कि देख पाए कि हमने किया क्या है। बस दस दिन पूजा की, काम पूरा कर लिया अब क्या देखना कि हमारी श्रद्धा कहा है। जिस भगवान के हम जोर शोर से घर पर लाए, उसी शान से विदा भी किया। आज नगरनिगम की सफाई की गाड़ियां उन प्रतिमा को उठा रही है तो कहीं हमारे पैरों के नीचे आ रही है। इतना ही नहीं खंडित भगवान की प्रतिमा हमारी आंखों के सामने है पर हम चुपचाप तमाशा देख रहे है। यह सब देख कर हमारी आस्था क्यों नहीं जागती। हमारी श्रद्धा कहां चली जाती है, जब हम खुद अपने भगवान का अपमान करते है। इतना ही नहीं हम भगवान की प्रतिमा वाले कार्ड, कलैंडर तक छपवाते है, लेकिन फिर उन्हीं को खुद कुड़े के डिब्बे में फैंक देते है। क्या ऐसी श्रद्धा रखने में हम भगवान के सच्चे भगत कहलाने के काबिल है? क्या ऐसी पूजा हमें आस्तिक बना रही है या हम उस नास्तिक से बढ़ कर है जिसने कभी भगवान से दर पर माथा नहीं टेका। क्या भगवान का निरादर इसी तरह करते रहेंगे हम। इसको देखर क्यों नहीं हमारा जमीर जागता। क्यों हमारी श्रद्धा आस्था मर रही है। अगर हम आदर नहीं कर सकते तो कम से कम मेरी नजर में हमें निरादर करने का भी कोई हक नहीं है।

Thursday 18 September, 2008

मोनिका के चालीस प्रेम पत्र-एक


विनोद मुसान
अपने अच्छे दिनों में मोनिका ने जब अपने प्रेमी अबू सलेम को प्रेम पत्र लिखे होंगे, तब शायद उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उसके इन प्रेम पत्रों को भरे बाजार में उछाल कर उसे रुसवा किया जाएगा। आमतौर पर प्यार में चोट खाए प्रेमी द्वारा ही ऐसा किया जाता है। लेकिन, यहां तो कहानी ही दूसरी है। इस बार मोनिका केदिल पर दाग उसके प्रेमी ने नहीं बल्कि एक न्यूज चैनल ने लगाए हैं। भद् दे अंदाज में मोनिका के प्रेम पत्रों की प्रस्तुति देखने के बाद मन में एक टीस सी उठी और दिल ने कहाऱ्यूं रुसवा करो किसी के टूटे दिल को बाजार में, पाती प्रेम की लिखी थी उसने किसी के प्यार में, अब उसका सि का ही खोटा निकला, तो या यूं ही फेंक दोगे उसे भरे बाजार में। ...और फिर यह हक 'आपको` किसने दिया कि किसी के निजी प्रेम पत्रों को यूं बाजार में नीलाम करो। मोनिका और उसका प्रेमी अगर गुनाहगार हैं तो उन्हेंे सजा देने का अधिकार आपको किसने दिया। एक न्यूज चैनल के हाथ लगे मोनिका द्वारा अबु सलेम को लिखे चालीस प्रेम पत्रों का चैनल द्वारा कुछ इस तरह प्रस्तुतिकरण किया जा रहा है, जैसे इस बार उसने शताब्दी की सबसे महानत्म खोज कर डाली हो।
..............एक बानगी देखिए
-कहने को न्यूज चैनल और न्यूज की शुरूआत कुछ इस अंदाज में की जाती है, जैसे अब अगले आधे घंटे तक मदारी का खेल दिखाया जाने वाला हो।
-टीवी स्क्रीन पर मोनिका की हैंडराइटिंग में पत्रों को दिखाया जा रहा है, जिसकी एक-एक लाइन दर्शक बड़ी आसानी से पड़ सकते हैं।
-साथ में सुनाई देती है एंकर की भद् दी सी आवाज। आवाज में कुछ इस तरह की शरारत, जैसे स्क्रीन पर किसी वेश्या द्वारा खुलेआम अंग प्रदर्शन किया जा रहा हो।
-एंकर द्वारा प्रेम पत्रों में लिखी एक -एक लाइन को कुछ इस अंदाज में पड़कर सुनाया जाता है जैसे रॉ के किसी अधिकारी के हाथ आईएसआई का खुफिया पत्र लग गया हो।
ऱ्यहां तक तो ठीक था, लेकिन जब न्यूज एंकर प्रेम पत्रों में लिखी कुछ ऐसी बातों को प्रस्तुत करता है (जिनको यहां पर लिखना भी शायद अनुचित हो) जो नहीं करनी चाहिए तो दुख होता है यह सोच कर कि पत्रकारिता के नाम पर टीवी चैनलों में ये या बेचा जा रहा है।
क्रमश: .....