Saturday, 3 April 2010

एक आंदोलन जो विश्वव्यापी मुहिम बन गया



'चिपको आंदोलन ’ के 36 साल पूरे होने पर विशेष
विनोद के मुसान
एक आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचाई। पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना। विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चरचा, गोष्ठिïयां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। हम बात कर रहे हैं विश्वविख्यात 'चिपको आंदोलन ’ की। 'पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। लेकिन आज सवाल यह खड़ा होता है, क्या अब सब कुछ सुधर गया है? क्या हमें अब पेड़ों की जरूरत नहीं? या एक बार आंदोलित होने के बाद हम चैन की बंशी बजा रहे हैं।
यह आंदोलन उस वक्त इसी पर्वतीय क्षेत्र में शुरू हुआ था, लेकिन आज जब विकास के नाम पर पर्वतीय राज्य की रूपरेखा को एक आयाम देकर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया गया, तब यहीं के लोग इसे भूल गए। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो न ही आम आदमी को इसकी जानकारी थी और न ही सरकार के नुमाइंदों को। राज्य के राजनेताओं का तो कहना ही क्या। 26 मार्च को सत्तारूढ़ दल के नेता सत्र के दौरान विधायकों की संख्या गिनने में जुटे थे तो विपक्षी दल के नेता सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पटल पर रखने की तैयारी। ऐसे में भला उन्हें कहां याद रहता की आज चिपको आंदोलन की सालगिरह है।
आइए आपको इसकी पृष्ठïभूमि में ले चलते है, जहां से शुरू हुई थी एक मुहिम, जिसने देखते ही देखते न सिर्फ विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया बल्कि राष्टï्रीय राजनीति में एक तूफान खड़ा कर दिया। हमेशा नमन की हकदार रहेगी वह महिला गौरा देवी जिसने इस मुहिम को न सिर्फ शुरू किया, बल्कि इसे इसके मुकाम तक पहुंचाया। 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है। 12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है। गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा।
70 के दशक में जब सरकार पर्वतीय वनों को काटकर मोटा मुनाफा कमाना चाहती थी, उस वक्त मंडल-फाटा के जंगलों को बचाने से शुरू हुई मुहिम पैनखंडा ब्लाक के नीती घाटी के रैंणी के जंगलों तक फैल गई। गौरा देवी के साथ ऊमा देवी, अखा देवी, बारी देवी, मूसी देवी, रूपसा देवी पुसुली देवी, नोरती देवी नागी देवी जैसी सैकड़ों औरतों ने जैसे चंडी का रूप धारण कर लिया। उन्होंने समेट लिया उन पेड़ों का अपने आंचल में, जिन्हें वह अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं।
धीरे-धीरे यह मुहिम पूरे गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल तक फैलने लगी। लोग जुड़ते गए और कारवां बनता चला गया। 'पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ मरेंगे ’, 'लाठी-गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे ’ जैसे नारे पूरे पहाड़ की फिजा में गूंजने लगे। 1977 में जंगलों के कटान से उपजे जनाक्रोश का ही परिणाम नैनीताल क्लब को झेलना पड़ा। जनता ने उसे आग के हवाले कर प्रतिकार किया। इसके बाद सैकड़ों गिरफ्तारियां हुई, कई लोग जेल गए, लेकिन आंदोलन थमा नहीं। यह लोगों के हक-हकूक की ही लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ऐसी मुहिम थी, जिसमें विश्व कल्याण की भावना निहित थी।
चिपको की मुहिम के साथ और भी कई ऐसे नाम जुड़े हैं, जो विश्व पटल में इस आंदोलन से विख्यात हुए। पर्यावरणविद्ï सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ïट, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी, कुंवर प्रसून, बचना देवी और कई लोग जो आज भी चाहते हैं कि फिर से एक चिपको आंदोलन शुरू किए जाने की जरूरत है। इन्हीं लोगों ने पेड़ों पर 'रक्षा सूत्र ’ बांधकर एक नए आंदोलन को जन्म दिया था। जिसमें टिहरी जिले की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
उस वक्त अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो जाती तो पर्वतीय क्षेत्रों में देवदार, कैल, बांज, रुई, मुटिंडा, अखरोट, पांगर, मशरूम, चंद्रा मोतिया और न जाने कितने औषधीय महत्व के पेड़ नष्टï हो चुके होते। हरियाली से लबालब आज के कई पहाड़ हमें किसी विधवा की सूनी मांग से प्रतीत होते।
आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहा है। भविष्य में इसके खतरे पूरी पृथ्वी को लील लेना चाहते हैंं, ऐसे में हमें जरूरत है फिर से एक चिपको आंदोलन की। सामाजिक आंदोलनकारी चंडी प्रसाद भट्ïट, माटू जनकल्याण संगठन के संयोजक विमल भाई, गौरा देवी की प्रमुख साथी रही बाली देवी कहती हैं-आज के समय में जब विभिन्न परियोजनाओं खासकर बड़ी विद्युत परियोजनाओं से जल, जंगल और जमीन को हो रही क्षति के दुष्परिणाम बहुत ही घातक होंगे। हम अल्प समय के लिए मिलने वाली सुविधाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल हमें इसके भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अगर हम आज नहीं चेते तो कल इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

11 comments:

kps gill said...

very good article musan ji. ab to hame paryavaran ke parti jagruk hona hi padega. nahi to after 10-20 year hum bahut sari disease se ghir jayenge.

Randhir Singh Suman said...

nice

JainMandirGautampuri said...

Very Nice Actile.. ye mere School Project k liye bhot kaam iya he. apka bht bht dhanyawad..

Thankx,
himrits
himanshu jain,
himashujain171@gmail.com

himrits said...

Its Very Nice Blog about chipko Andolan and very Knowledgeable as well..

rajjethva said...

nice

rajjethva said...

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Unknown said...

Wow lets save trees

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Unknown said...

save tree save lyfe