Sunday 31 August, 2008

रामजी भाई की परेशानी

विनोद मुसान
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गत दिनों मचे सियासी घमासान के बाद रामजी भाई 'गांव वाले` बड़े हैरान-परेशान हैं। उनकी परेशानी का सबब सियासत के अखाड़े में हो रही उठापठक नहीं है। वे इस बात से भी परेशान नहीं हैं कि राजनीति के इस खेल के खिलाड़ी किस कदर मर्यादा को ताक पर रख एक पाले से दूसरे पाले में जा रहे हैं। ...और जहां तक 'नोटतंत्र` (संप्रग सरकार की ताजा उपलब्धि) की बात है, इसे भी वे इतना बुरा नहीं मानते। उनके अनुसार ये विधा तो इस खेल में पूर्व से प्रचलित थी। फर्क सिर्फ इतना है, पहले ये खेल परदे के पीछे खेला जाता था, लेकिन अब टीवी कैमरों की टीआरपी ने इसे दर्शक उपलब्ध करा दिए। रामजी भाई की समस्या इससे भी ज्यादा 'टेि नकल` और देशकाल के साथ खुद उनके भविष्य से जु़डी है।
आप सोच रहे होंगे ये रामजी भाई हैं तो 'गांव वाले` और इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। आखिर ये हैं किस खेत की मूली? तो चलो रामजी भाई की समस्या से पहले उनका संक्षिप्त परिचय ही करा दिया जाए। दरअसल, रामजी भाई गांव के पढ़े-लिखे वे नौजवान हैं, जिन्हें आप और हमारी तरह ही देश के भविष्य की चिंता सताती रहती है। लेकिन, ग्रामीण पृष्ठ भूमि से जु़डे होने के चलते लोग उनकी बातों को उतनी तबज्जो नहीं देते, जितनी उनके अनुसार उन्हें मिलनी चाहिए। ये उनकी दूसरी समस्या है।
अब बात करते हैं मुद् दे की। करार के मुद् दे पर 'हाथ` और 'लाल झंडे` की बीच हुई तकरार आखिर उस माे़ड पर आ पहुंची, जहां बैटिंग कर रहा हाथ आउट होते-होते बचा। इसके बाद तो जैसे लाल झंडे का रंग और सुर्ख हो गया। उसने नया शगूफा छाे़डा और केंद्रीय दरबार की गद् दी में 'गजराज` को बैठाने की बात कह डाली। बड़े-बडे दिग्गजों के कान खड़े हो गए। उन्हें ताउम्र सियासत के खेल का अनुभव छोटा लगने लगा। उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। ऐसे में हमारे रामजी भाई 'गांव वाले` का परेशान होना भी लाजमी था। आखिर लोकतांत्रिक देश में चिंतन करने का उनका भी हक है। यह बात दीगर है कि इस देश के लाखों-कराे़डों पढ़े-लिखे अन्य नौजवानों की तरह रामजी भाई भी सिर्फ 'सोचकर` ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। वे चाहते हुए भी कुछ ऐसा नहीं कर पाते कि 'मायाजाल` में उलझने के बजाए उससे बाहर निकलकर दूसरों के सामने ऐसी युि त पेश करें, जिससे वे खुद की की नैय्या और साथ बैठे दूसरे सहयात्रियों को भी पार लगा सकें।
चलते-चलते बताता चलूं कि सियासतदांजी में पैनी नजर रखने वाले रामजी भाई किसी पार्टी विशेष से ताल्लुक नहीं रखते। उन्हें 'हाथी-घाे़डों` से भी बैर नहीं। न ही वे इस बात की परवाह करते हैं कि 'दरबारे दिल्ली` तक कौन व्यि त 'साइकिल` पर बैठकर आया या 'कार` में या उसके हाथ में किस रंग का झंडा था। उन्हें तो फिक्र है बस इस बात की राजदुलारा 'राज` तो करे, लेकिन उसे 'दुलार` करने वाले समुदाय विशेष के लोग न होकर वे लोग हों, जो कहलाते हैं इस देश के 'आम आदमी`।

खोखले होते हमारे रिश्ते

रोजाना समाचार पत्रों की सुर्खियां बन रही है कि अपने ने ही अपनों को मार डाला। कभी जमीन के लिए तो कभी पैसे के लिए। कुछ दिन पहले कि घटना कि एक लड़के के अपने मां बाप को वृद्ध आश्रम भेज दिया, क्यों वह बीमार रहते थे और उसके पास अपने बुजुर्ग माता पिता के लिए समय नहीं थी। ऐसी हवा चल रही है जिससे लगता है हमारे रिश्ते खोखले होते जा रहे है, स्वार्थ का दीमक हमारे अपनेपन के अहसास को खत्म करता जा रहा है। मां-बाप बच्चों तो पालते है, लेकिन बच्चे क्या कर रहे है। उनको वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखा दिया, क्योंकि उनको वह बोझ लगने लगते है। पिछले दिनों एक वृद्ध आश्रम जाने का मौका मिला तो वहां के बुजुर्गों का दर्द सुन कर आंखो में नमी के साथ-साथ शर्मिंदगी थी कि हम अपनों को बोझ मानने लगे है। उन बुजुर्गो को जिन्होंने हमारी खुशी के लिए अपना जीवन का हर वो पल निछावर कर दिया, जिससे वह जीवन भर की खुशियां हासिल कर सकते थे। क्या आज हम आधुनिकता की दौ़ड़ में इतना व्यस्त हो चुके है कि हमारे अपने-अपनों के साथ के लिए तरस रहे है। लेकिन हम शायद यह भूल रहे है कि हम भी कभी उनकी उम्र में पहुंचेंगे, तब क्या अपनों की कमी नहीं महसूस होगी। स्वार्थ इतना हम पर हावी हो रहा है कि खुद के सिवा कुछ भी नहीं सोच पा रहे। खुद के लिए खुशियां तो ढूंढते है, लेकिन खुद के रिश्तों को कही दूर छोड़ते जा रहे है। विदेशी सांस्कृति का असर हम पर हो रहा है, वहां की तेज रफ्तार और व्यस्त जीवन का कलचर हमारे मनों पर ज्यादा छाप छोड़ रहा है। किसी दूसरे देश की संस्कृति को अपनाने में बुराई नहीं, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना गलत है।

Wednesday 27 August, 2008

नौटंकी बंद करो लालूजी


वेद विलास
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बिहार के कई हिस्से बाढ़ग्रस्त हैं। इस कदर कि इसे बाढ़ नहीं प्रलय कहा जा रहा है। ऐसे समय जब लाखों लोग इससे प्रभावित हो रहे हों, कई घर उजड़ गए हों, तब लालू अपना गंदा खेल खेल रहे हैं। उन आग उगलती टिप्पणियां राज्य को बचाने के लिए नहीं बल्कि अपनी ओछी राजनीति की सलामती के लिए हैं।
बिहार के ये इलाके पिछले एक सप्ताह से पानी का प्रकोप सह रहे हैं। आपने भी अखबारों टीवी में तस्वीर देखी होंगी कि ये ही लालू शिबू सिरोन को झारखंड की सत्ता दिलाने के लिए कितनी दौड़भाग कर रहे थे। जब बिहार मेंं लोग इस आपदा से रोटी के लिए तरस रहे थे । ये ही लालू शिबू सिरोन को बर्फी का पीस खिला रहे थे। यही इनकी राजनीति का असली चरित्र है। जिन गरीब गुरबा की बात लालू और उनकी पत्नी रबड़ी देवी करती है उनका सबसे ज्यादा मजाक इन्ही दंपति ने उड़ाया है। अब वे दिखावे के लिए या फिर पिकनिक के लिए हवाई सर्वेक्षण कर रहे हैं या फिर प्रधानमंत्री केघर के आगे नाटक कर रहे हैं। भला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पहुंचने केलिए लालू को इस ताम झाम का या जरूरत। लेकिन ऐसी नौटंकी नहीं करेंगे तो निरक्षक असहाय और बेचारे भोले भाले लोगोंं को अपने जाल में कैसे फंसाएंगे। यही इनका समाजवाद है यही धर्मनिरपेक्षता। लालू को महिमामंडितकरने वाले लोग या उन्हें बताएंगे कि इस बाढ़ की आपदा में हर कोई प्रभावित है। लालू यह सब करते हैं। हो सकता है कि प्रधानमंत्री फुर्सत पाकर बिहार की तरफ चले जाएं। सोनियाजी तो अभी चीन की यात्रा थकान मिटा रही हैं। उन्होंने बीजिंग के बर्ल्ड नेस्ट मेंं इतनी आतिशबाजी देखी है कि थकान लगना स्वाभाविक है। या है यह सब ? हम किन लोगोंं को अपना नेता मान रहे हैं। या ये हैं देश को चलाने वाले ठेकेदार? या इरादे हैं इनके। या ये किसी जगह तभी जाएंगे जब वहां रंगारंग कार्यक्रम हो रहा हो। या इन्हें किसी चीज का उद्घाटन करना हो।
बात लालू पर ही आती है। आज वे बिहार सरकार को कोस रहे हैं। लेकिन भूल जाते हैं उनके और उनकी पत्नी के शासन के पिछले पंद्रह वर्ष ही हैं जिन्होंने बिहार की ऐसी हालत की है। पंद्रह सालों में लालू ठहाकों से जनता को बरगलाते रहे। न एक सड़क बनी, न एक स्कूल खुला। अस्पताल बिजली सब चौपट। लालू ने बातें न बनाई होती और कामकाज किया होता तो अनाज रसद पहुंचाने में कुछ तो मदद मिलती। बिहार को अंधकार में पहुंचाने के बाद वे फिर नौटंकी कर रहे हैं। भूल जाते हैं कि अब देश जग रहा है। मजबूत सूचना सूचना तंत्र किसी भी नेता की नोटंकीबाजों को सामने रख देता है। बिहार के संदर्भ में लालू का आचरण शर्मनाक है। ऐसी गंभीर स्थिति मेंं उनकी कारगुजारी कोई भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
लालू के ठहाकोंं मेंंबहुत सी चीजें छिप जाती है। आखिर किस बात का ठहाका लगाते हैं वह? बिहार को इस हालत मेंंपहुंचाने का। मुंबई और पंजाब जैसे राज्यों में बिहार के लोग अपने घर परिवार से दूर रहते हैं। मेहनत मजदूरी कर किसी तरह जीवन निर्वाह करते हैं। उन्हें भी घर परिवार की याद आती होती। लालू जैसे नेताआें ने इस दर्द को समझा होता तो पंद्रह साल कामकाज के लिए बहुत थे। लेकिन सुरती मल के और लच्छेदार बातों से लोगों को बरगा करके वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे। आम लोगों की उन्हें कोई परवाह नहीं रही। उनके लिए बिहार का मतलब उनका परिवार है। आज उसी बिहार में फिर कल कारखाने खुलने लगे हैं। कृषि विकास में राज्य फिर चार प्रतिशत बढ़ कर चौथे नंबर पर आ गया है। फिर उद्योगपतियों ने बिहार में उद्योग लगाने के लिए रुझान दिखाया है। फिर मुंबई कलकत्ता और पंजाब से बिहार का मजदूर कमजोर वर्ग फिर घर वापसी की तैयारी कर रहा है। उसे काम मिल रहा है वह वापस इन राज्यों मेंं नहींं जाना चाहता। आतंक लूटपाट कम हो रहा है।
फिर लालू इस संकट के समय अपने पेंतरों से वहां की राज्य सरकार को बदनाम करना चाहते हैं। भूल जाते हैंकि यह आपदा है। अगर इसमें दि कत आ रही है तो इसके लिए वह और उनकी पंद्रह वर्ष की सत्ता भी जिम्मेजार है।
देश और बिहार को ऐसे नेताआें से सजग रहना है। ये ठहाके लगा गा कर और सिमी की बिरयानी खाकर देश के लिए ऐसा माहौल खड़ा कर रहे हैं जिससे देश के लिए काफी मुश्किल होंगी। सिमी पर आतंक फैलाने , बम विस्फोट करने के आरोप लग रहे हैं। लेकिन लालू को इसकी या परवाह। उन्हें पता है कि इन बन धमाकों की जद में वह नहीं आते। हां बिहार का गरीब गुरबा जरूर आता है। इसकी उन्हें या परवाह। पर हमें परवाह है इसी लिए लिख रहे हैं। जहां तक भी हो ऐसे नेताआें से सावधान करने के लिए आप तक अपनी बात पहुंचा रहे हैं। आने वाला समय तो इन्हें बेनकाब करेगा ही।

बालमन को रौंदते टीवी न्यूज चैनल

सुबह सो कर उठा तो दोनों बच्चे घर में ही पाए गए, जबकि उन्हें स्कूल में होना चाहिए था। पूछा स्कूल यों नहीं गए तो एक ने जवाब दिया कि स्कूल जाकर या करना है। यह दुनिया तो वैसे भी कुछ ही दिन की मेहमान है। उसके जवाब से मैं हैरत में था। मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। खुद को संयत करते हुए पूछा कि तू ऐसी बकवास यों कर रहा है?
मैं नहीं डैडी, मेरे स्कूल के सभी लड़के कह रहे हैं कि पढ़-लिखकर या करना? दुनिया तो चार साल चार माह १५ दिन बाद तबाह हो जाएगी, बरबाद हो जाएगी। ऐसे में पढ़ने का या फायदा? जिंदगी के जो चार साल बचे हैं उसमें मौज-मस्ती यों न की जाए। मेरा यह बेटा अभी पंद्रह साल का है और नौवींं कक्षा में पढ़ता है। उसकी बातें सुनकर एक पल को तो मेरे शरीर में खून दाै़डना ही बंद हो गया। मुझे लगा कि यह या बकवास किए जा रहा है। अगले ही पल मुझे बहुत तेज गुस्सा आया और मन में आया कि मैं इसकी बेवकूफी के लिए इसकी पिटाई कर दंू। लेकिन फिर सोचा कि नहीं, इसकी बात को धैर्य से सुनना चाहिए। यह तय करने के बाद मैं शांत हो गया और उससे प्यार से पूछा कि आप और आपके स्कूल के लड़कों को यह बात किसने बताई? उसने बिना हिचक एक न्यूज चैनल का नाम लिया। अब मेरे लिए और चौकने की बारी थी। न्यूज चैनल का ऐसा प्रभाव नौवीं कक्षा के छात्रों पर इस तरह से भी पड़ सकता है मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। यह तो पता था कि आजकल न्यूज चैनलों में ऐसी-ऐसी खबरें दिखाई जा रही हैं जिनको खबर कहा ही नहीं जा सकता। लेकिन ऐसी भी खबरें दिखाई जा रही हैं जिससे बालमन हताशा और निराशा के गर्त में चला जा रहा है।
इसे या कहेंगे? या यही पत्रकारिता है? यही पत्रकारिता के सिद्धांत और नैतिक मूल्य हैं? या ऐसे ही देश निर्माण किया जाता है? या यही पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार हैं? ये सभी सवाल मेरे दिमाग पर किसी हथाै़डे की तरह प्रहार करने लगे। मुझे नहीं सूझ रहा था कि मैं बच्चे से आगे या कहंू। कुछ पल रुकने के बाद मैंने कहा कि जिस न्यूज चैनल की बात आप कर रहे हैं उसे कभी नहीं देखना चाहिए। वह झूठी और ऊल-जुलूल खबरें दिखाता रहता है। उसकी खबरों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
बेटे को यह प्रवचन देकर मैं टीवी खोल कर बैठ गया। उ त न्यूज चैनल के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी। इस कारण उसी को देखने लगा। इत्तफाक से उस समय उस न्यूज चैनल पर वही खबर आ रही थी, जिसका जिक्र बेटे ने किया था। न्यूज चैनल किसी स्वामी के हवाले से दावा कर रहा था कि ४ साल ४ माह १५ दिन बाद एक प्रलय आएगा और पूरी दुनिया को तबाह कर जाएगा। तब इस धरती पर कुछ भी नहीं बचेगा। इन बातों के साथ वह विध्वंसक दृश्य भी दिखा रहा था। जिसका मतलब था कि जो वह कह रहा है उसका दृश्य इसी तरह का हो सकता है। न्यूज चैनल दावा कर रहा था कि २१ दिसंबर २०१२ को कलियुग खत्म हो जाएगा। इसी के बाद यह प्रलय आएगी। एक ऐसी सुनामी आएगी जिससे कोई भी नहीं बच पाएगा। चैनल का यह भी दावा था कि इस स्वामी की अभी तक की सभी भविष्यवाणियां सच हुई हैं। यही नहीं कुछ हिंदू धर्म गुरुआें ने भी ऐसी ही भविष्यवाणी की है। न्यूज चैनल यह भी दावा कर रहा था कि वैज्ञानिक भी इस आशंका में हैं और वह इस समस्या से निपटने का उपाय खोज रहे हैं। इन सब चीजों को वह एक हारर फिल्म की तरह दिखा रहा था। इसी बीच न्यूज चैनल को चाहिए था ब्रेक तो उसने दावा किया कि ब्रेक के बाद वह इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिकों की राय भी दिखाएगा। इस कारण मैं उस न्यूज चैनल को देखता रहा। सोचा देखते हैं वैज्ञानिक या कहते हैं।
ब्रेक खत्म हुआ। न्यूज चैनल फिर वहीं कहानी दोहराने लगा। उसके बाद दूसरी खबर दिखाने का वादा करते हुए बे्रक पर चला गया। वैज्ञानिकों की राय को दिखाने का जो दावा उसने किया था उसे ऐसे पी गया जैसे प्यासा पानी को पी जाता है। मैंने बेटे से कहा कि देखा इसने दावा करके वैज्ञानिकों की राय को नहीं दिखाया। इसका मतलब है कि इसने जो खबर दिखाई है वह केवल सनसनी फैलाने के लिए। उसकी खबर पर विश्वास नहीं किया जा सकता। संतोष की बात यह थी मेरी बात से मेरा बेटा सहमत हो गया। लेकिन उन बच्चों को कौन समझाएगा जिनके अभिभावक खुद ऐसी खबरों के प्रभाव में आ जाते हैं।
सवाल उठता है कि या टीआरपी के लिए किसी न्यूज चैनल को इस हद तक चला जाना चाहिए कि वह अपने सामाजिक सरोकारों को ही भूल जाए? खबरों का एक मूल्य होता है जो मानवीयता, नैतिकता, सामाजिकता, संस्कृति और देश के प्रति जवाबदेह होता है। जब इसका उल्लघंन किया जाता है तो उसके खतरनाक प्रभाव समाज, संस्कृति और देश पर पड़ता है। आजकल कुछ न्यूज चैनल शायद इस बात को भूल गए हैं। उनके लिए टीआरपी इतनी अहम हो गई है कि वह कुछ भी दिखाए जा रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि इसका समाज पर या प्रभाव पड़ेगा। शायद यही वजह थी कि पिछले दिनों केंद्र सरकार ने न्यूज चैनलों पर शिकंजा कसने का प्रयास किया था। हालांकि इसका समर्थन नहीं किया जा सकता कि सरकार खबरों को सेंसर करे, लेकिन यदि न्यूज चैनल ऐसे ही चलते रहे तो सरकार के लिए मजबूरी हो जाएगी कि वह इन्हें पत्रकारिता सिखाए। इसके लिए उसे जनसमर्थन भी मिल जाएगा। यदि ऐसी स्थिति आती है तो इसके लिए ऐसे न्यूज चैनल ही जिम्मेदार होंगे जो विवेकहीन होकर सनसनी फैला रहे हैं।

Monday 25 August, 2008

एक कसक थी मन में


वेद विलास उनियाल
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एक सुबह विविध भारती पर बड़े गुलाम अली का एक भजन मन को बेहद सुकून दे गया। इस मायने में भी कि पिछले दिनों संसद में गुरु घंटालों की कारगुजारियों को देख मन व्यथित था। अभी ज्यादा व त नहीं हुआ हमारे सैनिक कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ते हुए विपरीत स्थिति में आतंकवादियों से जूझ रहे थे। सैनिकों के शहीद होने की खबरें आती थी। पूरा देश गमगीन था और साथ ही अपने जवानों की शौर्य गाथा से अभिभूत भी। तब भी मन में यही कसक हुई थी। एक तरफ हमारे जवान सियाचीन करगिल जैसी ऊंची पहाड़ियों पर तैनात होकर देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, दूसरी तरफ हमारे नेता किस तरह इस देश की अस्मिता पर प्रहार कर रहे हैं। बेशक उनकेपास टीवी के माइक पर बोलने के लिए ऊंची आवाज है, उनके पास चमकता कुर्ता है, विरोधियों को चित्त करने के लिए फुहड़ डिबेट है। लेकिन, अगर उन्हें कुछ याद नहीं रहता तो शायद यही कि हर बार सीमा से हमारे कुछ सैनिक अधिकारियों के शहीद हो जाने की खबर रह-रह कर आती है।
संसद में नोट उछालने का वह दृश्य दिखा तो बहुत याद करने पर भी याद नहीं आया कि किसी मारधाड़ या स्टंट फिल्म के किसी सीन में इतने रुपए एक साथ देखे होंगे। नहीं याद आया। भारतीय मध्यम वर्ग का आम आदमी इतने रुपए तो फिल्म के पर्दे पर ही देखता है। यहां के जासूसी उपन्यासों में भी पैसों की बात होती है तो लेखक दस पांच लाख रुपए तक ही बात सीमित रखते हैं। तब करोड़ रुपए संसद के पटल पर रखे जा रहे थे। इस बात की उत्सुकता नहीं कि रुपए कहां से आए और किसने दिए। राजनीति के पतन में अब सब कुछ किसी भी स्तर तक हो सकता है। एक करोड़ नहीं प्रत्येक दलबदलू को पचास करोड़ भी चाहिए तो कुछ नेता कहे जाने वाले बिचौलिए उसका भी इंतजाम कर लेंगे।
बात फिर एक क्षण की। विविध भारती सुनने के लिए रेडियो स्विच ऑन किया तो ठुमरी पर कार्यक्रम चल रहा था। ठुमरी और वह भी बड़े गुलाम अली की। शायद सावन के महीने में विविध भारती ने समझ कर बड़े गुलाम अली की ठुमरी हरी ओम तत्सत को सुनाया होगा। इस भजन से अपनी पुरानी स्मृति जु़डी है। बचपन की याद है पिताजी ने कभी कहा था हरि ओम तत्सत, महामंत्र है, ये जपा कर, जपा कर, बड़े गुलाम अली ने बहुत भावविभोर होकर गाया है, कभी जरूर सुनना। फिर बाद में कहीं और भी जिक्र हुआ था। पर इस भजन को कहीं सुन नहीं पाया था। इसकी चाह में जगह जगह घूमा। मुंबई के रिदम हाउस, दिल्ली के बाजारों, दून का पल्टन बाजार, और भी बहुत जगह। बड़े गुलाम अली की कई कैसेट सीडी देखीं पर यह भजन नहीं दिखा। फिर एकाएक रेडियो पर उद्घोषिका ने बड़े गुलाम अली की ठुमरी का जिक्र करते हुए इस भजन का जिक्र किया तो मन चहक उठा। बरसों मन की चाह पूरी हो रही है। कुछ ही पलों में बड़े गुलाम अली की सधी आवाज गूंज रही थी। मैं सुन रहा था,
...एक दिन पूछने लगी शिव से शैलजा कुमारी, प्रभु कहो कौन सा मंत्र है कल्याणकारी, कहा शिव ने यही मंत्र है तू जपा कर जपा कर हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत। लगी आग लंका में हलचल मची थी, तो यों कर विभिषण की कुटिया बची थी, यही मंत्र उसके मकां पर लिखा था हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत।.... उस साधक के स्वरों में मैं खो सा गया। जहां अमृत का रस बरसता हो वहां हमारी नई पीढ़ी इससे अनजान यों है। मुझे थोड़ा तंज भी हुआ कि मुंबई में रहते मैंने विविध भारती में कमल शर्मा और यूनुस खान से इस भजन की चर्चा यों नहीं की। और तमाम गीत संगीत पर तो साथियों से जब-तब बातें होती रहती थी। वह मुझे कुछ न कुछ बताते। लेकिन, अब ही सही, मुझे वह सुनने को मिला जिसे पाने के लिए मैंं बहुत घूमा फिरा। वह स्वर मेरे कानों मेंं अब भी गूंज रहे हैं। सच कितनी संपन्न विरासत है हमारी। आप को भी यह सुनने को मिले तो जरूर सुनिएगा।

समाज के विकास से जोड़कर देखना होगा खेलों को भी

ओमप्रकाश जी ने गंभीर सवाल उठाया है। मगर क्या हमें खेलों के परती हमारे रवैया को ऐतिहासिक नजरिये से नही देखना चाहिए । साहित्य , कला , विज्ञान या फ़िर खेल इन सभी विधाओं का विकास उन्ही समाजों में हुआ है जंहा समाज के ढांचे में आर्थिक विकाश हुआ है। अमेरिका , ब्रिटेन या फ़िर इस बार का ओलंपिक सिरमोर चीन हो। अनिल जी जिस चीज को तानाशाही कह रहे हैं दरअसल वह तानाशाही नही बल्कि १९४९ में हुई क्रांति के बाद का व्यवस्थित विकास है जिस के चलते लोगों की मुलभुत जरूरतें पूरी हुई और लोगों ने मनोरंजन के दुसरे साधनों के बारे में सोचने की फुरशत मिली । मगर भारत जैसे समाज में जंहा तीन बेटे पैदा होने पर बाप सोचता है की तीनो को ढाबे पर लगाने से ८०० रुपये परती माह के हिसाब से २४०० रुपये घर आयेंगे वंहा कौन ५००० रुपये महीने के स्वीमिंग पुल की फीस भर कर अपने बेटे को फेलेप्स सा तैराक बना पायेगा । कुछ लोग उदाहरण देते हैं की फलां खिलाड़ी आभाव में भीं मैडल जीत गया । ऐसे लोग तकनीक को भूल जाते हैं जो किसी भी खेल में बहुत मायने रखती है। किसी अख़बार में पढ़ा की अभिनव बिंद्रा की ट्रेनिंग पर दस करोड़ का खर्च आया । कुछ लोग सवाल कर रहे हैं की एक अरब की आबादी में केवल एक गोल्ड मैडल आना शर्म की बात है। भाई , जिस समाज में आधे से ज्यादा आबादी ठीक से पेट नही भर पति वंहा खेल कूद बेमानी है । यही कारन है की कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माता पिता अपने बेटे को आई टी आई या पोलिटेक्निक का सपना दिखाते हैं तो अच्छी स्थिति वाले डाक्टर या इंजिनियर का। मगर सवाल सबके सामने एक ही है रोटी का। जिस समाज में रोटी का सवाल हल नही होगा वंहा खेल कूद का सवाल उलझा रहेगा । इसलिए समाज की वास्तविक अर्थों में आर्थिक तरक्की हुए बिना खेल कूद, कला साहित्य में तरक्की मुस्किल है । हाँ अपवाद हर समाज में मिल जाते हैं

देशभक्ति के खोखले नारे लगाने से नहीं मिलते पदक

बीजिंग ओलंपिक में पदक के मामले में भारत ४६वें स्थान पर है। लेकिन इस बार भारत की झोली में तीन पदक आ गए हैं। यह पदक जहां व्यि तगत स्पार्धाआें में मिले हैं। वहीं यह खिलाड़ियों की व्यि तगत मेहनत, लगन, जुनून और साहस का परिणाम भी है। जिन खिलाड़ियों ने हम हिंदुस्तानियों को गर्व करने लायक यह अनमोल क्षण दिया है उनके प्रति आज हमारा रवैया बेशक सकारात्मक है लेकिन खेल और खिलाड़ियों के प्रति हमारे समाज में अच्छी राय नहीं है। खेलों के प्रति हमारी मानसिकता कैसी है उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
आप किसी के यहां जाएं और उसके बच्चे से पूछें कि बेटा/बेटी बड़ा होकर या बनना चाहते हो? उसका जवाब होगा कि वह डा टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। इसी तरह यदि मेजबान मेहमान के बच्चे से पूछता है तो उस बच्चे का जवाब भी यही होता है कि वह इंजीनियर नहीं तो डा टर या आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। यह कोई एक-दो घर की बात नहीं है। हमारे देश में यह घर-घर की कहानी है। किसी घर में शायद ही कोई बच्चा कहे कि वह खिलाड़ी बनना चाहता है।
सवाल उठता है कि बच्चों में ऐसी मानसिकता कहां से आ जाती है? जाहिर सी बात है कि यह संस्कार बच्चों को अपने मां-बाप और परिवार से ही मिलता है। हमारे घरों में यह तो कहा जाता है कि बेटा या बेटी पढ़-लिखकर तुम्हें डा टर, इंजीनियर या आईपीएस, आईएएस बनना है लेकिन यह नहीं कहा जाता कि तुम्हें खिलाड़ी बनना है।
ऐसा यों है कि कोई अपने बच्चे को खिलाड़ी बनने के लिए प्रेरित नहीं करता? शायद भविष्य की चिंता। भविष्य की चिंता देशप्रेम पर भारी पड़ जाती है। अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेंदर की जीत पर हम जश्न मना सकते हैं, लेकिन हम यह कदापि नहीं चाहते कि हमारे घर से कोई अभिनव या सुशील निकले। ऐसे में किसी खिलाड़ी की जीत पर खुशी मनाते लोगों की देशभि त कितनी खोखली हो जाती है।
खेलों को जीवन स्कूल स्तर पर ही दिया जा सकता है। लेकिन आज निजी स्कूलों का बोलबाला है, जहां खेल हाशिये पर है। निजी स्कूलों की दिलचस्पी खेल में नहीं बच्चों के अंक पर होती है। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में अब भी एक पीरिएड खेल के लिए होता है। यह और बात है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे दिन के लगभग आठों घंटे ही खेल ही खेलते हैं। उन्हें पढ़ाने की जहमत तो शायद ही कोई शिक्षक उठाता है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों में समाज के ऐसे लोगों के बच्चे जाते हैं जो निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते। अब ऐसे लोगों के बच्चों के लिए कोई शिक्षक पढ़ाने यों लगा? जब कोई शिक्षक पढ़ाता ही नहीं तो वह खेल में या दिलचस्पी लेगा? फिर भी गांवों और शहरों के कुछ सरकारी स्कूलों में अभी खेल जिंदा है। फंड लेने के लिए सही यह स्कूल खेलों का आयोजन करते हैं। इस तरह यह अभी खेल जिंदा है बेशक वह अंतिम सांसें ले रहा है।
यदि हमें ओलंपिक स्वर्ण पदक चाहिए तो खेलों को स्कूली स्तर पर ही मजबूत करना होगा। निजी स्कूलों में भी खेलों के लिए एक पीरिएड रखना अनिवार्य करना होगा। पूरे साल खेलों का कोई न कोई आयोजन करते रहना होगा, ताकि जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं उन्हें पूरा मौका मिल सके। ब्लाक और जिला स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चों को विशेष संरक्षण देकर उनकी प्रतिभा को निखारना होगा। कम से कम ऐसी प्रतिभा को अपनी तैयारी में जहां कोई परेशानी न आए वहीं वह समाज में बेहतर जीवन जी सके इसके लिए उसके भविष्य को भी सुनिश्चित करना होगा। यदि ऐसी प्रतिभाएं प्रतियोगिताआें में उम्मदा प्रदर्शन करती हैं तो उन्हें और उनके परिवार को बेहतर प्रतिफल देना होगा। यह काम सरकार उद्योग जगत की मदद से कर सकती है। यदि हमें ओलंपिक और स्वर्ण या पदक चाहिए तो ऐसा करना ही पड़ेगा। देश के हर नागरिक को सोचना होगा कि उसके परिवार का कम से कम एक बच्चा किसी न किसी खेल में प्रतिभागी बने। केवल देशभक्ति के नारे लगाने से ही काम नहीं चलेगा। उद्योग जगत को भी सोचना होगा कि देश के लिए उन्हें अपनी आय का कुछ अंश खेलों के लिए दें। यदि कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में विजयी होता तो उद्योग जगत उसे विज्ञापन के लिए लपक लेता है, लेकिन उद्योग जगत कोई ऐसा खिलाड़ी तैयार करने में रुचि नहीं दिखाता जो भविष्य देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दे। इस मानसिकता को बदलना होगा यदि हमें अपने देश से प्यार है।

Sunday 24 August, 2008

हरियाणा का `राज ,

इधर हरियाणा में राज ठाकरे के नए अवतार का जन्म हुआ है । सिख विरोधी दंगो में कुख्यात रहे भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई ने एलन किया है की उनकी पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस के सत्ता में आते ही ऐसा कानून बनाया जाएगा जिसके तहत बाहर के मजदूरों को यंहा से भगाया जाएगा । कुलदीप बिश्नोई कांग्रेस के भगोडे सांसद है और इसकी ताज़ा गठित पार्टी हरयाणा में ऐसे विवादस्पद मुद्दों की तलाश में है जो उनकी राजनितिक नैया पर लगा सके। यंहा यह बात गौर करने लायक है क हरयाणा में पश्चिमी उत्तर परदेश और बिहार से आए हुए मजूरों की बड़ी तादाद है। यमुनानगर का प्ल्य्वूद उधोग ' पानीपत का हथकरघा उधोग, फरीदाबाद व् गुडगाव का आधुनिक उधोग सारा का सारा बहार से आए मजदूरों पर निर्भर है। लंबे समय तक हरियाणा के लोगों ने उधोग में मजदूरी करने की बजाये खेती में विस्वास रखा 'मगर खेती के गहराते संकट के बाद अब किसान परिवारों में भी ओधोगिक मजदूरी का ट्रेंड बढ़ रहा है। भारत जैसे देश में किसी भी तरह का सामाजिक संकट राजनितिक दलों के लिए चिंता का विषय नही बल्कि आगामी चुनावों के लिए खाद होता है जो वोटों की लहलहाती फसल पैदा करता है। ऐसे में हरियाणा में खेती के गहराते संकट में कुलदीप बिश्नोई जैसे लोग वोटों की फसल क्यों नही काटना चाहेंगे । उनका ताज़ा ब्यान इसी की अभिव्यक्ति है। कोई बड़ी बात नही होगी अगर चुनाव से पहले हरियाणा में भी ये लोग मुंबई को दोहरा दे तो।

Thursday 21 August, 2008

कामरेड तुम कब सुधरोगे?


कर्मपाल गिल
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लगता है 'हमारे` कामरेडों को भारत की कोई सफलता पच नहीं पाती है। किसी भी क्षेत्र मंे भारत की उपलब्धि की चर्चा हो वह एकदम चीन से उसकी तुलना कर उसे खारिज करने की कोशिश करते हैं। पर वह यह नहीं कहते कि जिस तरह के विघ्नसंतोषी काम वामपंथी दल भारत में करते हैं आए हैं ऐसा चीन में करते तो उन्हें किसी निर्जन टापू में पहुंचा दिया जाता। खैर चीन के कम्यूनिस्ट अपने खिलाड़ियों की कद्र करना जानते हैं। लेकिन भारत के कम्यूनिस्ट अपने खिलाड़ियों की बेज्जइती करना। यह अलग बात है कि इससे खिलाड़ियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अभिनव की जीत पर किसी कामरेड की तरफ से कोई बधाई देना तो दूर की बात, पश्चिम बंगाल के खेल मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने अभिनव की जीत को तु का करार दे डाला। अभिनव बिंद्रा को पूरा देश दुनिया जान रही है। लेकिन उन पर टिप्पणी करने वाले पश्चिम बंगाल के खेलमंत्री सुभाष चक्रवर्ती की अपनी खुद पहचान या है। कुछ उन्हीं की तरह कामरेडो के अलावा उन्हें कौन जानता है? या योगदान है उनका समाज के लिए ? या वह खुद तु के के मंत्री नहीं बने हैं। या वह किसी मुद्दे पर सौ लोगों को इकट्ठा करने की हिम्मत रखते हैं। सुभाष चक्रवर्ती जैसे कई घूमते हैं लेकिन अभिनव बिंद्रा तो एक ही होता है। दुर्भाग्य यही है कि सुभाष चक्रवर्ती जैसे लोग तिकड़मों से खेल के मंत्री बने हुए हैं। उनकी बात का कोई बुरा नहीं मान रहा । लोगों ने बस यही समझा कि कोई सठिया गया है जो गोल्ड लाने वाले अभिनव के लिए ऐसी बात कह रहा है। सठियाए हुए तो ये शुरु से हैं। कभी सुभाष चंद्र बोस को अपशब्द कहते थे। कभी पूरा देश अंग्रजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहा था ये नारे का विरोध कर रहे थे। चीन के युद्ध में उसकी तरफदारी कर रहे थे। इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल को इन्होंने उचित ठहराया था। यानी हर काम जो भारत की अस्मिता के खिलाफ हो वहां ये ताल ठोककर उसका समर्थन करते हैं। इन्हें इस बात की परवाह नहीं कि पाकिस्तान और चीन ने कश्मीर की कितनी जमीन हथिया ली। पर थोड़ी सी जगह कुछ महीनों के लिए श्राइन बोर्ड वाले मांग रहे हैं तो वामपंथी सुलग रहे हैं। अपनी हास्यास्पद दलील दे रहे हैं। अपना गढ़ा इतिहास सबको बता रहे हैं। अमेरिका के साथ परमाणु करार पर वह सरकार को गिराने का असफल प्रयास कर चुकी है। अब बीजिंग में अभिनव बिंद्रा द्वारा व्यि तगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतना कामरेडों को हजम नहीं हो रहा। अभिनव के पदक जीतने के बाद पूरे देश में जश्न मनाया। पटाखे छाे़डे गए। मिठाइयां बांटी गइंर्। राष्ट ्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर सभी बड़े नेताआें और बड़े खिलाड़ियों ने अभिनव और उसके मां-बाप को बधाइयां दी। लेकिन कामरेड मायूसी में डूब गए। उन्हें इस बात का दुख हुआ कि अभिनव ने चीनी खिलाड़ी को हराकर गोल्ड पर कब्जा जमाया। चीन के खिलाड़ी को हारता देख वह शोक में डूब गए। एक राज्य के मंत्री और वो भी खेली मंत्री के मुंह से ऐसी भाषा शोभा नहीं देती। उनके इस बयान से देश के कराे़डों खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों को आघात लगा। अभिनव कोई नया-नवेला खिलाड़ी है। ओलंपिक के अलावा कई अन्य अंतरराष्ट ्रीय प्रतिस्पर्धाआें में वह अपने प्रदर्शन का लोहा मनवा चुका है। वर्ष २००० के सिडनी ओलंपिक में उसने भारत के सबसे युवा प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। २००१ में कई अंतरराष्ट ्रीय स्पर्धाआें में ६ स्वर्ण पदक जीते। २००२ के कामनवेल्थ गेम्स में दस मीटर एअर राइफल सिंगल का रजत पदक जीता। २००६ के कामनवेल्थ गेम्स में ५० मीटर राइफल थ्री व्यि तगत स्पर्धा में रजत पदक जीता। इसके अलावा भी कई अन्य उपलब्धियां उसके खाते में हैं। भारत सरकार उन्हें २००१ में अर्जुन अवार्ड और २००१-०२ में राजीव गांधी खेल रत्न अवार्ड से सम्मानित कर चुकी है। इतने होनहार खिलाड़ी की जीत को कामरेड चक्रवर्ती तु का बता रहे हैं। उन्हें शर्म आनी चाहिए। यह बयान देकर जो कृत्य उन्होंने किया है, ऐसा कोई देशद्रोही ही कर सकता है। ऐसा बयान देने से पहले दस बार सोचना चाहिए था। लगता है पदक वितरण के समय जब देश की राष्ट ्र धुन बजी और भारत का तिरंगा झंडा चीन के झंडे से ऊपर उठा, इसे वह देख नहीं सके।

श्रम संस्कृति का अपमान है बिहारी को भिखारी कहना

भारतीय अस्मिता को खंडित करते हैं ऐसा कहने वाले

गोवा के गृहमंत्री रवि नायक का कहना है कि वह पटना से पणजी सीधी रेल सेवा शुरू करने के खिलाफ हैं। इससे गोवा में भिखारियों की संख्या बढ़ जाएगी, योंकि यहां बिहार से भिखारी आने लगेंगे।
गोवा के गृहमंत्री रवि नायक के बयान पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि बिहार के लोगों की भावना आहत करने वाले नायक बिना शर्त माफी मांगे। नीतीश ने कहा कि एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यि त द्वारा इस तरह का बयान दिया जाना उचित नहीं है। इस तरह की बातों की सभी को निंदा करनी चाहिए और मंत्री को अपना बयान वापस लेते हुए इसके लिए माफी मांगनी चाहिए। नीतीश ने कहा कि बिहारी भिखारी नहीं होते, हमने मेहनत और मेधा के बल पर हर जगह अपना झंडा गाड़ा है।
नीतीश का कहना सौ फीसदी सही है कि बिहारी भिखारी नहीं होते। लेकिन जिसने इस आशय का बयान दिया है उसका तत्काल मानसिक चेकअप कराया जाना चाहिए। आश्चर्य होता है कि इतनी गंदी सोच लेकर लोग जिम्मेदार पदों पर कैसे बने रह जाते हैं? रवि नायक को यह इल्म होना चाहिए कि भारतीय अस्मिता रूपी हार क्षेत्रीय अस्मीताआें रूपी बहुरंगीय फूलों से बना है। जो क्षेत्रीय अस्मिताआें का सम्मान नहीं करता उससे राष्ट ्रीय अस्मिता के सम्मान की उम्मीद नहीं की जा सकती।
दरअसल, देश में आज बिहारियों ही नहीं समूचे हिंदी भाषी राज्यों के लोगों को गाली देने का प्रचलन सा हो गया है। चंूकि बिहार से अधिक लोग रोजी-रोटी की तलाश में देश के विभिन्न शहरों में जाते हैं तो सबसे अधिक निशाना इन्हें ही बनाया जाता है। आज बिहरी शब्द का मतलब बिहार के निवासी से नहीं रह गया है। बिहारी शब्द मजदूर, मेहनतकश, श्रमजीवी का प्रतीक बन गया है। मुंबई हो या दिल्ली या फिर पंजाब यहां पर मेहनत का काम बिहार, यूपी, एमपी और राजस्थान के लोग करते हैं। यही कारण है कि इन्हें यहां पर भैया कहा जाता है, जोकि बिहारी शब्द का ही पर्याय है।
जब कोई व्यि त बिहारी या भैया कहता है तो श्रम के प्रति उसकी घृणा ही व्य त होती है। श्रम करना या इतना घृणित है? श्रमिक गंदे होते हैं। पसीने से भीगे होते हैं लेकिन देश निर्माण में जितना योगदान किसी उद्योगपति का होता है उतना ही श्रमिक का भी होता है। जो लोग श्रमिकों से घृणा करते हैं उनसे संवेदनशील होने की आशा कैसे की जा सकती है।
पंजाब में इस साल बिहार से मजदूर नहीं आए तो यहां पर धान की रोपाई प्रभावित हो गई। यहां के किसान अपने नजदीकी रेलवे स्टेशनों पर जाकर मजदूर तलाशते देखे गए। यही नहीं अधिक मजदूरी देने के बावजूद उन्हें श्रमिक नहीं मिले। यूपी, बिहार के लोगों को भैया कहकर घृणा व्य त करने वाले पंजाबियों को पहली बार एहसास हुआ कि श्रम की या कीमत होती है। यही नहीं पंजाब में अब यूपी-बिहार के लोग बहुत कम आ रहे हैं। इस कारण यहां के कारखानों को भी सस्ते मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं। खासकरके लुधियाना का होजरी उद्योग प्रभावित हो रहा है।
पूछा जा सकता है कि यहां अब दूसरे राज्यों से श्रमिक यों नहीं आ रहे हैं? कारण साफ है कि मेहनत करके जीवनऱ्यापन करने वालों से यदि किसी शहर या प्रांत में घृणा की जाएगी तो वहां पर मेहनतकश लोग यों जाएंगे? वैसे भी अन्य राज्यों की अपेक्षा पंजाब में मजदूरी बहुत कम मिलती है। यहां पर सरकार ने भी न्यूनतम मजदूरी में वढ़ोत्तरी नहीं की है। फै टरी मालिक तो वैसे भी निर्धारित मजदूरी नहीं देते। इस राज्य में गुजरात की तरह मजदूरों का जबरजस्त शोषण किया जाता है। अधिकतर कारखानों में बारह घंटे काम लिया जाता है, जिसके एवज में मजदूरी बहुत कम दी जाती है। मजदूरों के लिए पीएफ और ईएसआई जैसी सुविधाएं तो दूर की काै़डी हैं। मजदूरों के हक में बोलने वाला भी कोई नहीं होता। यदि कोई बोलता भी है तो अपराध और पैसे के गठजाे़ड से बनाए गए तंत्र से उसकी बोलती बंद करा दी जाती है।
पंजाब में एक वा य अ सर सुना जा सकता है कि भैयों ने गंद पा दी है। इस एक वा य में श्रमिकों के प्रति सारी घृणा व्य त होती है। यहां पर मजदूरों को रहने के लिए किराये पर देने के वास्ते स्थानीय लोग भैया र्वाटर बनाते हैं। जहां पर ऐसे कमरे बनाए जाते हैं, वहां इनकी संख्या दस से कम नहीं होती। इन कमरों के लिए जरूरी सुविधाएं तक नहीं दी जातीं। फिर भी इसमें लोग रहते हैं। ऐसे कमरों में कोई भी आदमी नहीं रह सकता फिर भी यह लोग रहते हैं और कमरा मालिकों को किराया भी देते हैं। रहना इनकी मजबूरी है, योंकि इनकी आय इतनी नहीं होती कि यह इससे बेहतर कमरों में रह सकें। साफ-सुधरा रहने के लिए पैसे की जरूरत होती है। पसीने की बदबू को भगाने के लिए तेल-सबुन के साथ पानी की भी जरूरत होती है। जब मुश्किल से पानी ही नसीब हो रहा हो तो पसीने की बदबू कैसे भगाई जाए? ऐसे में आदमी गंद ही पाएगा। अब यदि गंद से बचना है तो मेहनतकश लोगों को जीवन जीने लायक मजदूरी तो देनी होगी। यह हाल केवल पंजाब का ही नहीं है। अधिकतर राज्यों और शहरों मेंं ऐसे ही हालात हैं। जाहिर है कि श्रम के बदले यदि उचित मजदूरी नहीं मिलेगी तो आदमी भिखारी ही नजर आएगा। क्षेत्रीय अस्मिता का सम्मान करने के साथ ही लोगों को श्रम संस्कृति का भी सम्मान करना होगा। श्रम करने वाले श्रमिक को हेय न समझें। उसका सम्मान करें, योंकि वह है तो आप हैं। आपके होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

Tuesday 19 August, 2008

जलस्तर, सेंसे स और बेपरवाह सरकारें


कृषि प्रधान देश भारत के कई प्रदेशों की जनता लंबे समय से इस बात को लेकर परेशान थी कि वहां धरती का जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। उन्हीं प्रदेशों की जनता के सामने इस समय नई परेशानी यह है कि नदियों का लगातार बढ़ता जलस्तर बाढ़ के रूप में कहर ढा रहा है। जलस्तर का यह दो रूप सेंसे स की तरह कभी ऊपर तो कभी नीचे जाकर परेशान कर रहा है। सेंसे स को केंद्र सरकार ने विदेश के बड़े निवेशकों के हाथों का खिलौना बना दिया है, जिसमें देश के मध्यमवर्गीय निवेशक की कमर टूट रही है। तो दूसरी ओर जलस्तर को पूरी तरह भगवान भरोसे छोड़ दिया है, जिसमें मध्यमवर्गीय किसानों और गरीबों का दम निकल रहा है। देश में सरकारी स्तर पर कहीं ऐसी कोशिश नहीं दिखती कि बरसात के बढ़े जलस्तर (बाढ़ के पानी) को संरक्षित कर गर्मी में नीचे जाते जलस्तर को रोका जा सके। निजी तौर पर कुछ संस्थाएं और संत जरूर कहीं-कहीं अलख जगाते दिखते हैं, लेकिन उनका यह प्रयास भी सरकारी मदद के बिना एक कोने तक सीमित रह जाता है।
देश का एक समृद्ध प्रदेश है पंजाब, लेकिन यहां की हालत भी चिंताजनक है। अधिक फसल के लिए यहां के किसान खेती के आधुनिक साधनों से भूजल का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश के घटते भूजलस्तर को लेकर कृषि वैज्ञानिक, समाजसेवी संस्थाएं ही नहीं सरकारी नुमाइंदे भी भाषणों में चिंतित दिखते हैं। दूसरी ओर सूबे में बिछा नहरों का जाल सालों से सफाई के लिए फंड आबंटित नहीं होने के कारण दम तोड़ रहा है, जिनमें बाढ़ के पानी को काफी हद तक संरक्षित कर भूजल के दोहन को कम किया जा सकता है। प्रदेश की जनता इस समय बाढ़ की आपदा से जूझ रही है। बारिश थमने के साथ नदियों का जलस्तर नीचे जाएगा, गांवों से पानी निकल जाएगा, लोग फिर खेती में जुट जाएंगे और घटते भूजलस्तर की चिंता फिर सताने लगेगी... आखिर कब तक?
पहले वह रंग थी
फ़िर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फ़िर ....
जिस्म से बिस्तर बनके
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको कमरे में घुटा सन्नाटा
वक्त बे -वक्त उठा लेता है
खोल लेता है, बिछा लेता है

निदा फाजली

Monday 18 August, 2008

आखिर जमीन का एक कतरा ही तो है

छोटी-छोटी बातों पर बयान जारी करने वाले हमारे नेता जम्मू-कश्मीर के हालात पर मौन हैं। जबकि, बात यहां तक आ पहुंची है कि श्रीनगर में हमारे राष्ट ्रीय ध्वज का अपमान किया जा रहा है। वहां की इमारतों पर पाकिस्तान का झंडा लहराया जा रहा है। तुष्टि करण की राजनीति का शिकार देश के नेता इस मसले पर कुछ भी बोलने से कतरा रहे हैं। उन्हें डर है उनके मुंह से निकले कुछ शब्द उनके वोट बैंक में सेंधमारी का कारण न बन जाएं। जबकि, जम्मू के हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे हैं। जमीन के एक टुकड़े के लिए दो संप्रदायों के लोग आमने-सामने हैं। मीडिया में आ रही खबरों में साफ दिखाई दे रहा है कि वहां का आम आदमी इस दिनों किन हालात में जी रहा होगा। भूमि हस्तांतरण मुद् दे की आड़ में राजनीतिक रोटियां सेेंकी जा रही हैं। आम आदमी को हथियार बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है। इस मुद् दे की आड़ में उन तमाम बातों को अंतरराष्ट ्रीय मंच पर लाने का प्रयास किया जा रहा है, जिनकी कोशिश पहले भी कई बार होती रही हैं। बात साफ है अलगावादी लोग इस बात को उछालना चाहते हैं कि कश्मीर में मुसलमान खुश नहीं हैं, उन पर अत्याचार हो रहे हैं। दूसरा, वे कश्मीर के सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक ताने-बाने को एक पंथीय रूप देना चाहते हैं। कश्मीर के लोगों को भी इस देश केप्रत्येक नागरिक की तरह वे सभी अधिकार प्राप्त हैं, जो भारतीय संविधान में दर्ज हैं। लेकिन, कुछ अलगाववादी लोग धर्म की आड़ लेकर वहां की जनता को बहका रहे हैं। उनका एक ही मकसद है, भारत की अंखडता को छिन्न-भिन्न करना। वे नहीं चाहते की इस देश में एकता कायम रहे।
मेरा मानना है कि इस मुद् दे पर देश के बौद्धिक वर्ग को आगे आकर पहल करनी चाहिए। हिंदू-मुसलमान भाईचारे को कायम रखते हुए दोनों सुमदाय केलोगों को मिलजुलकर विवाद को सुलझाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर आज नहीं, आजादी केबाद से ही जल रहा है। इसका स्थायी समाधान है, लेकिन राजनैतिक लोगों से इसकी अपेक्षा करनी बेमानी है। योंकि अगर जम्मू-कश्मीर और वर्तमान भूमि हस्तांतरण जैसे मुद् दे समय पर सुलझा लिए गए, तो कई राजनेताआें की दुकाने बंद हो जाएंगी।
दूसरा राष्ट ्रीय स्वाभिमान के प्रतीक तिरंगे का अपमान करने वाले को कतई बख्शा नहीं जाना चाहिए। फिर चाहे वह किसी समुदाया का यों न हो। इसी तिरंगे की आन बचाने को हमारे फौजी आए दिन सीने पर गोलियां खाते हैं। लेकिन, तिरंगे को जमीन पर तक नहीं गिरने देते। फिर यह बात कैसे बर्दाश्त किया जा सकत है कि कोई इसी देश में रहते हुए देश के झंडे को जलाए। मुजफ्फराबाद रैली के दौरान और आगे-पीछे भी जम्मू-कश्मीर पर देश की जनता ने टीवी और समाचारों पत्रों में तिरंगे को जलाने की तस्वीरें साफ देखीं। उनकी मुठि् ठयां भिंच गइंर्। लेकिन, वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। योंकि यह खेल आम आदमी की पहुंच से बाहर है। देश का आम आदमी खिन्न है, वह धरना-प्रदर्शन तो कर सकता है, चिल्ला सकता है, लेकिन उसके हाथ में वह ताकत नहीं है, जो सीधे तौर पर ऐसे लोगों को मुंहताे़ड जवाब दे।

Sunday 17 August, 2008

आदमखोर

आदम खोर उठा लेता है
छ साल की बच्ची
लहूलुहान कर देता है उसे
अपना लिंग पोंछता है
और घर पहुँच जाता है
मुह हाथ धोता है और खाना खता है
रहता है बिल्कुल शरीफ आदमी की तरह
शरीफ आदमियों को भी लगता है
बिल्कुल शरीफ आदमिओं की तरह
शुभा

बदला बदला है सब नजारा

हमारे नेता जो कल तक खादी में नजर आते थे, आज स्टाइलिस सूट उनकी शान बन चुकी है। लग्जरी गाड़ी में शान की सवारी का अंदाज ही कुछ अलग हो चला है। हमारे देश के ज्यादातर नेता राजनीति की जानकारी रखे न रखे बस बैकराउंड सोलड होनी चाहिए। बरसों तरफ जुर्म की दुनिया रहने के बाद नेता की कुर्सी बहुत जल्दी हासिल हो जाती है। चाहे जीवन में कुछ अच्छा न किया हो लेकिन वोट के लिए अच्छाई का चोला पहन कर खुद को अच्छा साबित करने में जरा भी गुरेज नहीं होता। इन की पब्लिसटी देख कर हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी कुर्सी का चस्का लगने लगा है। गोबिंदा, स्मिति इरानी, हेमा मालिनी, धर्मेद्र सहित कितने अभिनेता राजनीतिक में कदम रख चुके है। अगर खुद को टिकट नहीं मिलता को पार्टी की चुनावी रैलियों का हिस्सा बन कर जनता के बीच आना उनको भा रहा है। भोली-भाली जनता भी उनकी एक्टिंग पर इतनी फिदा होती है, कि वह अपना नेता चुन कर इन को सत्ता में ले आती है। अभिनेता तो आखिर अभिनेता है रहते है, चुनावी मौसम में मंच पर चंद भावुक डायलाग सुना कर जनता के वोट पर अपना नाम दर्ज करवा लेते है। जीतने के बाद वापिस कभी अपने क्षेत्र की सुध लेना उनको भूल जाता है। जनता पूरे पांच वर्ष तक अपने चहेते नेता का इंतजार करती है, लेकिन मानसून के मैढक की तरह वह बिना चुनावी बारिश के कभी दिखाई नहीं देते। दूसरी तरफ अच्छा खासा क्रीमिनल रिकार्ड लेकर जुर्म की दुनिया में नाम कमाने वाले लोगों को भी चुनाव के दौरान टिकट आसानी से मिल रहे है। हमारी बड़े-बड़े दावे करनी वाली पार्टियां भी उनको टिकट देकर अपना सीट को कायम करना चाहती है। सत्ता में आने के बाद फिर वहीं मार-दाड़ शुरू होती है। कभी बहुमत बचाने के लिए जोड़-तोड़ तो कभी सत्ता में बैठे अनबन होने पर बहुमत वापिसी का दावा। फिर शुरू होता है कुर्सी बचाए रखने के लिए नोटतंत्र का दौर शुरू। ऐसे में कैसे कह सकते है कि हम जिन को चुन कर सत्ता में भेजते है उनके हाथों में हमारा वह देश सुरक्षित है, जिनके लिए भगतसिंह जैसे भारत मां के सपुतों ने जानें कुर्बान कर दी। चंद नोटों के अपना ईमान तक गिरवी रखने वाले हमारे नेता क्या हमारे देश को बचा पा रहे है। कभी देश में जात-पात के नाम पर मार-काट तो कभी धर्म के नाम पर प्रदर्शन। हमारे देश में सबकुछ इतना बदल गया है कि नेताओं के स्वार्थ में आम आदमी खुद ही दुश्मन बन बैठा है। चुनावी मौसम में तो जनता नेताओं के लिए भगवान बन जाती है, जो उनकी डुबती नैया को पार लगाएगी। नेता भी उन लोगों के बीच जाकर खुद को कभी बेटा तो कभी भाई के रूप में साबित करने में लग जाते है, तांकि उनकी भावनाओं को जगा कर खुद के लिए वोट पक्की कर ली जाए। लेकिन उन नेताओं के जीत के बाद उन लोगो के बीच आने के लिए दस बार सोचना पड़ता है।

सरकार चेते तो और जल्दी छंट जाएगा अंधेरा

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो देश में परिवार नियोजन अपनाने वाले लोगों की संख्या में ९.४ फीसदी की वृद्धि हुई है। बढ़ती आबादी वाले इस देश के लिए इससे अच्छी खबर और या हो सकती है? बढ़ती महंगाई और घटती आय के कारण लोगों को छोटे परिवार के लिए सोचने को मजबूर किया होगा। लोगों में चेतना का एक बड़ा कारण शिक्षा के प्रसार का भी हो सकता है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि शिक्षित और संपन्न राज्यों में परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रति लोगों के रुझान में कमी आई है। इसके विपरीत गरीबी और अधिक आबादी के भार तले दबे राज्यों में लोगों का रुझान परिवार नियोजन के प्रति अधिक है।
स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००३-०४ में देश भर में कुल ४९२४८२४ लोगों ने नसबंदी या नलबंदी कराई। लेकिन वर्ष २००४-०५ में इसमें एक फीसदी की गिरावट आ आई और ये आंकड़े ४८९५१०३ पर आ गए। वर्ष २००५ में तो नसबंदी और नलबंदी अपनाने वालों में भारी कमी दर्ज की गई। ४.१ फीसदी की गिरावट के साथ ये आंकड़े ४६९२०३२ पर पहुंच गए। लेकिन वर्ष २००७ में नसबंदी और नलबंदी कराने वालों के आंकड़े में फिर वृद्धि दर्ज की गई। करीब ५० लाख लोगों ने इसे अपनाया।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि परिवार नियोजन कार्यक्रम को अपनाने वाले राज्यों में बिहार, यूपी जैसे राज्य आगे रहे, जबकि दिल्ली जैसे राज्य पीछे चले गए।
वर्ष २००६ में उत्तर प्रदेश में ४,२९,४४१ और वर्ष २००७ में ४,७१,८९१ लोगों परिवार नियोजन कार्यक्रम का लाभ उठाया। यानी लाभ उठाने वालों की संख्या में ९.९ फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई। उत्तराखंड में वर्ष २००६ में ३२७६७ जबकि, वर्ष २००७ में ३४७९९ लोगों ने इसका लाभ उठाया। यहां ६.२ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। बिहार में तो वर्ष २००६ में मात्र १,९,९७७ लोगों ने परिवार नियोजन अपनाया। लेकिन वर्ष २००७ में २७५ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज कर यह आंकड़ा ३,००,९१८ तक पहुंच गया। पश्चिम बंगाल में वर्ष २००६ की तुलना में वर्ष २००७ में ९४.६ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। उड़ीसा में २९.१ फीसदी की बढ़ोतरी हुई। हिमाचल में वर्ष २००६ में २६४४५ लोगों ने परिवार नियोजन को अपनाया। जबकि, वर्ष २००७ में ३०४८८ लोगों ने इसे अपनाया। जम्मू-कश्मीर में इन आंकड़ों में १४.७ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। दूसरी ओर दिल्ली समेत शिक्षित राज्यों में वर्षों से समान रूप सफलता दर्ज की जा रही है। जिसके कारण परिवार कल्याण कार्यक्रम अपनाने वालों की संख्या में कमी दर्ज की गई है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००७ में वर्ष २००६ की तुलना में ९.६ फीसदी की कमी दर्ज की गई है।
ऐसा माना जा रहा है कि बीच सालों में लोगों ने परिवार नियोजन से इसलिए मुंह माे़ड लिया था योंकि सरकार ने इससे संबंधित सहायता राशि को लगभग बंद कर दिया था, लेकिन केंद्र सरकार ने २००७ में सहायता राशि में बढ़ोतरी की तो लोगों का रुझान इस तरफ फिर बढ़ा। खास करके गरीब तबके की दंपतियों ने भी परिवार नियोजन को अपनाने में रुचि ली।
दरअसल, देश में इस कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने के लिए जितने धन की जरूरत है उतना इसे मिल ही नहीं रहा है। यही नहीं यह परिवार नियोजन कार्यक्रम सरकारी अस्पतालों में नारों तक ही सीमित रहा गया है। इसे और आकर्षक बनाने की जरूरत है। यदि ऐसा किया जाए तो देश जिस जनसंख्या के बारूद पर बैठा है उससे जल्द मुि त मिल जाए। लेकिन अफसोसजनक बात तो यह है कि सरकार लोगों की सेहत के प्रति ध्यान ही नहीं दे रही है। इस मद में बजट बढ़ाने के अलावा कटौती ही करती जा रही है। जो कुछ सुविधाएं मिलती भी हैं वह भ्रष्ट ाचार की भेंट चढ़ जाती हैं।
पिछले ही दिनों संयु त राष्ट ्र ने भारत-चीन सहित दूसरे एशियाई देशों को बाल मृत्यु दर पर नियंत्रण पाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर खर्च बढ़ाने की हिदायत दी। संयु त राष्ट्र का कहना है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर घटाने के लिए इस मद में खर्च कम से कम दो फीसदी बढ़ाया जाना चाहिए।
यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि २००६ में भारत में पांच साल से कम के २१ लाख बच्चों की मौत हुई जो दुनिया में इस उम्र में कुल बच्चों की मौत का पांच फीसदी है। चीन में इस दरम्यान पांच साल से कम के ४ लाख १५ बच्चों की मौत हुई। बच्चों की इस अकाल मौत की वजह बच्चों की देखभाल में लापरवाही, निमोनिया, डायरिया और कुपोषण प्रमुख है।

रिपोर्ट के मुताबिक एशिया प्रशांत क्षेत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का औसतन १.९ फीसदी ही खर्च किया जाता है, जबकि दुनिया के दूसरे देश इस मद में तकरीबन ५.१ फीसदी खर्च करते हैं। सर्वाधिक आबादी वाले दो देशों में चीन विश्व की सबसे तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। यह सालाना १०.१ फीसदी की दर से विकास कर रही है, जबकि भारत ने भी ३१ मार्च को समाप्त तिमाही में ८.८ फीसदी की विकास दर को बनाए रखा, लेकिन इन दोनों ही देशों में बच्चों की मृत्युदर चिंताजनक स्तर पर है। चीन १९७० से २००६ के दरम्यान प्रति १००० पर ११८ बच्चों की मृत्युदर को घटाकर २४ तक यानी ८० फीसदी कम करने में कामयाब रहा है, जबकि भारत इस दौरान इसे २३६ से मात्र ७६ तक यानी ६० फीसदी घटाने करने में सफल हुआ।
यूनिसेफ का मानना है कि ये देश आर्थिक विकास के साथ इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन दुख की बात है कि यहां आर्थिक विकास के साथ अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ती गई है। नतीजतन लाखों बच्चों और महिलाआें को उपयु त स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हासिल हो पा रही हैं।
यूनिसेफ ने कहा है कि भारत में कुल आबादी के २० फीसदी अमीर तबके के पांच साल से कम उम्र के बच्चों को गरीबों की तुलना में सभी मूल टीके और स्वास्थ्य सेवाआें का तीन गुना ज्यादा लाभ मिलता है। दक्षिण एशिया ही दुनिया का ऐसा हिस्सा है जहां महिलाआें की जीवन प्रत्याशा आज भी पुरुषों से कम है। यहां २००५-०६ के दौरान हासिल रिकार्ड के मुताबिक लड़कियां लड़कों की तुलना में कम वजन की ही होती हैं। भारत में पांच साल से कम की लड़कियों की मृत्युदर प्रति हजार ७९ है, जबकि लड़कों की ७० है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यदि विकास के साथ ही हमारी सरकार इस तरफ ध्यान दे तो बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। इस काम में यदि राज्य सरकारें भी दिलचस्पी लें और प्राथमिकता के आधार पर इस संदर्भ में कार्य करें तो और भी बेहतर नतीजें सामने आ सकते हैं।

Thursday 14 August, 2008

शाहरुख से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं?


वेद विलास उनियाल -----------
एक बेहूदा सा दृश्य , मनोज कुमार के रूप में एक पात्र को दिखाकर न जाने फिल्म निर्माता और उसके बड़े कलाकार अपनी कौन सी कुंठा पूरी कर रहे हंै। एक और दृश्य, एक कलाकार गर्व में हाथ लहराकर अपने को किंग ( बादशाह खान) कह रहा है उसके चेहरे में कलाकार के भाव नहीं, बल्कि दुनिया को रौंदने वाले सिकंदर के किसी सेनापति जैसा गरूर झलकता है। यही व्यक्ति फिल्म के पर्दे पर हाकी का कोच बनता है, उसे मालूम है कि हाकी की दुर्दशा और पिछली एक घटना को आधार बनाकर बनी फिल्म से पैसा आएगा। अच्छा ब्लैकमेल है। लेकिन असल जिंदगी में वह क्रिकेट को मदद (जिस खेल को मदद की जरूरत ही नहींं है) करता नजर आता है। । उसे आप अपनी टीम को डांटते डपटते देख सकते हैं। खेल भावना में हार जीत की कोई बात नहीं कीजिए। वह विशुद्ध दूसरे कारणों से टीम चला रहे हैं। आयोवा, जीतोवा का नारा मस्ती के लिए नहीं, इस नारे से शाहरुख को किसी भी तरह बस जीतना था। जीतना उनके लिए मुनाफा है। हारना सदमा। नहींं जीते तो डांट खाओगे।
शाहरुख इतने भर से भी समझ मेंं नहीं आते। उन्हें पता है कि अपनी क्षमताआें में अमिताभ बच्चन के बराबर दिखना है तो उनके बारे मेंं जो मन आए बोले। यही नहींं गिन गिन कर अजीबो गरीब काम किए। डान बने, खाइके पान बनारसी वाला की भ ी रिमेक की। देवदास बनकर फिल्म प्रेमियों को बताना चाहा कि सहगल और दिलीप कुमार को भूल जाओ केवल शाहरुख की है देवदास। देखने वालों ने देखा दिलीप कुमार के पासंग भर भी नहींं थे वह। शाहरुख हर चीज का रिमेक कर सकते हैं नकल कर सकते हैं पर कहींं चुप होना पड़ेगा तो यहीं कि अमिताभ तो मधुशाला केरचियता डा. हरिवंश राय बच्चन के बेटे हैं। शाहरुख होशियार हैं इस संदर्भ को नहींं उठाते हैं। यह अलग बात है कि अमिताभ की तरह वह भी कविता बांचते नजर आ जाएं। अपने पिता की कविता न सही किसी और की। हो सकता है कि रोबर्ट बडेरा की लिखी कोई पोएम ही सुना दे।
मगर हम यहां किसी ओर संदर्भ में शाहरुख खान की चर्चा कर रहे हैं। वह अपने को फिल्म जगत के आधुनिक किंग कह सकते हैं। पर वह अपने भारत मनोज कुमार कभी नहीं हो सकते। बहुत संवेदनशील इंसान हो तब शहीद और उपकार जैसी फिल्म बनती हैं। मनोज कुमार को लाल बहादुर शास्त्री समझ सकते थे। शाहरुख खानों की समझ में वह नहींं आएंगे। जितना शाहरुख का दायरा है उसमें वह उन्हीं बेजा हरकतों को कर सकते हैं जिसके लिए वह जाने जाते हैं। बात उनके किसी स्क्रिप्ट को चुरा कर फिल्म बनाने की नहीं। यह तो फिल्म दुनिया मेंं अब आम बात है। पश्चिमी संगीत को चुरा -चुरा कर बड़े संगीतकार बने हुए हैं। नए लिखाड़ों को अपने यहां दो तीन हजार की नौकरी देकर उनकी िस् ्रप्ट को अपनी बताकर लेखक बने हैं। गीत दूसरों के नाम अपना यह काम शैलेंद्र के जमाने से ही कई लोग करने लगे थे। शाहरुख यह सब करते तो चलता पर मनोज कुमार पर भ ा फिल्मांकन कर एक तरह से वे मनोज का नहीं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भी अपमान कर रहे हैं। पूरा भारत जानता है कि शास्त्रीजी मनोजकुमार को कितना प्यार देते थे। पर शाहरुख खान इसे नहीं समझ सकते। फिल्म कला उनके लिए नौटंकी से ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए वह खुद में भी जगह जगह नौटंकी ही करते आते हैं। शाहरुख को बड़बोला होने से पहले शहीद फिल्म को दस बार देखना चाहिए। उनकी मति ठीक हो जाएगी। बरना यही बंदरों की तरह हरकत करते रहेंगे।
इसी तरह की कुंठा पाले एक और प्रोफेसर हैं जो हर वर्ष शैले्ंद्र की स्मृति मेंं होने वाले कार्यक्रम मेंं पहुंच जाते ह,ैं माफ कीजिए बुलाए जाते हैं। आयोजकों से उनके ठीक ठाक संबंध है। कुछ चटपटा भी बोलते हैं। इसलिए उनसे ड़ेढ घंटा बुलवाया जाता है। शैलेंद्र पर कम मनोज कुमार पर ज्यादा बोलते हैं। लगभग अपमानित करते हुए। ऐसे ही लोग आज के समय पनप रहे हैं। कहींं शाहरुख तो कहींं ये माननीय प्रोफेसर। चलिए इन दोनों की छोड़िए। आप और हम एक ऐसा यादगार गीत गुनगुनाए। ये मेरे प्यारे वतन तुझपे दिल कुरबान। कुछ मन को और अच्छा कर लें -- मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती।

बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा

बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा



कहावत है कि बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। जम्मू-कश्मीर में कुछ सियासी लोगों की हरकतों की वजह से पाकिस्तान की बन आई है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने पर पहले कश्मीर फिर जमीन वापस लेने के बाद जम्मू संभाग में हुए हिंसक आंदोलन। उसके बाद कश्मीर की आर्थिक नाकेबंदी के विरोध में कश्मीर के फल उत्पादकों का मुजफ्फराबाद मार्च और उस दौरान व उसके बाद हुई हिंसा को मु ा बनाकर पाकिस्तान इस मामले का अंतरराष्ट ्रीयकरण करने की फिराक में है। पहले पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों की कार्रवाई को अनुचित बताया और कहा कि वहां हिंसा तुरंत बंद होनी चाहिए। कुरैशी के इस बयान पर भारत ने चेताया भी, लेकिन बुधवार को पाकिस्तान के विदेश विभाग के प्रव ता मोहम्मद सादिक ने मामले को अंतरराष्ट ्रीय समुदाय, खासकर संयु त राष्ट ्र, आर्गेनाइजेशन ऑफ इसलामिक कांफ्रेंस और मानवाधिकार संगठनों के पास ले जाने की धमकी दे दी। इस पर भारत के विदेश मंत्रालय के प्रव ता नवतेज सरना ने कहा कि पाकिस्तान की तरफ से लगाए जा रहे आरोप निराधार हैं। सरना ने कहा कि पिछले कुछ दिनों से जारी पाकिस्तानी बयानबाजी पर भारत को कड़ी आपत्ति है। अभी समय है कि पाकिस्तान बयानबाजी से बाज आए। दूसरी ओर संयु त राष्ट ्र के प्रव ता फरहान हक का कहना है कि संगठन अभी कश्मीर के ताजा हालात पर नजर रखे है। इस समय संयु त राष्ट ्र इस मु े पर कोई बयान जारी नहीं करेगा। संयु त राष्ट ्र के मानवाधिकार अधिकारी ताजा हालात से वाकिफ हैं और वे बयान जारी करने या नहीं करने पर विचार कर रहे हैं।
इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मामला कितना गंभीर होता जा रहा है। पाकिस्तान के बयान पर भारत को सख्त ऐतराज है। भारत ने चेतावनी भी दी है कि पाक जम्मू-कश्मीर मामले में दखलांदाजी न करे। यह भारत का आतंरिक मामला है। बेशक भारत कश्मीर को आतंरिक मामला मानता है, लेकिन यह तो समूची दुनिया को पता है कि पाकिस्तान और भारत के बीच कश्मीर को लेकर विवाद है। कश्मीर में फैले आतंकवाद और अलगाववाद से पूरा विश्व वाकिफ है। इस मसले पर जहां कुछ देश भारत का समर्थन करते हैं वहीं कुछ देश पाकिस्तान का। सभी देशों की अपनी-अपनी राजनयिक कूटनीति है।
अब अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने और लेने को लेकर जो सियासत देश में की जा रही है उससे पाकिस्तान को मौका मिल गया है। वह इस मामले को अंतरराष्ट ्रीयकरण करके इसे हरा करना चाहता है। घाटी के अलगाववादी यही चाहते थे, जिसे हमारे कुछ सियासी नेता पूरा कर रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसमें जमीन कोई मसला नहीं है। सूबे की सरकार ने जब वन विभाग की जमीन को श्राइन बोर्ड को दिया और उस पर जिस तरह से अलगाववादियों ने प्रतिक्रिया जाहिर की, उसी से जाहिर हो गया था कि यह गुट शांत हो रहे कश्मीर में कोई मु ा तलाश रहा है। जमीन देने से उसे एक मु ा मिल गया था, लेकिन गुलाम नबी आजाद सरकार ने जमीन वापस लेकर मामले को बढ़ने से बचा लिया। जाहिर सी बात थी कि यदि सरकार जमीन वापस न लेती तो अलगावादी इसे मु ा बनाकर अपनी रोटियां सेंकते। इस आशंका के तहत आजाद सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड से जमीन वापस ले ली। इसके बाद अमरनाथ को जमीन दिलाने के नाम पर कुछ लोग मैदान में आ गए। समूचा जम्मू संभाग आंदोलन की आग में झुलसने लगा। यही नहीं कुछ सियासी दल इसे पूरे देश में फैलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। जम्मू संभाग के लोगांे का दर्द और था। वह अपनी उपेक्षा से आहत थे और इसे आवाज देना चाहते थे, लेकिन मामला ऐसे नाजुक माे़ड पर आ गया कि जहां से एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाईं नजर आने लगी। जम्मू वालों की असली पीड़ा तो दब गई और दूसरा मामला हावी हो गया। कुछ लोगों ने मामले को ऐसा रंग दिया जिससे यह मसला भारत की अंखड़ता के लिए संवेदनशील हो गया।
दरअसल, आज जम्मू-कश्मीर में जो हालात हो गए हैं अलगाववादी और उनका आका पाकिस्तान ऐसे ही हालात की प्रतीक्षा में थे। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के नाम पर उन्होंने बवाल ही इसी लिया किया था। जब जमीन श्राइन बोर्ड से वापस ले ली गई तो उनके हाथ से मु ा निकल गया। लेकिन जब इस मसले पर सियासी दल मैदान में आ गए तो अलगावादियों को फिर बहाना मिल गया। अलगावादी विश्व समुदाय में यह संदेश देना चाहते थे कि हमारे प्रति भारत के लोग सही नहीं सोचते। हिंदुस्तानी यह तो चाहते हैं कि कश्मीर भारत में रहे, लेकिन कश्मीरी वहां न रहें। अपने इस सोच को वह अभिव्यि त देने में कामयाब रहे। लेकिन अपसोस कि इसमें उनका साथ दिया हमारे सियासी दलों ने। अब अलगावादियों केइसी नजरिये को पाकिस्तान अंतराष्ट ्रीय मंच पर उठाना चाहता है।
सवाल उठता है कि जिस जमीन को लेकर आज जम्मू-कश्मीर जल रहा है वह इतनी अहम थी? जमीन दी गई थी फिर वापस ले ली गई इसलिए कि हालात न बिगड़ंे और किसी तीसरे को हाथ सेंकने का मौका न मिले। बाबा अमरनाथ की यात्रा पर तो रोक लगाई नहीं गई थी। अमरनाथ की यात्रा कराना केंद्र और राज्य सरकार का फर्ज है। और वह कराती भी है। यह यात्रा साल में दो माह के लिए होती है। इससे कश्मीरियों को भी आमदनी होती है। वह भी इसमें बढ़चढ़कर भाग लेते हैं। यात्रियों को सुविधा मिले इससे कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कथित विवादित जमीन मिल जाने से ही यात्रियों को सुविधा मिल जाएगी, इसमें संदेह जरूर है। यात्रा का अलगववादियों ने भी विरोध नहीं किया है। लेकिन जमीन लेने के नाम पर जम्मू सहित पूरे देश में जिस तरह से हंगामा किया जा रहा है उससे यही लगता है कि जैसे अब अमरनाथ यात्रा हो ही नहीं पाएगी। कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए मामले का सियासीकरण कर दिया।
कुछ लोग भावनाआें के नाम पर ही सियासत करते हैं। उनका पूरा वजूद ही इसी पर टिका है। यह लोग किसी की भावनाएं आहत करते हैं तो किसी की आहत होने पर हंगामा करते हैं। इन लोगों ने जमीन पर विवाद खड़ा करने से पहले यह नहीं सोचा कि देश का यह भाग आतंकवाद की आग में पहले से ही जल रहा है। पाकिस्तान की इस पर गिद्ध निगाह है। उसके पिठ्ठ ू कंधे पर बंदूक रखकर घूम रहे हैं। यदि मामले को तूल दिया गया तो पाकिस्तान को हाथ सेंकने का मौका मिल जाएगा।
बाबरी मसजिद का मामला राष्ट ्रीय था। इसलिए उसे लेकर जो कुछ भी हुआ वह किसी हद तक देश तक सीमित रहा। हालांकि उसकी प्रतिक्रिया भी अंतरराष्ट ्रीय स्तर पर हुई और विश्व भर में फैले हिंदुआें को उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। फिर भी यह मामला ऐसा नहीं था कि कोई देश इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करता। लेकिन कश्मीर का मामला ऐसा नहीं है। इसलिए वहां पर ऐसी किसी भी हरकत पर विश्वभर के देशों की निगाह होती है। पाकिस्तान उसे भुनाने की पूरी कोशिश करता है। इस समय वह इसी मुहिम में लगा है। अमरनाथ जमीन विवाद पर हो रहे देशव्यापी आंदोलन ने उसे बोलने का मौका दिया है। इससे कश्मीर में बह रही अमन की हवा में भी आग लग गई है।
आंदोलनरत जम्मू के लोगों का दर्द समझा जा सकता है। आजादी के बाद से ही उनकी उपेक्षा की गई है। केंद्र और राज्य सरकारें हमेशा कश्मीर को ही तवज्जो देती रही हैं। यह उनकी मजबूरी भी रही है, योंकि पाकिस्तान की वजह से कश्मीर में अलगावादियों की एक जमात बन गई थी। वह और न फैले इसके लिए कुछ कदम ऐसे उठाने पड़ते थे जिससे तुष्टि करण की बू आती थी या आती है, लेकिन यह सरकार की मजबूरी है। मामले की संवेदनशीलता उसे विवश करती है। कम से कम मुझे ऐसा लगता है। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि जम्मू संभाग की उपेक्षा की जाए। यदि की गई है तो उसे दूर किया जाना ही चाहिए। अपनी उपेक्षा के कारण जम्मू के लोगों का आंदोलनरत होना स्वाभाविक है। उन्हें अपनी बात कहने का एक मौका मिला और उन्होंने अपनी भावनाआें को व्य त किया। उनकी मांगों और भावनाआें को समझा जा सकता है। लेकिन सियासी लोग उनकी भावनाआें का सत्ता के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। यह खतरनाक है। जाहिर है कि एक सही आंदोलन गलत दिशा में निकल गया है। जिसका लाभ सियासी दल उठा रहे हैं।
यदि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने पर उसका विरोध करने वाले गलत थे तो जमीन वापस लेने के बाद उसका विरोध करने वाले भी गलत ही हैं। जमीन वापस लेने का विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि घाटी के अलगावादी माहौल खराब करके धरती के इस स्वर्ग को बांटना चाहते हैं। हमें उनकी असली मंशा को समझना होगा। हम ऐसा मौका यों दी जिसका उन्हें लाभ हो?
शायद भगवान शंकर ने जब कैलाश पर्वत को अपना डेरा बनाया होगा तो यही सोचकर कि वहां तक कम लोग ही पहंुचे। यही कारण रहा होगा कि वह दुर्गम पहाड़ पर रहने लगे। उन्होंने यह नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन के लिए उनके भ त इतनी सुविधा चाहेंगे कि कुछ गज जमीन के लिए आंदोलन पर उतर आएंगे। सुविधाआें की कोई सीमा नहीं होती। आज बाबा अमरनाथ का दर्शन करने लोग हेलीकॉप्टर से जाते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ा कि अमरनाथ गुफा में बनने वाला हिमशिवलिंग समय से पहले ही पिघल जाता है। मानव जब सुविधाएं खोजता है तो प्रकृति से छे़डछाड़ करता है, जोकि प्रकृति प्रेमी भगवान शिव को पसंद नहीं है। यदि हेलीकॉप्टर सेवा को उन्होंने पसंद नहीं किया तो वन को काटकर बनाई जा रही सुविधाएं भी उन्हें पसंद नहीं आएंगी।

Monday 11 August, 2008

पर्यावरण की कीमत पर हेलीकाप्टर सेवा


-राजीव थपलियाल
पर्यावरण विध्वंस की कीमत पर विकास कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता है। जब ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण का लेकर संपूर्ण विश्व में चिंता व्याप्त हो, ऐसे समय में हमें भी अपनी वन-संपदा, धरती और नदियों को बचाने की आवश्यकता है। भारत में जो थाे़डे बहुत वन हैं, उस विरले भूभाग में उत्तराखंड के वन क्षेत्र भी हंै। उत्तराखंड ने उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद विकास केतमाम नए आयाम हासिल किए हैं, लेकिन कई उपलब्धियां पर्यावरण विनाश की कीमत पर हासिल हंै। भागीरथी नदी पर मनेरी भाली और टिहरी बांध बनने के बाद जोश में आई उत्तराखंड सरकार ने अब अलकनंदा को बांधने का काम शुरू कर दिया है। जहां भी बांध बन रहे हैं, वहां हजारों एकड़ वन संपदा उनमें डूबो दी गई है। अब ऊंचे स्थलों पर स्थित तीर्थ स्थानों के लिए बढ़ रही हेलीकाप्टर सेवाआें ने चिंता में डाला है।
पुराणों में के दारखंड के नाम से उल्लेखित उत्तराखंड की भूमि के लिए कहा गया है कि यहां कंकर-क ंकर में शंकर विराजते हैं। जाहिर सी बात है कि यह सूबा तीर्थस्थलों की पवित्र भूमि है। इन धर्मस्थलों में धार्मिक दृष्टि और पर्यटन की द्वयमंशा वाले लोग बड़ी तादाद में आते रहते हैं। इन यात्रियों को सुविधा देना पुण्य का कार्य है। लेकिन, इन सुविधाआें के नाम पर स्थानीय पर्यावरण से छे़डछाड़ कतई समझदारी नहीं कही जा सकती। इस छे़डछाड़ का दुष्परिणाम गंगोत्री में स्पष्ट देखा जा सकता है। गंगा अपने उद ् गम स्थल गोमुख से कहीं दूर पहुंच गई है। गंगोत्री ग्लेशियर पर दरारें पड़ चुकी हैं। हालात को देखते हुए विशेषज्ञों ने गंगा के लुप्त होने तक की आशंका जता दी है। कारण, पर्यटकों की बढ़ती संख्या और उनकी लापरवाही से ग्लेशियरों के अस्तित्व पर संकट छा गया है। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। जबकि बर्फ उस मात्रा में नहीं गिर रही है।
इसी प्रकार पचास-साठ वर्ष पहले नर-नारायण पर्वत पर बद्रीनाथ मंदिर केआसपास गर्मियों में भी बर्फबारी हुआ करती थी, पर यात्रियों की बढ़ती संख्या, वाहनों की लगातार बढ़ती आवाजाही और क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण कार्यों के कारण बर्फबारी तो दूर, आसपास के ग्लेशियर तक खत्म गए हैं।
अब उत्तराखंड स्थित सिखों के पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब की यात्रा के लिए हेलीकाप्टर सुविधा पर जोर शोर से काम हो रहा है। प्रस्ताव अच्छा है कुछ यात्रियों को इससे लाभ पहुंचेगा। पर सवाल यह है कि हेलीकाप्टर जिस मार्ग से गुजरेगा वहां का पारिस्थितिकीय संतुलन या अपने मूल स्वरूप में रह पाएगा। इसका ताजा उदाहरण श्री बाबा अमरनाथ हैं। अमरनाथ गुफा तक के लिए जब हेलीकाप्टर सेवा नहीं थी, तब गुफा में हिमलिंग लंबी अवधि तक विराजमान रहता था। कई सालों से प्रतिवर्ष यात्रा करने वाले बताते हैं कि आज से पांच-सात साल पूर्व तक भी हिमलिंग पंद्रह फीट ऊंचा और सात फीट चाै़डाई लिए होता था, जोकि यात्रा की समाप्ति रक्षाबंधन तक सुरक्षित रहता था। लेकिन, जबसे हेलीकाप्टर सेवा शुरू की गई है, हिमलिंग मात्र कुछ ही दिन में अंर्तध्यान होने लगा है। इसके पीछे विशेषज्ञों का कहना है कि हेलीकाप्टर के आने जाने से होने वाले कंपन से यह पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ा है। हेलीकाप्टर से निकलने वाली गर्मी, तेज हवा और धुआं गुफा के आसपास के वातावरण को खराब कर रहा है, जिस कारण गुफा के अंदर गर्मी का माहौल बनता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब श्री हेमकंुड साहिब के लिए हेलीकाप्टर चलेगा तो वहां अपने मार्ग में पड़ने वाले साढ़े छह किलोमीटर लंबे वन भूमि वाले क्षेत्र के साथ ही हिमालयी पर्यावरण पर उसका कितना बड़ा दुष्प्रभाव डालेगा।
एक बात और जिस इलाके से हेलीकाप्टर गुजरेगा, वह स्थानीय लोगों के लिए प्रतिबंधित है। स्थानीय भे़डपालक गर्मियों में फूलों की घाटी सहित पूरे इलाके में भे़ड-बकरियां को चराया करते थे। भे़डें घास को खाती थीं बदले में उसके गोबर पौधों के लिए खाद के रूप में उपयोगी होती थी। साथ ही उनके खुरों से मिट् टी की गु़डाई प्राकृतिक रूप से हुआ करती थी। परिणामत: दुनिया के श्रेष्ठ फूलोंं की प्रजाति इस इलाके में विद्यमान हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण के बहाने इलाके को नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व घोषित कर दिया गया। इसकेचलते क्षेत्र में स्थानीय भे़डपालकों के लिए प्रवेश निषेध कर दिया गया। यानी कि उन्हें उनके प्रकृति प्रदत्त हक हकूक से वंचित कर दिया गया। नतीजा सामने है कि फूलों की घाटी से फूलों की कई प्रजाजियां लुप्त हो चुकी हैं और कई लुप्त होने की कगार पर हैं। बिडंबना यह है कि सदियों से जिन लोगों की बदौलत पर्यावरण सुरक्षित रहा है आज उन्हीं को इसकी बर्बादी का आरोप मढ़ कर क्षेत्र से बेदखल कर दिया गया है। ऐसे में नीति निर्धारक यह कहने की स्थिति नहीं है कि गरीब जनता और धनीमानी लोगों के लिए दोहरा मापदंड यों।
कितनी मुश्किल से इलाके में वनभूमि विकसित हुई होगी। लेकिन श्रद्धालुआें के लिए बुनियादी ढांचा और सुविधाएं जुटाने के नाम पर जमीन को उजाड़ दिया जाएगा। यहां हेलीपैड, धर्मशालाएं ओर गेस्ट हाउस बनेंगे तो इस पूरी प्रक्रिया केदौरान पर्यावरण को कितनी क्षति पहुंचेगी। एक बात और हिमालय के इस भूभाग में दुर्लभ कस्तूरी मृग पाया जाता है। साथ ही हिमालयी दुर्लभ पशु-पक्षी यहां विराजते हैं। या हेलीकाप्टर के भयंकर शोर और कंपन से अपने मूल निवास में स्वच्छंदतापूर्वक रह सकेंगे, पहाड़ी चट्ट ानों की मजबूती बरकरार रह पाएगी। चापर केबार-बार च कर लगाने से पैदा गर्मी पहाड़ के शीतल वातावरण को डिस्टर्ब नहीं करेगी और इंर्धन जलने से निकलने वाला धुंआ आबोहवा को प्रदूषित नहीं करेगा।
इसका अंदाजा हम अभी नहीं लगा पा रहे लेेकिन आने वाले सालों में हमसे इसका हिसाब देते नहीं बन पड़ेगा। इससे पूर्व भगवान केदारनाथ के लिए हेलीकाप्टर सेवा शुरू की गई है, जिसे लेकर भी स्थानीय लोगों और पर्यावरणविदों में रोष है। वे इसे बंद करने की मांग लगातार करते आ रहे हैं। सरकार को आकलन करना चाहिए कि अब तक हेलीकाप्टर सेवा से जो राजस्व मिला है या वह इसके चलते बिगड़े पर्यावरण्की छति पूरी कर लेता है।
वैसे भी धार्मिक यात्राआें को पैदल पूरा करने की परंपरा रही है। धर्मस्थल तक यात्रा करने वालों का बमुश्किल एक प्रतिशत ही हेलीकाप्टर सेवा का लाभ लेगा, जिनमें उद्यमी वर्ग के अलावा काली कमाई करने वाले सरकारी अफसर और नेता ही शामिल होंगे। लाखों की संख्या में आम आदमी तो अपने सस्ते और परंपरागत साधनों का ही इस्तेमाल करेगा। ऐसे में सोचा जाना चाहिए कि महज हजार-ड़ेढ हजार यात्रियों की सुविधा के लिए बेशकीमती पर्यावरण से छे़डछाड़ की जानी चाहिए। इस संबंध में हेमवती नंदन गढ़वाल विश्वविद्यालय के वन विज्ञानी प्रो. डीएन टोडरिया सुझाव देते हैं कि हेलीकाप्टर के स्थान पर रोपवे बनाया जाना चाहिए। इससे पर्यावरण को हेलीकाप्टर की अपेक्षा कहीं कम नुकसान पहुंचेगा, जबकि अधिक से अधिक यात्री तीर्थाटन का लाभ उठा पाएंगे।

( अमर उजाला से साभार : सम्पादकीय पेज आठ अगस्त 2007 )

Sunday 10 August, 2008

कुछ अपने गिरेबां में भी झांको

ब्लाग का कितना गंदा इस्तेमाल हल्के स्तर पर किया जा सकता है यह मुझे आज पता लगा। कुछ दिन पहले एक बड़े प्रतिष्ठित विद्वान पत्रकार का फोन रात एक बजे आया था, -- किसी सिरफिरे ने मंगलेश डबरालजी के बारे में ऊ लजलूल टिप्पणी की थी। मुझे बुरा लगा था पर बहुत गौर नहींं कर पाया था। आज किसी मैंने ब्लागों को खंगालते हुए, एक ब्लाग को देखा, योंकि उस बलाग से मेरा भी नाता संबंधित व्यि त ने खुद ब खुद जाे़डा हुआ था।
मैने पढ़ा। कुछ हंसी आई । तुमने अ सर मेरी ही शराब पीकर मुझसे ऐसी बातें कही है। पर मै तुम्हारी समझ को देखते हुए उनको लाइट लेता रहा। पर जब तुम्हारे बलाग पर इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा तो मुझे लगा कि अब तुमसे तुम्हारी भाषा मेंं बात करनी चाहिए।
फिर सोचा कि या मुझे इतना नीचे गिरना चाहिए कि इसका जवाब दूं। दो रास्ते मेरे पास थे। एक तो यह कि इतने नीचे न जाऊं कि मैं भी इसी का हिस्सा हो जाऊं। दूसरा यह कि मेरी कुछ लिखे हुए से शायद इन्हें अहसास हो सके कि कुछ लिखने से पहले हजार बार सोचा जाना चाहिए। बहुत विचार किया। फिर एक पंि त कौंधी कि ----उनका भी होता है अपराध जो हर चीज में निरपेक्ष रहते हैं,खामोश रहते हैं। ------इसका जबाव देना ही पड़ेगा।
प्रस्तावना कुछ बड़ी हो गई। मुख्य बिंदु पर आता हूं।
तुमने लिखा है कि डबल जिंदगी जो लोग जीते हैं उनसे तुम घृणा करते हो। मुझे तो लगता है कि जितनी डबल जिंदगी तुम जीते आते हो वह बेमिसाल है। याद करो वह दिन जब एक व्यि त अपने इस स्वार्थ मेंं कि उसका ट्रांसफर नहीं हो पा रहा है, श्री संपादक जी भाई साहब, प्रिय मृत्यंुजय जी और राजीव को अपशब्द कह रहा था, तुम हंू-हां करते हुए उसकी शराब का आनंद लेते रहे, लेकिन जिन लोगोंं तुम्हें फर्श से अर्श पर पहुंचाया, उन्हीं की निंदा में तुम शामिल हो गए। चलो उस समय तुम्हारा उस समय उनके साथ भास्कर जाने का स्वार्थ छिपा था तो तुमने उस व्यि त का विरोध नहीं किया, लेकिन बाद में या तुमने इस बात को इन तीनों व्यि तयों मंे किसी को इस संबंध बताया? नहींं! योंकि तुम्हारी उठक बैठक उन दिनों उनके साथ थी, जो यहां से पूरे आफिसवालों को गालियां देते हुए भास्कर में चले गए। खूब घुलती मिलती थी उन दिनोंं तुम्हारी। तुम्हारा या फर्ज था। या तुम्हें बताना नहीं चाहिए था। चलो माना कि मैं नहीं तुम बहुत इनोसेंट हो, तुम भूल गए। पर.............
या तुम्हें याद है कि तुम एक दिन पैग की चुस्कियों के साथ कह रहे थे कि संजय शु ला को मैंं सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहा हूं। मैंं उससे नफरत करता हूं। पर कुछ ही दिन पहले तुमने ब़़डे जोश खरोश के साथ उसे अपने घर पर आमंत्रित किया था। या यह डबल गेम नहीं। दूसरो को जानने से पहले अपने को जानो। दूसरो की नहींं अपनी कमियां ढूूढो।
तुम्हीं हो जो शादी केबाद अपनी पत्नी के साथ एक वैज्ञानिक के घर पर जाते हो तो मिठाई का अच्छा खासा डिब्बा ले जाते हो, मेरे घर आए तो एक जंगल की लकड़ी लेकर। आखिर तुम्हीं हो जिसे यह ध्यान तो रहा कि मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण जी को अपने घर बुलाना है, पर कभी मुझे और मेरी पत्नी को कहा कि मेेरे घर आना। जालंघर में घर के बासमती चावल लाकर कुछ घरों में दिए पर कभी ध्यान आया कि जो व्यि त मुझे हर शाम इतना प्यार देता है उसे भी कभी एक आध किलो घर का बासमती चावल दे दूं। नहीं दे सकते योंकि असली आडंबर तुम्हारे अंदर हैँ। दोहरी जिंदगी में नहींं तुम जीते हो।
तुमने लांछन लगाया कि दूसरा इनोसेंट बनता है। इनोसेंट बनने की उसे जरूरत नहीं। उसकी आवाज पर तो उत्तराखंड आंदोलन के समय समाजवादी पार्टी जिस पांच लाख रुपए को प्रेस लब को देने जा रही थी उसे वापस लेना पड़ा। उसने तो हमेशा अपनी आवाज खुल कर उठाई। यह उसका साहस था कि वह संजय शु ला के साथ खुली लड़ाई लड़ सका। जबकि सब भीगी बिल्ली बने रहते थे।
जहां तक बात मेरी सादगी की है तो मैं तो अपनी शादी के समय ही अपना रेलवे टिकट कहीं भूल आया। इससे बड़ी सादगी और या होगी कि उसे अपने को भुनाना नहींं आया। वरना सुप्रतिष्ठ त राष्ट ्रीय न्यूज पेपर केएडिट पेज केलगभग सत्तर लेख, पहले पेज के अस्सी बाटम , पूरे फीचर पेज केकई आलेख, और जनसत्ता की पत्रिका की कई कवर स्टोरी के बावजूद अपने को भुना नहीं पाया। यह इनोसेंट ही है। वरना लोग तो एक दो स्टोरी के बाद राज्य सरकार का पुरस्कार पा जाते हैं। पर मैं फिर कह रहा हूं। मैं इनोसेंट नहीं हूं , न होना चाहता हूं। बल्कि मुझे बड़ी लड़ाई लड़नी है। मुझे तो सबसे गंदा तब लगता है जब कोई मुझे 'सीधा` कहता है। सीधा मतलब आज की दुनिया में बेवकूफ। माफ करना मैं बेबकूफ नहीं। पूरी समझ रखता हूं। मेरे आंख-कान सब खुले हैं। पूरी होशोहवाश है। एक एक पल की जानकारी रखता हूं। बस किसी का अहित नहीं करता। हां कोई मेरा अहित करने की सोचे तो उसे समय पर छोड़ता भी नहीं।
कमियों की बात करते हो तो अपनी कमियों को परखने के लिए जितनी जद्ोजहद मैं करता हूं उसके बारे मेंं तुमसे सलाह लेने की जरूरत नहीं। बचपन से अपनी कमियों को सुधारते सुधारते मैने अपनी जगह बनाई है। मुझे याद है कि अपना बायोडाटा श्री नंद किशोर नौटियालजी को देते समय मैने कई जगह मात्राआें की गलती की थी। नौटियालजी ने पढ़ते हुए कई गोले बनाए थे। मैं नाराज नहीं हुआ बल्कि उससे सबक लिया। लेकिन मैं जानता हूं कि तुम अपने किसी भी इंचार्ज को सहन नहीं कर पाते हो। हर इंचार्ज केलिए तुम्हारे मुंह में तौहीन होती है। हालांकि मेरे पास तुरर्म खां टाइप के पद नहीं है पर जो कुछ है वह तुम भी अच्छी तरह जानते हो। और न जानो तो मुझे परवाह भी नहीं।
मुझे पता है कि मेरे इस लिखने के बाद तुम जरूर कुछ लिखोगे। तुम्हें इसमें मजा आता है। अब तुम मुझे गाली भी दोगे तो मैंंइसका जबाव नहींं दुंगा। न मुझे इस बात का दुख है मैने तुम्हारे बारे मेंं राजीव से बात की थी। तुम जांलधर में मेरे प्रयास से नहींं लगे। अपने कर्मो से लगे हो। पर एक घटना याद आती है। तुम कहानीकार भी हो सुनो
रेलवे में एक बहुत बड़े पहाड़ी आइएएस अफसर थे। एक दिन शराब के पैग पीते हुए मैंने कहा कि राम विलास पासवान इतने लोगों को नौकरी देते हैं। आप भी अपने स्तर पर कुछ कीजिए। उनका जवाब था कि मैने शुरू में कुछ लड़के लगाए थे। लेकिन उन लड़कोंं ने नौकरी लगते ही मेरे बारे में इधर-उधर अनापशनाप कहना शुरू कर दिया ( ब्लाग लिखने का प्रचलन तब नहीं था) कि तंग होकर मुझे अपना ट्रांसफर कराना पड़ा। तबसे भाई मैं यह समाजसेवा नहींं करता।
आदमी को अपने विगत को नहीं भूलना चाहिए। उन लड़कों ने आगे कितनों का बुरा कर दिया। पर मैं तुम्हारे इस आचरण के बावजूद दूसरों की मदद करुंगा। अपने कैरियर में मैंने ४० से ज्यादा लोगोंं के लिए रोजगार के अवसर दिलाए। यही मेरी आंतरिक खुशी है। मैं संख्या ४०० पहुंचाना चाहता हूं। भले ही उसमेंं कुछ तुम जैसे दो चार लोगों से मुझे अपशब्द भी सुनना पड़े।
मैं या हूं कैसा हूं इसका प्रमाणपत्र मत दूं। मैं तो मुंबई से दिल्ली आ गया था। परिस्थितिवश तब मुंबई नहीं जा सका था। रेलवे स्टेशन पर मेरे सौ से ज्यादा दोस्तों ने लक्ष्मी को विदाई दी थी। यही नहीं सामान की पैेकिंग भी की थी। अगर मैं बुरा था तो तुम दून मेंं हर शाम मेरे घर यों पड़े रहते थे। थोड़ी सी तुम्हें पहचान और तनख्वाह मिलनी (देहरादून में या पाते थे और संस्थान में या तुम्हारी हैसियत थी, यह किसी से छिपा नहीं है) शुरू हुई और तुम मुझे दुनिया समझाने चलो हो। विनम्रता से कहते तो सुनता पर इस अंहकार के लायक अभी तुम नहीं हो। जब हो जाओगे तो कुछ कह लेना।
अभी भी तुम्हारी उम्र कम है। हालांकि बहुत कम भी नहीं। चाहो तो अपने में सुधार ला सकते हो। या फिर इसी तरह दूसरोंं पर कुछ भी लिख कर अपना समय गंवाआें। तुम कौन सा रास्ता अपनाओ इसे जानने की मुझे उत्सु ता नहीं। योंकि तुम पहले अपनी हरक तों से मुझे काफी आहत कर चुके हों। फिर भी याद रखो मैं तुम्हारा अच्छा ही चाहता हूं। तुम अच्छे होे जाओ इसी लिए यह सब लिख रहा हूं। वरना बलाग फ्लाग की परवाह मैं कब करता हूं। मैने कब किसी चीज की परवाह की। परवाह की होती तो कहींं गंभीर ओहदे मेंं होता। इसी अंदाज केलिए तो जाना जाता हूं। पहले मुझे समझो फिर टिप्पणी करो। देहरादून के तुम्हारे दो मित्रोंं की सोचने की जो क्षमता है उससे ऊपर हो जाओ।



अब सब बोले बम बम भोले

अब तक राम नाम से लोगों के बीच हिंदुत्व का राग अलापने वाली बीजेपी अब बम-बम भोले की शरण में आ गई है। सावन माह को महादेव को खुश करने के लिए सभी मंदिरों में पूजा करते है तो ऐसे में बीजेपी कैसे पीछे रहे। इतना जरूर है कि बीजेपी मंदिर के साथ-साथ मंच से भी बम-बम भोले को खुश करने के प्रयास करने में सबसे आगे निकल चुकी है। लोगों के बीच अब तक जो नेता राम के नाम पर वोट मांगते आए है उनका अंदाज अब भी वही होगा, जब राम नाम के स्थान पर अब वह महादेव बम-बम भोले बोलते नजर आएंगे। बीजेपी का हर नेता बम-बम भोले की फौज बन कर लोगों के मनों में दस्तक देने की कोशिश करन में जुट गया है। आज दिल्ली में बीजेपी की रैली के दौरान मंच महादेव की पूजा करने के बाद जब अडवाणी सहित कई बड़े-बड़े नेता जब बम-बम भोले बोले तो लगा कि बीजेपी के सुर नए है। जम्मू की आग की लपटों ने बीजेपी के नेताओं को राम नाम भुला कर बम-बम भोले का जाप सीखा दिया है। मंच पर अडवाणी भोले की सेना के सिपाही बन कर गरजे की जमीन लेकर रहेंगे, जैसे जो भी हो। बीजेपी का बम-बम भोले प्रेम देखकर वामपंथी दल भी अपनी किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतर गए है। उन्होंने भी बम-बम भोले के नाम पर केंद्र और कांग्रेंस सरकार को दोषी ठहराना शुरू कर दिया है। अब देखना है कि बम-बम भोले किस पर मेहरबान होंगे। जम्मू में संघर्ष समिति की बैठक बेनतीजा होने का बाद बीजेपी ने भी अपने सुर थोड़े तीखे कर लिए है, क्यों इस समय हिंदुत्व के नाम पर लोगों को अपने साथ जोड़ने का मौका है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि वापस लेने से उठे विवाद से लोकसभा चुनाव में बीजेपी को के हाथ ऐसा बान लगा है जो हिंदुत्व के नाम पर वोट बटोरना में काफी मदद कर सकता है। फिर ऐसे में राम की शरण से निकल बीजेपी महादेव की शरण में आने से कैसे रूक सकती थी। भाजपा ने महादेव के नाम को भुनाने के लिए संघर्ष को जिला स्तर पर शुरू करने को भी हरी झंडी दे दी है। बस देखना यह है कि आने वाले दिनों में बीजेपी और वामपंथी दलों के बीच कौन महादेव को खुश कर पाएगा और बम-बम भोले के जैकारों में किस की आवाज बुलंद रहेगी।

Friday 8 August, 2008

सिमी से इतना मोह यों ?

एक समाचार : सुप्रीम कोर्ट ने स्टूडेंट् स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) पर प्रतिबंध हटाने संबंधी दिल्ली हाईकोर्ट के विशेष ट्रिब्यूनल के आदेश पर रोक लगा दी।
अब आगे का खेल देखिए, अभी यह फैसला अदालत से बाहर भी नहीं आया था, हमारे राजनीतिज्ञों ने सिमी के हक में बयान तक जारी कर दिए। सपा प्रमुख मुलायम सिंह की मानें तो सिमी पर प्रतिबंध लगाने की बजाए राष्ट ्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। उनकेशब्दों में 'जब उत्तर प्रदेश में मेरी सरकार थी तो सिमी पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया।` वहीं राजनीतिज्ञों की जमात में इस विद्या के पंडित कहे जाने वाले 'ताऊ` लालू प्रसाद यादव का कहना है कि सिमी पर प्रतिबंध की जरूरत ही नहीं थी। प्रतिबंध लगाना ही है तो शिव सेना पर लगाओ, दुर्गा वाहिनी पर लगाओ।
इस संगठन का नाम (सिमी) देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर इसलिए नहीं चढ़ा कि इस संगठन ने अपने नाम के अनुरूप स्टूडेंट् स की भलाई के लिए किए गए अपने कामों से झं़डे गाढ़ दिए। बल्कि जब भी इस संगठन का नाम सुर्खियों में आया, तब-तब सिमी के साथ आतंक शब्द की गूंज साफ सुनाई दी। आज भी यह संगठन भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाली एक प्रमुख संस्था के रूप में जाना जाता है। देश में घट रही तमाम आतंकवादी घटनाआें में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के बाद अगर किसी संगठन का नाम आता है तो वह सिमी ही है। जो इस्लामिक स्टूडेंट् स मूवमेंट् स केनाम पर इस देश की नौजवान पीढ़ी की रगों में दहशतगर्दी का जहर घोल रही है। इस देश का राशनकार्ड लेकर इस देश की थाली में खाकर इसी देश केनौजवानोंं को बाढ़ बनाकर इस संगठन केकार्यकर्ता देश को खोखला करने में जुटे हैं।
ऐसे में अगर हमारे राज नेताआें के बयान इस संगठन के हक में आते हैं तो दुख होता है। दुख होता है यह सोचकर कि आखिर इस देश में हो या रहा है? जनता इन नेताआें को चुनकर संसद में भेजती है। इसलिए कि वे जनहित की बात करेंगे, देशहित की बात करेंगे। लेकिन, अगर राजनीति से प्रेरित इस तरह के काम हमारे राजनेता करने लगें तो फिर अभागी जनता कहां जाए?


Thursday 7 August, 2008

हम कब बनाएंगे एक 'असली` नोट?

गर्व से कहो हम भारतीय हैं। चंद दिनों बाद हम अपनी आजादी की ६१ वीं सालगिरह भी मनाने जा रहे हैं। गर्व करने के लिए दावे बड़े-बड़े हैं। इन ६१ सालों में हमने अंतरिक्ष में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई, ताकि पूरी दुनिया पर नजर रखी जा सके। अत्याधुनिक रक्षा उपकरण से सीमा पर चौकसी बढ़ाई, ताकि पड़ोसी परिंदा भी पर न मार सके। अपने करोड़ों देशवासियों के हाथों में कंप्यूटर और मोबाइल फोन थमाया। लेकिन... कड़वी हकीकत यह भी है कि इन ६१ सालों में हम एक ऐसा नोट नहीं बना सके, जिसे दावे के साथ कहा जा सके कि यह 'असली` है। खून पसीने की कमाई के बदले मिलने वाले थोड़े से नोट को हर आम भारतीय बार-बार उलट-पलट कर देखता है कि कहीं यह जाली तो नहीं। नोट घर ले आने के बाद भी शक की गुंजाइश बनी ही रह जाती है।
उत्तर प्रदेश में भारतीय स्टेट बैंक की डुमरियागंज शाखा में स्थित आरबीआई के करेंसी चेस्ट से करोड़ों रुपये के जाली नोट मिलना यह साबित करता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला करने के प्रयास में जुटे आतंकी संगठन अपने मंसूबे में कामयाब हो रहे हैं। बताया जाता है कि एसबीआई की इस करेंसी चेस्ट में करीब १८६ करोड़ रुपये हैं और बुधवार तक बहुत थोड़े से नोटों की जांच में ही करोड़ों के जाली नोट मिल चुके हैं। यदि आरबीआई के कुछ और करेंसी चेस्ट में आतंकी संगठनों की घुसपैठ हो चुकी है, तो पूरा गोरखधंधा अरबों का हो सकता है। इस मामले में गिरफ्तार चर्चित कैशियर सुधार त्रिपाठी उर्फ बाबा तो एक मोहरा ही लगता है, इतना बड़ा गोरखधंधा अंतरराष्ट्रीय साजिश के बिना संभव नहीं है। फिलहाल इसमें दाऊद इब्राहिम और उसके नेटवर्क का हाथ होने की आशंका जताई जा रही है। पुलिस ने भी शक जताया है कि दूसरे राष्ट्रीयकृत बैंकों के अलावा छोटे जिलों मंे स्थित निजी बैंकों को भी आईएसआई के गुरगों ने निशाना बना रखा है।
ऐसे में हर भारतीय के मन को यह सवाल झकझोर रहा है कि आखिर कब तक पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और उसकी गोद में बैठे भारत से भागे आतंकी अपने मंसूबों में कामयाब होते रहेंगे? कब तक हम खून-पसीने की कमाई के बदले विदेश में छपे जाली नोट पाते रहेंगे? आखिर कब हम इतने सक्षम होंगे कि हमारी अर्थव्यवस्था में कोई सेंध न लगा सके?

Sunday 3 August, 2008

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो..


अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो.. इस गीत के बोल एक बेटी की व्यथा को खुद व खुद बयां कर रहे है। कहते है समाज में बेटी के लिए सोच बदली तो है लेकिन कितनी बदलती है यह बहस का मुद्दा है। अगर बेटी के मन की बात शब्दों का रूप ले भी ले तब भी समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आज भी बेटी को जन्म से पहले ही मारने का सिलसिला जारी है। कितने सेमिनार, कांफ्रेस और कैंप लगा कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, लेकिन घंटे आधे घंटे के भाषण में लोगों की सोच पर ज्यादा फर्क नहीं पड रहा। चाहे सरकार ने कानून बना दिए है, लेकिन डाक्टर खुद चंद रूपये के लिए पाप के भागीदार बन रहे है। क्या बेटी सच में मां बाप पर इतना बोझ बनती जा रही है कि उसको जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है। कितने गीतकारों ने अपनी कलम के माध्मम से अजन्मी बेटी के मन की बात को उजागर किया, कितने गायकों ने उसे अपनी सुरीली आवाज में लोगों पर पहुंचाया। फिर भी लोग बेटी को मारने के लिए वह पत्थर के दिल और खून से रंगे डाक्टर के हाथ कंपकपाते नहीं है। बेटियों ने समाज में अपना रूतबा कायम किया है। जिसे पुरूष प्रधान समाज को स्विकार करने में अभी वक्त लगेगा। मेरे इन शब्दों से बुरा लग सकता है, पर सच्चाई यहीं है कि बेटी का खुद की समाज में पहचान बनाना हजम नहीं हो पा रहा। बेटे को तो सभी हक खुद ब खुद दे दिए जाते है, पर बेटी के लिए नजरिया आज भी सदियों पुराना है। बेटा कुछ भी करें सब माफ, बेटी जरा सी गलती कर बैठे तो खान-दान की दुहाई। एक तरह तो कहते है कि बेटे से खानदान का नाम रोशन करता है, फिर सिर्फ बेटियों पर पाबंदियां क्यो? बेटी मायके में है तो हर बात के लिए पिता या भाई से इजाजत जरूरी। बचपन से एक बात परिवार के सदस्य के जुबान पर होती है, जो करना है अपने घर जाकर करना। क्या कहेंगे वो यही सिखाया मां-बाप ने। बेटी अरमानों के साथ ससुराल में कदम रखती है, वहां पर भी उसके लिए अपना घर उसे कहीं नजर नहीं आता। अपनी मर्जी से कुछ कर लिया तो वहीं बात अपने घर क्या ऐसा करती थी। पराए घर की है न इसलिए कुछ पता नहीं इसको। फिर सवाल वहीं कि अपने के बीच रह कर बेटी का अपना घर कौन सा है। चारों तरफ उसके अपने है, पर अपनों की भीड़ में वह खुद को पराया महसूस करती है। आखिर कब बदलेगी बेटी के लिए समाज की धारना। आखिर कब मिलेगा उसे अपने घर का आसरा। मेरी बातें लोगों को पसंद नहीं आएगी, लेकिन क्या कोई बता सकता है बेटी का अपना घर कौन सा है। दोनों परिवार अपने है बेटी के लेकिन बेटी किसी की अपनी क्यों नहीं?

फ्रेंडशिप डे

तीन अगस्त को दोस्ती का दिन है। अंग्रेजी में बोले तो फ्रेंडशिप डे। मतलब दोस्तों को अहसास करवाओं कि दोस्ती अभी भी जिंदा है। यह कहां जाए कि अगर फ्रेंडशिप डे न हो तो दोस्ती का अहसास करवाना मुश्किल हो जाएं। कितनी तेजी से हम पश्चिमी सभ्यता में खुद को ढालते जा रहे है, कभी फ्रेंडशिप डे मना रहे है तो कभी चाकलेट डे। अच्छा है बच्चों को दोस्ती का पाठ पढ़ाया जा रहा है।, लेकिन उसमें भी अंग्रेजी तड़का लगा कर। क्या हम दोस्ती को सुदामा श्रीकृष्ण के नाम से नहीं जान सकते। वह निस्वार्थ दोस्ती आजकल नहीं देखने को मिलती। आज कल के दौर में वैसे अच्छे दोस्त मिलना किस्मत की बात हो गई है, पर फिर भी अपनी कोशिश जारी रखनी चाहिए। जीवन में दोस्तों की लिस्ट लंबी करने के स्थान पर चंद दोस्त बनाने ज्यादा बेहतर है। दोस्त तो बहुत मिल जाएंगे पर दोस्ती का मतलब समझने वाले बहुत कम है संसार में। पर आज भी चंद लोग ऐसे है जो दोस्ती को निभाने जानते है। वैसे में ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी, आप खुद समझदार है।
---------दोस्ती-------
जीवन में दोस्त बनों ऐसे, नाज करें तुम पर,
वक्त न आए ऐसा कभी कोई हंसे हम पर।
रास्ते बहुत है पथरीले इस राह के प्यारे,
डर मत हम भी राह पर साथ है तुम्हारे।
लंबी डगर है साथी मिलेंगे बहुत तुमको,
पर भीड़ में भी तुम पहचान लेना हमको।
दिखाई न देंगे कभी तो छोड़ ना देना हाथ,
मर कर भी हरदम कदम चलेंगे तुम्हारे साथ।

Friday 1 August, 2008

ऑटो वाले को 'ताजमहल` बनाने की सलाह दे आया

जब आज किसी नए शहर में प्रवेश करते हैं तो आपका पहला परिचय उस शहर के ऑटो-टै सी और रि शा चालकों से होता है। मोल-भाव के बाद आप अपने यथा स्थान की ओर चले जाते हैं। लेकिन इससे पहले जब आप चालाकी दिखाते हुए चालक से कहते हैं 'अरे! इतने कैसे ले लोगे, रोज का आना जाना है हमारा`, 'लूट मचा रखी है या?` 'इतने में चलना है तो चलो वरना अपना रास्ता नापो`। यकीन मानिए आपकी इस चालाकी के बाद भी आमतौर पर आप लूट लिए जाते हैं। मतलब आपकी चालाकी के बाद भी आप वाजिफ दाम से ज्यादा देकर ही अपने गन्तव्य तक पहुंचते हैं। ये मेरे-आपके और हिंदुस्तान के हर शहर की कहानी है। एक अनपढ़ ऑटो रि शा चालक कुछ पलों में ही आपके पूरे व्यि तत्व का चित्र अपने दिमाग में खींच लेता है। वह आपके जूते, कपड़ों, कंधे पर टंगे बैग, हाथ में लिए सूटकेस और सिर पर सजी हैट से जान लेता है कि अमुक शख्स से कितना वसूला जा सकता है। बची-कुची कसर आपकी जुबान पूरी कर देती है। रि शे वाले को सुनाई देने वाला आपका पहला स्वर, 'ये रि शा...!`, 'वो भईया...!`, 'अरे सुन...!`, 'सुनो भाई`, 'चलना है या?`। हिंदुस्तान में रि शा-ऑटो वालों के लिए प्रचलित ये स्वर उसे आपका जैसे आई कार्ड हाथ में थमा देते हैं। इन्हीं स्वरों की व्यंजना से वह दाम तक कर लेता है। इसके बाद बात फिर इज्जत की हो तो भला वह भी पीछे यों हटे। थक-हार कर आदमी दो-चार रुपए इधर-उधर कर उसी के बताए दाम पर उसके साथ चलने को मजबूर हो जाता है। यहां पर मैं रि शा चालकों की पैरवी नहीं कर रहा हूं। न ही रि शे वालों से जाे़डकर हमारे-आपके व्यि तत्व की पहचान बता रहा हूं। मैं दिखना चाहता हूं, समाज का वह चेहरा जिससे हम अ सर दो-चार होते हैं। लूटते हैं, पिटते हैं, घिसीयाते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यही हिंदुस्तान की तस्वीर है। यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन इसे इसका वृहद्ध रूप कहा जा सकता है। मैं देश में ज्यादा तो नहीं घूमा हूं, लेकिन कई शहर इन्हीं रि शा-ऑटो चालकों की ईमानदारी के लिए भी जाने जाते हैं। इनमें मुंबई को शीर्ष पर कहा जाता है। मुंबई में आप गाड़ी से उतरने के बाद किसी भी ऑटो-रि शा या टै सी वाले से दाम तय कर लीजिए, इसके बाद वहां रह रहे अपने रिश्तेदार को फोन पर पूछिए, ऑटो वाला इतने पैसे मांग रहा है। तो वह यही कहेगा बिल्कुल ठीक है, आप उसमें बैठकर आ जाइए। यह मेरा खुद का अनुभव भी है। लेकिन, भारत के अधिकतर शहरों में आपको इस मामले में कटु अनुभव को ही ग्रहण करना पड़ेगा।
जालंधर में रहते हुए अपने तीन अनुभव आपके साथ साझा करना चाहूंगा।
पहला-जब मैं पहली बार जालंधर आया। रि शे वाले ने उस व त रेलवे स्टेशन से घर तक आने के मुझसे उतने पैसे लिए, जितने में मैं अब रेलवे स्टेशन से घर तक दो बार आता हूं।
दूसरा-देहरादून में तीन दिन की छुट् टी काटकर जब मैं जालंधर बस स्टैंड पर पहुंचा तो जून की भरी दोपहरी में पसीने से बूरेहाल था। मेरे घर की तरफ जाने वाला एक ऑटो चालक जोर-जोर से आवाज दे रहा था। मैं जाकर ऑटो में बैठ गया। लेकिन, भाई ने आधा शहर घुमाने के बाद मुझसे किराया भी पहले ही ले लिया और आधे रास्ते में छाे़ड दिया। मैं उस व त उससे लड़ने या उलझने की स्थिति में भी नहीं था और न ही चाहता था।
तीसरा-मौसम खुशगवार देकर हम तीन मित्रों ने बाजार घूमने की योजना बनाई। हम लोग बाजार गए और जाते हुए वाजिफ पैसे देकर, बाजार में खरीददारी करने लगे। इसके बाद बीयर पी, बारिश में भीगे और खूब मस्ती की। आते हुए उसी रूट पर जब मैने उसे बनते पैसे दिए, तो ऑटो वाला उसके डबल पैसे मांगने लगा। बहुत गुस्सा आया। उसे उसी के मुताबिक पैसे भी दिए, लेकिन इससे पहले उससे थाे़डी बहुत तकरार भी कर ली। ...और आते-आते उसे 'ज्यादा दिए` पैसों से 'ताजमहल` बनाने की सलाह भी दे डाली।

मेरा नाम लिख देना

आइए जनाब, पानी पी ली लीजिए। वैसे कौन से समचार पत्र से है आप। मेरा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा, जब से इश्मीत की मौत के बारे में सुना है, दिल बैठा जा रहा है। मेरा नाम जरूर डाल दीजिएगा खबर में, मैं जहां ए पास वाला ही घर है मेरा। क्या बताऊ इश्मीत को मैने अपनी गोद में खेलाया है, बड़ा दुख है। पानी नहीं उतर रहा मेरे गले से। कौन सा पेपर बताया आप ने मेरे नाम के साथ इतना जरूर लिख देना कि मै फलाने बैंक में अफसर हूं। हां तो जनाव आप ने पानी नही पिया। कब आएगी खबर कल तो पक्का न। इश्मीत बहुत प्यारा बच्चा था। इतने में दूसरी तरफ एक सज्जन की अवाज कानों में टकराती है कि वो फलाना न्यूजपेपर संभाल लेना, हां वो दूसरे पन्ने की तीसरी फोटों में मैं दिखाई दे रहा हूं। हां-हां आज भी काफी चैनल और अख्बारों वाले है यहां, इसलिए मैं अंदर ही हूं। कल भी मेरी फोटो आएगी अख्बारों में। सच में ऐसे लोगों की बातों से लगा ही नहीं यह किसी सम्मेलन का हिस्सा बनने आए हैं या फिर उसके लिए शोक जताने, जो अब इस दुनिया में नहीं है। अंदर जो सज्जन सब से ज्यादा दुखी दिखाई दे रहे थे, जिन की आंखों में (मगरमछ के आंसू कहूं तो कुछ गलत नहीं होगा) मोटे मोटे आंसूं गिर रहे थे., वह बस इस लिए वहां है कि कल अख्बारों और चैनलों में उनकी तस्वीरें चमकेंगी। समझ नहीं आता कि क्या लोग जिस घर का चिराग बुझ गया उसको दिलासा दे रहे है या फिर लाश पर भी रोटियां सेक रहे है। लगता है कि इन के लिए किसी का होना न होना कोई मायने नही रखता , बस उन को मौका चाहिए कि मीडिया में खुद को कैसे चमकाया जाए। आज इश्मीत की मौत पर बड़े-बड़े प्रेसनोट बना कर श्रद्धाजंलि भेंट करने का मौका कोई नहीं गंवाना चाहता। श्रद्धाजंलि की एक लाइन लिख कर कम से कम सौ व्यक्तियों के नाम उसपर अंकित कर समाचार पत्रों के दफ्तरों में पहुंचाए जा रहे है। इन नाम छपावे के फोबिया के शिकार लोग चाहे उसके घर शोक जताने गए हो या न, बस इतना जरूर है न्यूजपेपरों में नाम छपवा लिया।