Tuesday, 28 September 2010
Tuesday, 10 August 2010
गरम दूध है, उगला भी नहीं जाता, निगला भी नहीं जाता
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संबंध में मीडिया में आ रही नकारात्मक खबरों के बाद शायद मेरी तरह प्रत्येक भारतीय दुविधा में होगा। गरम दूध है, उगले या निकले। बात सिर्फ एक आयोजन भर की नहीं है। देश के सम्मान की है। देश की भ्रष्ट राजनीति और अफसरशाही ने एक महा आयोजन से पूर्व देश के सम्मान को चौराहे पर ला खड़ा किया है।
कुछ दिन पूर्व तक प्रत्येक भारतीय का सीना इस आयोजन पर गर्व से फूला जा रहा था, वहीं पूरा विश्व हमारी ओर सम्मान से देख रहा था। लेकिन जैसे-जैसे इस महा आयोजन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, मन में कोफ्त हो रही है। अफसोस हो रहा है इस बात का कि पूरी दुनिया हमारे देश के बारे में क्या सोचेगी। घर की बात होती तो घर में दबा दी जाती। जैसा कि अक्सर होता आया है देश में तमाम घोटाले हुए, कई विवादों ने जन्म लिया और यहीं दफन हो गए।
खेलों से पहले जो ‘खेल’ खुलकर सामने आ गए हैं, उसके बाद किसी भी भारतीय का उत्तेजित होना लाजमी है, लेकिन खेल का दूसरा पहलू यह भी यह ये खेल हमारे आंगन में हो रहे हैं। इनके सफल आयोजन की जिम्मेदारी भी हमारी है। नहीं तो देश-दुनिया में जिस शर्मिंदगी को झेलना होगा, वह इससे कहीं बड़ी होगी। मेरा मानना है मीडिया को भी इस मामले में थोड़ा संयम बरतना होगा। आखिर बात अपने घर में आई बारात की है। खेल सकुशल निपट जाएं, उसके बाद चुन-चुनकर इस भ्रष्टाचारियों को चौराहे पर जूते मारेंगे, जिन्होंने देश केसम्मान तक को दाव पर लगा दिया।
Sunday, 20 June 2010
मर्यादा में रहें, आपका स्वागत है
Thursday, 3 June 2010
हिंदी में इतने कहानी लेखक और पाठक नहीं
कथा देश का मार्च अंक खास रहा। इसमें पत्रिका ने उन कहानियों को प्रकाशित किया है जिन्हें उसने एक अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता के माध्यम से पुरस्कार देने के लिए चुना है। संपादक का दावा है कि इस प्रतियोगिता के लिए उसे दो सौ से अधिक कहानियां मिली थीं। जिसे कई दिग्गजों के माध्यम से छांटा गया। छांटी गई कहानियों में फिर पत्रिका के निर्णय मंडल ने कहानियों को पुरस्कार के लिए चयनित किया गया। तीन कहानियों को पहला और दूसरा पुरस्कार दिया गया है। तीन को संत्वना पुरस्कार से नवाजा गया है। पहला स्थान प्राप्त करने वाले लेखक को दस हजार रुपये से सम्मानित किया है। दूसरे को सात और तीसरे को पांच हजार रुपये। सांत्वना पुरस्कार के तौर पर शायद दो-दो हजार रुपये दिए गए हैं। लेखकों को पुरस्कार की आधी राशि नकद और आधी की राशि के बराबर मूल्य की किताबें देने की घोषणा की गई है।
इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिंदी का कहानी लेखक ही एक दूसरे को न जानता हो। इसकी वजह यह है कि हिंदी का लेखक एक दूसरे को पढ़ता ही नहीं है। उसका पक्का मानना होता है कि उसके और उसकी जुंडली केअलावा कोई बढिय़ा नहींं लिखता। इसलिए हिंदी में अपनी और अपनी जुंडली की रचनाएं ही पढऩे की रवायत है। कुछ ही लेखक होंगे जो जुंडलीबाजी से परे होंगे और जिन्हें सभी पढ़ते होंगे।
यह भी आश्चर्य की बात है कि जिस हिंदी समाज में करीब तीन सौ कहानी लेखक हैं वहां किसी एक लेखक को सौ लोग भी नहीं पढ़ते। यानी हिंदी समाज एक ऐसा समाज है जहां रचा तो खूब जाता है लेकिन रचना को पढ़ा नहीं जाता। एक लेखक मित्र कहते हैं कि यहां लिखने वाले ही एक दूसरे को पढ़ लें तो बहुत है।
कहा भी जाता है कि हिंदी में लेखक ही पाठक होते हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है जब लेखकों की जुंडली है तो पाठकोंं की भी होगी ही। यानी पाठक भी अपनी जुंडली के रचनाकारों को ही पढऩा पसंद करते हैं। वैसे भी हिंदी केअधिकतर लेखक पढ़ते अंग्रेजी हैं और लिखते हिंदी हैं। वह इस भाव से लिखते हैं कि हिंदी के पाठक मूर्ख हैं। उनके लिए तो कुछ भी लिखा जा सकता है। यही कारण है कि कई लेखक तो हिंदी के फिल्मकारों की तरह अंग्रेजी रचनाओं को ही उड़ा देते हैं। कुछ इस मासूम भाव से कि हिंदी के पाठक को क्या पता। उड़ाने वाले मासूम लेखक को शायद यह भान नहीं होता कि हिंदी का लेखक यदि लिखने के लिए अंग्रेजी पढ़ता है तो हिंदी का पाठक भी पढऩे के लिए अंग्रेजी की रचनाएं पढ़ लेता है। अधिकतर हिंदी के लेखकों की भाषा-शैली और विषयवस्तु से ही समझा जा सकता हैकि उन्होंने कहां से टीपा है। पढ़ाई के दौरान से ही टीपने की आदत मरते दम तक बनी रहती है।
(नोट : इस संदर्भ में आज इतना ही अगली पोस्ट में कुछ और बातें होंगी। )
Tuesday, 11 May 2010
9 हेक्टेअर भूमि में आकार ले रहा 'लघु भारत ’
Wednesday, 5 May 2010
चूहा मेरी बहन और रेटकिल
हद्द हो गई !
अब जा के मिला है जेब में,
वो बित्ते-भर का चूहा
जिसे कत्ल कर दिया था बवजह
कई बरस पहले,
मॉरटिन रेटकिल रख के
”नहीं, ये विज्ञापन कतई नहीं है
बल्कि ज़रिया था मुक्ति का..........“
पर फिर भी
चूहा तो मिला है !
और मारे बू के
छूट रही हैं उबकाईयां
जबकि उसी जेब में
-हाथ डालें-डालें गुज़ारा था मैंने जाड़ा
-खाना भी खाया था उन्हीं हाथों से
-हाथ भी तो मिलाया था कितनो से
तब भी,
न तो मुझे प्लेग हुआ
न ही किसी ने कुछ कहा..........“
पर तअज्जुब है कि,
कैसे पता चल गया पुलिस को,
क्या इसलिये कि
दिन में एक दफे जागती है आत्मा,
और तभी से मैं
फ़रार हूँ................,
और भी हैं कई लोग
जो मेरी फ़िराक़ में हैं
जिन्हे चाहिये है वही चूहा,
ये वही थे
जो माँगा करते थे मेरा पेंट अक्सर
इसीलिये मैं नहाता भी था
पेंट पहनकर,
(“था न यह अप्रतिम आईडिया..”)
पर,
अंततः मैं पकड़ा जाता हूँ.....
ज़ब्ती-शिनाख्ती के
फौरन बाद
दर्ज होता है मुकद्दमा
उस बित्ते से चूहे की हत्या का,
और हुज़ूर बजाते हैं इधर हथौड़ा
तोड़ देते हैं वे
अप्रासंगिक निब को तत्काल
और मरने के स्फीत डर से बिलबिला जाता हूँ मैं
कि तभी ऐन वक्त पर
पेश होती है
चूहे की पीएम रपट
कि भूख से मरा था चूहा,
इसलिये मैं बरी किया जाता हूँ
“बाइज़्ज़त बरी”
हुर्रे........................।”
“फू..................”
आप सोचते होंगे कि क्या हुआ
फिर रेटकिल का???
आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं,
”हाँ, मैं नशे में हूँ
श्श........श्श..........श्श.....श्श...”
(बहुत धीरे से, एकदम फुसफुसा के..)
बहन को खिला दिये थे
वे टुकड़े चालाकी से
क्यूँकि शादी करी थी उसने
-किसी मुसल्मान से
-खुद के गोत्र में
-किसी कमतर जात में
हा...हा...हा...हा...हा...हा....”
’फिलहाल आत्मा सो रही है....”
और मॉरटिन रेटकिल भी खुश है
क्योकि इस बार चूहा नहीं
बल्कि बहन मरी थी ठीक बाहर जा के.....।”