Thursday, 31 July 2008

अरविंद की शोक सभा में उनके अधूरे कामों को पूरा करने का संकल्प लिया

'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान' की स्थापना की घोषणा
नई दिल्ली, 31 जुलाई। 'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक और नौजवान भारत सभा के संयोजक का. अरविंद की शोकसभा में सभा में मौजूद सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, बुध्दिजीवियों तथा मजदूर कार्यकर्ताओं ने अरविंद के अधूरे कामों को आगे बढ़ाने और उनके निधन के शोक को शक्ति के इस्पात में ढालने का संकल्प लिया। इस अवसर पर 'अरविंद स्मृति न्यास' और 'अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान' की स्थापना की घोषणा की।
कल शाम यहां अंबेडकर भवन में हुई सभा की शुरुआत अरविंद की जीवनसाथी और राजनीतिक कार्यकर्ता मीनाक्षी द्वारा उनकी तस्वीर पर माल्यार्पण के साथ हुई। सभा का संचालन कर रहे सत्यम ने उपस्थित जनसमूह को 24 जुलाई को गोरखपुर में अरविंद की आकस्मिक मृत्यु की परिस्थितियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि आज जैसे कठिन दौर में सामाजिक बदलाव की लड़ाई के लिए काम करते हुए चुपचाप अपनी जिंदगी को इस तरह होम कर देना किसी शहादत से कम नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने अरविंद के व्यक्तित्व और उनके कामों को याद करते हुए कहा कि अरविंद एक जिंदादिल इंसान थे और मज़दूरों तथा युवाओं को संगठित करने के साथ-साथ दिल्ली के तमाम सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी उनकी शिरकत बनी रहती थी। अरविंद के साथ तमाम मुददों पर उनकी बहसें चलती रहती थी। नए कार्यक्षेत्र की जिम्मेदारी संभालने के लिए दिल्ली से जाते समय वे एक अधूरी बहस को पूरा करने का वायदा करके गए थे लेकिन फिर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।
नेपाली जनधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद दायित्वबोध के संपादन के साथ ही बिगुल अखबार के प्रकाशन-मुद्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और इन दोनों पत्र-पत्रिकाओं में नेपाल के जनांदोलन के बारे में उनके लेखों ने, नेपाल के क्रान्तिकारियों को मार्क्‍सवाद की समझ विकसित करने में और सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल की कम्युनस्टि पार्टी माओवादी इसके लिए उनकी आभारी रहेगी। आने वाले समय में कॉ. अरविंद के अधूरे कामों को पूरा करते हुए, उतनी ही दृढ़ता और जीवंतता के साथ सामाजिक बदलाव की लड़ाई जारी रखनी होगी।
इस अवसर पर कवयित्री और राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष कात्यायनी ने अपने साथी अरविंद को याद करते हुए ने कहा कि अरविंद स्मृति न्यास और अरविंद मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान के जरिए सामाजिक परिवर्तन के उन वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों को आगे बढ़ाया जाएगा जिनके लिए अरविंद निरंतर प्रयासरत थे। उन्होंने कहा कि अरविंद हमारे बीच नहीं रहे इसका अहसास कर पाना मुश्किल हो रहा है, लेकिन हमें इस शोक से उबर कर अरविंद के अधूरे कामों, योजनाओं को पूरा करना ही होगा और यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नेपाली जनाधिकार मंच के लक्ष्मण पंत ने कहा कि कॉ. अरविंद के संपादन में 'दायित्वबोध' पत्रिका और 'बिगुल' अखबार में प्रकाशित होने वाली गंभीर वैचारिक सामग्री ने नेपाल के क्रांतिकारी आंदोलन के सैद्धांतिक-व्यावहारिक प्रश्नों को हल करने में काफी मदद की। नेपाल के क्रांतिकारी उन्हें हमेशा एक सच्चे अंतरराष्ट्रीयतावादी के रूप में याद रखेंगे।
वरिष्ठ स्तंभकार सुभाष गाताड़े ने वाराणसी में अपने छात्र जीवन के दौर से अरविंद के साथ काम करने के अनुभवों को याद करते हुए कहा कि वे अपने लक्ष्य और उसूलों के प्रति दिलोजान से समर्पित थे।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि कॉ. अरविंद में एक बड़े नेतृत्व की संभावना दिखती थी। इसके बावजूद उनकी सरलता ने मुझे प्रभावित किया। हर बार उनसे मिलने पर एक नया भरोसा पैदा होता था। नए समाज के निर्माण के संघर्ष में उनकी समझ एवं दृढ़ता हमारे साथ रहेगी।
साहित्यकार रामकुमार कृषक ने कहा कि जिस दौर में दुनियाभर में समाजवाद के अंत और समाजवादी राज्य के विघटन का हल्ला हो रहा था उस दौर में भी अरविंद अपने विचारों और कर्मों पर दृढ़ थे। वे संस्कृति और साहित्य को सामाजिक बदलाव का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र मानते थे। उन्होंने कहा कि अरविंद की सहजता और सरलता से उनकी बौद्धिक क्षमता का पता नहीं चलता था।
दिशा छात्र संगठन के अभिनव ने कहा कि अरविंद ने व्यापक मेहनतकश आबादी की जीवन परिस्थितियों की बेहतरी के अलावा जीवन में कभी किसी अन्य चीज की परवाह नहीं की। तृणमूल स्तर के सांगठनिक और आंदोलनात्मक कामों के साथ-साथ वे पत्र-पत्रिकाओं में लेखन-संपादन की जिम्मेदारी संभालने तथा देश के विभिन्न हिस्सों में संगोष्ठियों में भागीदारी तथा विचार-विमर्श का काम भी अत्यंत कुशलतापूर्वक कर लेते थे।
कपिल स्वामी ने कहा कि अरविंद जहां भी जाते थे युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी कर लेते थे तथा बड़ी लगन और सरोकार के साथ उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करते थे। अंतिम समय तक उन्हें अपने साथियों की चिंता थी।
एआईपीआरएफ के अंजनी ने अरविंद को जनता के एक सच्चे हितैषी तथा पूरी निष्ठा के साथ सामाजिक परिवर्तन की मुहिम के प्रति समर्पित थे।
मज़दूर कार्यकर्ता राजेन्द्र पासवान ने कहा कि अरविंद से ऐसे दौर में संपर्क हुआ, जब मैं आंदोलन के भविष्य को लेकर निराशा से गुज़र रहा था, लेकिन उन्होंने मुझमें नया उत्साह भर दिया। जब कभी हमारे पैर डगमगाएंगे तो हम अरविंद को याद करेंगे।
सभा में एआईएफटीयू के पी.के. शाही, हमारी सोच पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कवि आलोक धन्वा, नीलाभ, असद ज़ैदी, निशांत नाटय मंच के शम्सुल इस्लाम, यूएनआई इंप्लाइज फेडरेशन के महासचिव सी.पी. झा, समाजवादी जन परिषद के अफलातून, वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र कुमार, अनुराग ट्रस्ट की अध्यक्ष कमला पाण्डेय तथा काठमांडू स्थित पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता मैरी डीशेन ने इस अवसर पर भेजे अपने संदेशों में अरविंद को याद किया।
विहान सांस्कृतिक मंच ने ''कारवां बढ़ता रहेगा...'' गीत के साथ अरविंद को श्रद्धांजलि दी।
इस अवसर पर दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, दिल्ली जनवादी अधिकार मंच, पीयूडीआर, प्रगतिशील महिला संगठन, एआईपीआरएफ, मेहनतकश मजदूर मोर्चा, सिलाई मजदूर समिति सहित विभिन्न जनसंगठनों के कार्यकर्ता, शिक्षक, लेखक, पत्रकार आदि उपस्थित थे।

घर के सपनों पर कुठाराघात

बढ़ती महंगाई से तो सभी त्रस्त हैं लेकिन इस महंगाई ने उन लोगों को बहुत गहरे घाव दिए हैं जिन्होंने बैंक से लोन लेकर अपना आशियाना होने का सपना पूरा किया है। महंगाई सरकार की कुप्रबंधन नीति का परिणाम हो सकती है लेकिन इसकी मार बैंक से कर्ज लेने वालों को अधिक पड़ रही है। एक तरफ बाजार में उनकी जेब खाली हो रही है तो दूसरी ओर बैंक की किस्तें भारी होती जा रही हैं। सवाल उठता है कि इसमें बैंक से कर्ज लेने वालों का या कसूर है? सरकार या इसके अलावा और कोई उपाय नहीं कर सकती?
मंगलवार को एक बार फिर रिजर्व बैंक ने पहले से ऊंची ब्याज दरों से त्रस्त कर्जदारों पर एक और चोट की है। मुद्रास्फीति (महंगाई) पर काबू पाने के दबाव में केंद्रीय बैंक ने मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा करते हुए रेपो रेट ०.५० फीसदी और सीआरआर ०.२५ फीसदी तक बढ़ाकर ९-९ फीसदी कर दी। इससे होम लोन, ऑटो लोन, पर्सनल लोन और अन्य कर्जे एक फीसदी तक महंगे हो जाने का अंदेशा है। इस फैसले से कुछ होम लोन की ईएमआई में २० फीसदी तक की बढ़ोतरी होने का अनुमान है।
रिजर्व बैंक इस साल सीआरआर में चार बार और रेपो रेट में तीन बार बढ़ोतरी कर चुका है। ३० अगस्त से लागू होने वाली नई दरों से बैंकिंग सिस्टम में ८००० करोड़ रुपये कम हो जाएंगे, नतीजे में कर्ज देने की रफ्तार सुस्त पड़ जाएगी। हालात इतने विकट हैं कि मौद्रिक नियामक निकाय को विकास दर अनुमानों को ८-८.५ फीसदी से घटाकर ८ फीसदी तक लाना पड़ा तो मुद्रास्फीति की दर की सीमा ५.५ से बढ़ाकर ७ फीसदी तय करने पर मजबूर होना पड़ा है। विशेषज्ञों का कहना है कि महंगाई से जूझने की कवायद के तहत अगली समीक्षा में रिजर्व बैंक और कर्ज और महंगे कर सकता है।
इस समय निजी बैंक कर्ज की राशि और अवधि के मुताबिक १४.७५ फीसदी तक ब्याज वसूल रहे हैं। बैंकरों का कहना है कि कर्ज की दरों में आधा से एक फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है। मान लीजिए कि ब्याज में एक फीसदी की वृदि्ध होती है तो २० साल के होमलोन की ईएमआई में हर लाख पर ७५ रुपये तक बढ़ जाएंगे। २० साल की अवधि के लिए २० लाख रुपये का होम लोन लिया है तो एक फीसदी ब्याज बढ़ने की सूरत में आपकी मासिक किस्त १५०० रुपये और कुल देनदारी ३,६०,००० रुपये तक बढ़ जाएगी।
फ्लोटिंग लोन रेट इस समय ९.७५ फीसदी से लेकर १२.५ फीसदी के बीच चल रहे हैं और फि स रेट लोन पर ब्याज ११.२५ से १४.७५ फीसदी तक है। इस समय सबसे महंगी ब्याज दर वाले होम लोन में मौजूदा दर पर ईएमआई इस समय ११३७ रुपये प्रति लाख पड़ती है। एक फीसदी बढ़ोतरी पर यह किस्त १२०८ रुपये प्रति लाख की हो जाएगी। इसी तरह सबसे ऊंची ब्याज दर वाले २० साल के फि स रेट होम लोन की ईएमआई प्रति लाख १२९९ रुपये की है जो बढ़कर १३७३ रुपये हो जाने वाली है।

ईदगाह के हामिद पर भारी हैरी पॉटर

बाजारवाद के दौर में कई मील पीछे रह गया साधारण आदमी के मूल्यों का झंडाबदार
-patik awasthi-

आम आदमी के साहित्य केचितेरे प्रेेमचंद्र की एक और जयंती ३१ जुलाई को है। अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीय समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रण करने वाले लमही केइस सपूत की विचारधारा आज के समय कितनी प्रासंगिक है। यह बहस का मुद् दा है। 'ईदगाह` जो एक समय सभी प्राइमरी स्कूलों पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा थी और आज भी लोगों के जेहन में है या 'नमक का दोरागा` का वह ईमानदार चरित्र और इसकेअतिरि त और न जाने कितनी कालजयी कृतियां के माध्यम से मुंशी जी उस समय के समाज का खाका खींचने की कोशिश की। आज के मोबाइल युग में जीने वाली युवा पीढ़ी शायद ही प्रेमचंद का नाम जानती हो, ज्यादा दिन नहीं हुए जब हैरी पॉटर नाम की किताब के नए संस्करण के इंतजार में बच्चों ने अपने अभिभावकों के साथ पुरी रात दुकानों के बाहर गुजारी थी। प्रेमचंद की द्वारा रचे गए चरित्र वास्तव में कपोल कल्पना नहीं थे बल्कि तत्कालीन समय के समाज से उठाए गए वास्तविक लोग थे। चाहे पुस की रात का 'हल्कू` हो या गोदान का 'होरी और गोबर` का कहीं ने कहीं ये चरित्र आज भी भारतीय समाज के अभिन्न हिस्सा हैं। आज भारतीय मध्यमवर्ग जिन समस्याआेंं से जूझ रहा है। प्रेमचंद केसाहित्य का रूप कहीं न कहीं उससे पूरी तरह इत्तेफाक रखता है। महंगाई, जातिवाद, ब्याजखोरी और न जाने कितनी समस्याआें का केन्द्र रहा प्रेमचंद का साहित्य आज बदले हुए रूप में भारत के मध्यम वर्ग के सामने खड़ा है। जनता उन्हीं सब समस्याआें का सामना कर रही है जिसका चित्रण प्रेमचंद ने अपनी कृ तियों में किया है है। दूर जाने की जरूरत नहीं है टेलीविजन पर आज कल प्रसारित होने वाले विज्ञापन में प्रेमचंद की प्रसिद्ध ईदगाह कहानी पर आधारित विज्ञापन में एक बच्चा अपनी मां के लिए केबिल तार से बने चिमटे का प्रयोग करता है। बताने की जरूरत नहीं की आज के स्वार्थी समाज ने बाजारवाद के दौर में चुपके से प्रेमचंद का भी बाजारीकरण भी कर दिया और हम उस कलात्कता के लिए विज्ञापन निर्माता की प्रशंसा करते रह गए। बस यही शुरू हो जाता है प्रेमचंद के साहित्य का प्रयोग। प्रेमचंद ने उस मिट् टी की खुशबू लोगों तक पहुंचाई जिसको वे मां का दर्जा देते थे पर आज उस मां की बात छोड़िए वास्तविक मां को ही वो सम्मान नहीं मिलता जिसकी वह हकदार होती है। प्रेमचंद जीवन के उस प्रत्येक पहलु पर प्रहार किया है। जो जीवन की छोटी-छोटी खुशियों के लिए उत्तरदायी होते हैं। शायद ही लोगों को अब 'बड़े भाई साहब` कहानी याद होगी। जिसमें भाईयों के बीच चलते असली दंद्वों को दिखाया गया था। ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद के साहित्य को आम लोगों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की गई है, अभी ज्यादा दिन नहीं बीते कुछ वर्ष पहले भारत सरकार ने प्रेमचंद की जन्मशती पर दूरदर्शन के माध्यम से मशहूर फिल्मकार गुलजार द्वारा निर्मित कुद काहानियों के संग्रह पर धारावाहिकों का निर्माण किया था । आशा के अनुरूप गुलजार ने अपने बेहतरीन काम से प्रेमचंद की कहानियों को जीवंत रूप प्रदान किया था। लेकिन विश्वास मानिए आज के दौर के केबिल टीवी युग में दूरदर्शन कौन देखता है या फिर बच्चे या देखते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। पिछले वर्ष ठीक इसी समय अखबारों में बनारस से खबरें आई थी कि प्रेमचंद के जन्मस्थली लमही में याद में प्रस्तावित स्मारक सरकारी उदासीनता का शिकार हो गया। भारत जैसे देश में इस तरह की घटनाएं सामान्य हैं मगर हम प्रेमचंद की विचारधारा को राजनीति के हवाले नहीं छाे़ड सकते हैं। अगर हम वास्तविकता में अपनी धरोहर को संभालना चाहते हैं तो प्रेमचंद जयंती पर सिर्फ दिखावा नहीं करना होगा बल्कि मुंशी प्रेेमचंद के साहित्य को लोगों के बीच ले जाकर उसके मूल को समझाना होगा । या जिम्मेदार राजनैतिक दलों से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि वहियात मुद् दों पर सड़क से लेकर संसद तक जाम करने दिया जाता है लेकिन प्रेमचंद का साहित्य स्कूली किताबों से गायब होता जा रहा है इस बात को कभी मुद् दा बनाया है। विशेष रूप से आने वाली पीढ़ी को यह बताने की आवश्यकता है कि भारतीय समाज की जटिल संरचना के पीछे उन्हीं जीवन मूल्यों की अहम भूमिका है जिसका पालन मुंशी जी ने जीवन भर अपनी लेखनी के माध्यम से किया। भारतीय हिन्दी साहित्य को जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाने का श्रेय काफी हद तक प्रेमचंद को जाता है। हर वर्ष की भांति प्रेमचंद की एक ओर जयंती की तैयारी पूरे देश मेंं मनाए जाने की तैयारी चल रही होगी। इस उत्साह केकोई मायने तब तक नहीं है जब तक आज के बच्चों को प्रेेमचंद के साहित्य के बारे में बताया जा सके। हैरी पॉटर पढ़ने में भी कोई खराबी नहीं है लेकिन हकीकत यह है कि आज हम प्रेमचंद को पूरी तरह से भूल चुके हैं। उनका लिखा साहित्य अमूल्य धरोहर है लेकिन उनके साहित्य के मूल उद् देश्य को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक पहंुचाने की जिम्मेदारी हमारी भी बनती है। तभी हम सही मायने में प्रेमचंद का उचित सम्मान दे पाएंगे।

Wednesday, 30 July 2008

पत्रकार बनाना तो एक सर दर्द है,पर उससे बड़ा सरदर्द है 'पत्रकार बने रहना'

आज कल पत्रकार बनने की होड़ लगी हुई है, और लोगो की इस अभिलाषा को पूरा करने पत्रकारिता के कालेज कुकुरमुत्तों की तरह खुल गए हैं,आइये पत्रकार और पत्रकारिता में भविष्य के सुनहरी संभावनाओ को तलाशें॥


पत्रकार कौन होते हैं?..वे लोग जिनकी गाड़ियों पे 'प्रेस' लिखा होता है,वे इस ख़ुशफ़ेहमी(और ग़लतफहमी) में रहते हैं की वे बड़े क्रियेटिव हैं और पूरे समाज के 'सुधार का ठेका' उनके कंधों पे है, और जब कंधे दुखने लगते हैं तो वे शराब के ठेकों पर नज़र आते हैं। पत्रकार बनने की पहली शर्त है,आपको चिकेट चाय और गालियाँ पकाना और पचाना आना चाहिए। आप में योग्यता का 'य' अथवा क़ाबलियत का 'क' न हो किंतु आपके पास 'बड़े-बड़े सोर्से' होना आती आवश्यक है। अगर आप एनजीओ से (NGO) जुड़ें हों तो लोग आपको सुनहरे पंखों वाला पत्रकार समझेंग।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और इलेक्ट्रों में काफ़ी समानता होती है दोनों में ऋण आवेश होता है । अच्छे-अच्छे प्रोटान यहाँ इलेक्ट्रों ,नहीं तो न्योट्रांन में तब्दील हो गये. मीडिया में जो प्रोटॉन दिखते हैं सुकचम अध्ययन में वो भी नही हैं।
सो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुनहर भविष्ट संजाओने वालों का भगवान ही मालिक। आप भले पॉलिटिक्स की बारीक समझ रखते हों,अरुणाचल प्रदेश के कृषी मंत्री तक का नाम जानते हो ,पर भूत-पिशाच पर रिपोर्ट देने को तैयार रहें।
ग़लती से भी किसी स्टिंग ऑपरेशन टीम का हिस्सा न बनें,यहा मेहनत कोई करता है क्रेडिट कोई और लूटता है।
वैसे स्टिंग ऑपरेशन दिखाने के हज़ार और न दिखाने के लाखों मिलते हैं ,पर आपको मेहनताना वही दिया जाएगा,
मतलब आपकी इमानदारी और बेईमानी का मूल्य बराबर हुआ।

इंग्लीश प्रिंट मीडिया को अपना भविष्य बनाने वाले लोग ख़ुशकिस्मत है..वो इतना कमा सकते हैं की अपने मोबाइल रीचार्ज करा सकें और महीने की शुरुआती दिनों में अपने गाड़ियों में पेट्रोल भरवा सकें,
इसलिए इनमे 'पत्रकारिता का कीड़ा' काफ़ी वक़्त तक ज़िंदा रहता है।
हिंदी प्रिंट मीडिया में नये लोगों को 6-7 वरसों तक अपने पूर्वजों के धन पर आश्रित रहना पड़ता है। कुछ विरले ही होते हैं जो तीन अंक के आकड़ों में सॅलरी ,साल भर में कमाने लगते हैं । सामान्यता सालों तक लोग मुफ़्त में काम करते हैं अब जब पैसा न कौड़ी तो भाई हिंदी प्रिंट मीडिया में कोई क्यो जाए?..बस लोग जातें हैं 'भोकाल' में .शान से गाड़ी में प्रेस(Press) लिखवाते हैं और भोकाल में बताते हैं हम 'फलाँ समाचार पत्र' के पत्रकार है।
वैसे पत्रकार बनाना तो एक सर दर्द है,पर उससे बड़ा सरदर्द है 'पत्रकार बने रहना' ।

आप में राईटिंग स्किल्स है तो एसा नहीं आप कुछ भी लिख सकते हैं?यहाँ एसी-एसी स्क्रिप्ट लिखने को मिलेगी आप लिखना भूल सकते हैं और हाँ अपनी क़ाबलियत का ढिंढोरा न पीतें ,आप काम के अतरिक्त बोझ के साथ साथ अपने सह पत्रकारों के आँखों की किरकिरी बन जायंगे. और इतने काबिल न दिखिए कि आपका सीनियर बेवकूफ़ लगाने लगे . अगर आपको मीडिया का हिस्सा बने रहना है तो ये जानते और मानते हुए कि आपका सीनियर बेवकूफ़ है उसपे ये बात ज़ाहिर न करें उनकी प्रशंसा के पुल बाँध दें .
सीनियर पत्रकारों से डिबेट,वाद-विवाद करें पर उन्हें ही जितने का मौका दें। अगर एक डिबेट में आपके जीत का सूरज उग गया तो अपके पत्रकारिता का भविष्य अन्धकारमय हो सकता है।
इतना पढ़ाने के बाद अप में पत्रकार बनने या बने रहने कि इच्छा है तो यकीं मानिए आप पत्रकार बन सकते हैं

शुभकामनाओं सहित।

-गौरव

बयान जारी कर दूं 'सर`

नेता जी अपनी पर्सनल कुर्सी पर बैठे संसद में नोटों की गडि् डयां उछालने के बाद हुए घाटे के बारे में सोच ही रहे थे कि इतने में सेके्रटरी ने आकार बताया। सर! फंला-फंला राज्यों में बम धमाके हो गए। बयान जारी करना चाहिए। लेकिन, नेता जी इससे भी जरूरी मसले पर मंथन करने में मशगूल थे। वे सोच रहे थे, इस बार तो तीन सिरफिरे सांसदों ने संसद में नोटों की गडि् डयां उछाल कर पूरा खेल ही खत्म कर दिया। मेरी तो २५ कराे़ड में डीलिंग लगभग तय हो चुकी थी। पर, कमबख्तों ने ऐन मौके पर खेल बिगाड़ दिया। अब पिछले साढ़े चार सालों में इमेज भी कुछ ऐसी बनी है, अगले चुनाव में पहले तो टिकट मिलेगा नहीं और अगर मिल भी गया तो जनता मुझे घास डालेगी नहीं। लगे हाथ जाते-जाते कुछ कमाई हो जाती तो अगले कुछ साल आराम से कट जाते। इतने में सेके्रटरी ने फिर नेता जी को संबोधित किया। सर आपने कुछ बताया नहीं, या करना है? नेता जी ने भी मुंह में भरे मसाले की पिचकारी टेबल के नीचे रखे पीपदान में मारी और सेके्रटरी को घूरने वाली नजरों से देखते हुए कहा। जितनी देर तुमने मेरा दिमाग खाया है, इतनी देर अगर तुम पुराना जारी किया बयान ढूंढने में लगाते तो वह अब तक अखबार के दफ्तरों में पहुंच भी जाता। या तुम्हें पता नहीं इस देश में बम फटना अब आम बात हो गई। प्रेस वाले भी बिना विज्ञप्ति पहुंचाए ऐसे मौकों पर खुद-ब-खुद ही हमारी ओर से बयान जारी कर देते हैं। फिर तुम तो कई सालों इस 'जीव` के साथ काम कर रहे हो। बेटा शियासत के बाजार में जनतंत्र, लोकतंत्र और प्रजातंत्र के बाद अब नया उत्पाद आया है 'नोटतंत्र`। मुझे इस नए विज्ञान के बारे में सोचने दो। बम-वम तो फटते रहते हैं। आज न सही कल बयान जारी कर देंगे। वैसे भी इस काम में हमारी बिरादरी के अन्य जीव बहुत तेज हैं, अब तक वे सारा काम कर चुके होंगे। उन्हें पता है कि देश में ये काम कौन लोग कर रहे हैं। वह उनको राजनैतिक भाषा में अब तक गाली भी दे चुके होंगे, आंसू भी बहा लिए होंगे, संवेदना....बगैरा-बगैरा सबकुछ कर चुके होंगे। अब तुम बम-वम की बात छाे़डो और ये सोचो आने वाले चुनाव में किस पार्टी की गोद में बैठना है। वैसे भी विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि मुझे पार्टी लाल कार्ड दिखाने जा रही है। इस बात की चिंता करो कि मैं फिर से सांसद बनकर कैसे नोटतंत्र का चिंतन करूं। इतना सुनने के बाद भी जब सेके्रटरी वहीं खड़ा रहा तो नेता जी ने सोचा बच्चे को थाे़डा और ज्ञान दे ही दिया जाए। नेता जी बोले, हम भारतीय हैं। अहिंसा परम धर्मम् । हम अमेरिका जैसा अधर्म वाला काम नहीं कर सकते। उसके यहां दो धमाके या हुए। उसने दुनिया के न शे में दो देशों का तख्ता ही पलट दिया। हम गांधी जी के देश में रहते हैं, पहले एक राज्य में बम फाे़डा अब दूसरे में कल तीसरे में...। या फर्क पड़ता है। हम सौ कराे़ड की आबादी पार कर चुके हैं। थाे़डा बहुत कम हो भी जाएं तो या हुआ। चिंता इस बात की करो कि राजनीति की इस बिसात में अब कौन सी गोटी चली जाए, ताकि मैं फिर से सांसद बन जाऊं और देशकाल के चिंतन में डूब जाऊं।

Monday, 28 July 2008

उदासीन और लापरवाह मानसिकता से बाहर निकलना होगा

पिछले कई महीनों से पंजाब से लेकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश में रेलवे स्टेेशन और धार्मिक स्थल उड़ाने की धमकी भरे पत्र मिलते रहे हैं। एक-दो बार इन पत्रों को गंभीरता से लिया गया लेकिन जब कोई वारदात नहीं हुई तो ऐसे पत्रों को गंभीरता से नहीं लिया जाने लगा। माना जाने लगा तो कि यह तो रोज का काम हो गया है। लेकिन आतंकी हमारी इसी मानसिकता का लाभ उठाते हैं। आज यदि देश में धमाके दर धमाके हो रहे हैं और हमारी सरकार, प्रशासन व समाज असहाय से दिखाई दे रहा है तो इसके पीछे हमारी यही मानसिकता है। हमारी लापरवाह संस्कृति हमारे लिए घातक सिद्ध होती जा रही है। लेकिन हम हैं कि इससे कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। सजगता और सतर्कता न तो हमारे समाज में रह गई है और न ही पुलिस प्रशासन और खुफिया एजेंसियों में। यही कारण है कि नापाक इरादे वाले आतंकी जहां चाहते हैं और जब चाहते हैं धमाके कर देते हैं।
पिछले कई धमाकों के बाद उसमें संलिप्त लोग पकड़े नहीं गए। जिससे यह साबित होता है कि हमारा खुफिया तंत्र और प्रशासन बुरी तरह से नाकारा हो गया है। विस्फोट करने वालों को तो छोड़िए धमकी भरे पत्र लिखने वालों तक को हमारी पुलिस नहीं पकड़ पाई है। ऐसे में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि हम सुरक्षित हैं?
कहीं पर बम धमाके होते हैं तो तुरंत राजनीति शुरू हो जाती है। कहा जाता है कि हमारे देश में आतंकवाद से लड़ने के लिए कड़ा कानून नहीं है इसलिए आतंकी वारदातें हो रही हैं। सवाल उठता है कि जो कानून है उसके तहत तो आप कार्रवाई करें। यदि उसी के तहत सजग और सतर्क रहें तो ऐेसे कानून की जरूरत नहीं पड़ेगी जिसका अधिकतर दुरुपयोग ही होता है। लेकिन इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया जाता। राजनेता बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। समय आ गया है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए आम जनता को ही सजग होना पड़ेगा। उसे सतर्क और चौकस रहना पड़ेगा तभी उसकी सुरक्षा हो पाएगी। यदि आम जनता चौकस रहने लगी तो समाज में होने वाली संदिग्ध गतिविधियों पर लगाम लग जाएगी और सुरक्षा एजेंसियों की मजबूरी हो जाएगी कि वह सजग रहें और समय पर कार्रवाई करते हुए देश और समाज की रक्षा करें। हमें उदासीन और लापरवाह मानसिकता से बाहर निकलना होगा।

चारो तरफ मचा है हाहाकार


अचानक चीक पुकार, चारों तरफ मचा जब हाहाकार,
बम के धमकों के साथ बुझ गए कितने घरों के चिराग।
मासूम बच्चों के साथ-साथ बाप का सहारा था कोई,
क्या इसी तरह जारी रहेगी देश में आतंक की आग।
न जाने कल किस घर को लील लेगी यह हवा,
कल बंगलुरू तो आज जल उठा अहमदाबाद ।
साप निकल जाने के बाद लकीर पीटने की आदत है पुरानी,
हमेशा से अलापा जा रहा है वहीं सदियों पुराना राग।
रोजाना सुबह अखबारों के पहले पन्ने भी भरते है इससे,
कब तक घरों को चिरागों को लीलती रहेगी आतंक की आग।
सूख जाते है मां-बाप के आंखों के आंसू भी रो-रो कर,
पर नहीं थम रही देश में बहती यह नफरत की बुछार।

Sunday, 27 July 2008

झूलो को तरसता सावन


सावन के झूले पड़े तुम चले आयो...,। गीतों के जरिए जिंदा सावन की मस्ती का माहौल अब सिर्फ जहन का हिस्सा बन कर रह गया है। अब न तो मस्ती का वो माहौल नजर आता है और न ही अब वह युवाओं में उत्साह। तेज रफ्तार जीवन में लोग खुद में खोए हुए है? कब सावन आया,, कब चला गया। इसकी चिंता करने का समय ही किस के पास है। गांव के वह नजारे आज भी खुद को तरोताजा कर जाते है कि कम से कम किसी बहाने के सभी मिलकर आपस में कुछ समय साथ मिलकर वक्त बीताते थे। सावन के झूलों के नजारों को देखने और उनका आनंद उठाने से वंचित होते हम लोग खुद इसका सबसे बड़ा कारण बन चुके है। अब तो पेड़ नजर नहीं आते, झूलों डाले भी तो कहां। कल अचानक मेरी नजर उन बच्चों पर गई तो सड़क के किनारे लगे उस पेड़ पर टायर का झूला बना कर झूलने पर मस्त थे। उनकी मस्ती को देख कर सावन का ख्याल आ गया । अचानक मन वहीं तस्वीर उभरने लगी। जब हम छुट्टियां बीताने के लिए अपनी दादा-दादी के पास गांव मे जाते थे। पेड़ों पर मोटी रस्सी से झूला डाल कर दिन भर सब ने मिल कर मस्ती करनी। फिर दादी से बताना कि सावन में किस तरह सभी मिलकर पेड़ों के नीचे बैठ कर ञिंजन सजाते थे। कभी-कभी बारिश ही रिमझिम के बीच मिल कर गिद्दा डालती थी। आज लगता है कि दादा-दादी का दौर के साथ ही सावन भी खत्म हो रहा है। मन में एक सवाल बार-बार उभर रहा है कि क्या सावन में झूलों का मजा लेने के लिए हम इसी तरह तरसते रहेंगे। कभी-कभी लगता है कि दादा-दादी के जमाने से हग अब इतना तो जानते है कि सावन में झूला झूलने का क्या महत्व है, लेकिन अगर व्यस्त जीवन की रफ्तार में हम इसी तरह भागते रहे तो आने वाली पीढी़ शायद इससे भी वंचित हो जाएगी। खत्म होती हरियाली के चलते ही आज हम सावन की बारिश का मजा लेने के लिए भी खुद को लाचार मानते है। शहरो में तो पेड़ इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे है, पर अब गांव भी पेड़ों को तेजी से कटा जा रहा है। साइंसटिस्ट चाहे इसे ग्लोबल वार्मिंग कहते है, लेकिन हम सब भली भांति जानते है कि खत्म होते जंगल और हरे भरे पेड़ों की बलि देने का नतीजा क्या हो रहा है। भारतीय परंपरा का हिस्सा हमेशा से मौसम बना रहा है। चाहे फागुन का स्वागत हो या फिर सर्द ऋतु की विदाई। सावन का स्वागत तो हर राज्य में अपने तरीके से होता रहा है। पर अब मौसम का स्वागत करनेका समय तो नहीं उसका आनंद भी लेना नहीं चाहते लोग।

इस बात से मैं तुमसे नाराज हूं सानिया

दूसरे लोगों की तरह मैं भी सानिया मिर्जा का बहुत बड़ा फैन हूं। टेनिस के बारे में बहुत ज्यादा तो नहीं जानता, लेकिन इस खेल में पहली बार किसी भारतीय महिला खिलाड़ी ने इतनी ऊंचाई छुइंर् तो वह सानिया ही थी। सानिया की इस कामयाबी के लिए मेरा और सौ कराे़ड भारतीयों का सलाम। लेकिन, एक समय था जब हम हर दिन सानिया केचढ़ते सूरज का देख रहे थे, जबकि पिछले कुछ समय से हैदराबादी बाला लगातार खराब फार्म से जूझ रही है। तमाम विवादों केबाद भी हम सानिया के साथ थे। योंकि हम जानते हैं कि चढ़ते सूरज को देखकर जहां कुछ लोग उसे सलाम करते हैं, वहीं कुछ लोगों के लिए उसकी तेज रोशनी आंख की किरकिरी का कारण भी बन जाती है। खैर ये तो हुई कल की बात।
आज सुबह उठते ही अमर उजाला के ताजा अंक में (26जुलाई) एक समाचार पड़ा। मुख पृष्ठ पर 'सानिया की कोच बन जाएंगी मम्मी` नामक शीर्षक समाचार पढ़कर दुख हुआ। अटपटे से लगने वाले इस शीर्षक का सार यह है कि 12 दिन बाद बीजिंग में शुरू होने वाले ओलंपिक खेलों में भारतीय दल की सूची में कई महत्वपूर्ण व्यि तयों का नाम काटकर सानिया की मम्मी का नाम उनके कोच के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जो सरासर गलत और सानिया की आइडल छवी को धूमिल करने वाला है। जब-जब सानिया के साथ विवाद जु़डे, कुछ कट् रपंथियों को छाे़ड हर भारतीय ने सानिया का साथ दिया। फिर चाहे टेनिस कोट में छोटे कपड़े पहनकर उतरने की बात हो या किसी विज्ञापन की शूटिंग के दौरान खड़ा हुआ बवाल। लेकिन, ताजे विवाद में कम से कम मैं सानिया के साथ नहीं हूं। इस शीर्षक में छिपे सार के बाद विवाद उठना लाजमी है। विवाद केबाद हो सकता है, सूची से सानिया की मम्मी का नाम कट जाए। लेकिन, मुझे हैरत है उन लोगों की सोच पर, जो उच्च पदों पर बैठकर भी ऐसे हास्यास्पद फैसले लेते हैं। या वे लोग जनता को मूर्ख समझते हैं। देश केयुवाआें की प्रेरणा बनी सानिया, या नहीं जानती कि यह गलत है। अगर नहीं जानती तो मैं यही कहना चाहूंगा, सानिया व त केसाथ तुम्हारी उम्र और शोहरत तो बढ़ी है, लेकिन अब तुम्हारी सोच छोटी हो गई।
तमाम शिकवोंं केबाद भी एक भारतीय होने के नाते मैं सानिया को शुभकामनाएं देना चाहूंगा। वह बीजिंग जाए (उसकी मम्मी भी बीजिंग जाए, लेकिन अपना टिकट खरीद कर) और देश केलिए गोल्ड मेडल जीतकर लाए। ताकि मेरी सोच की तरह वह सौ कराे़ड भारतीयों से गर्व से कह सके सानिया डूबते सूरज का नाम नहीं।

Friday, 25 July 2008

बच के रहना रे बाबा

बच के रहना रे बाबा
मुझे दौगले लोगो पर बहुत गुस्सा आता है, जो मुँह पर तो आप के इतने खास बन जाते है कि दुनिया में उन के सिवा आप का कोई दूसरा शुभचिंतक है ही नही। लेकिन वही पीठ के पीछे सब ज्यादा खतरनाक साबित होते है। उन के चेहरे पर शराफत का नकाब अगर उतर जाए तो असली चेहरा सामने आ जाए। ऐसे लोगो को ढूंढ़ने के लिए आप को ज्यादा लंबा रास्ता तय नही करना पड़ेगा बस अपने आस पास नज़र घुमाए नज़र आ जाए के इस तरह के लोग। खास करके कार्यस्थल पर ऐसे लोगों की कमी नही होती। बातों को सुन कर लगता ही नहीं की वह कुछ खास किस्म के प्राणी की केटेगरी में शामिल है। आज कल तो किसी पर भरोसा करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है कि आप से मीठी मीठी बातें करने वाला आप का सच मेँ भला चाहने वाला है कि नहीं। आज कल का जमाना नहीं है कि कोई बिना मतलब के चार मीठी बातें कर ले। हर बात के पीछे कोई न कोई मतलब छिपा होना तय है। ज़माने की हवा का रुख ही ऐसा हो गया है कि आप ख़ुद को ऐसे लोगो से बचा नही सकते। वक्त इतना इंसान को बदल देता है इस का उदारण देने की जरूरत नही रह गई ख़ुद- ब -ख़ुद नज़र आ जाता है। लगता है इस तरह की हवा में अब कहना ग़लत नही होगा कि इंसान वक्त को बदल रहा है। कभी कभी मन करता है की ऐसे लोगों के साथ जैसे को तैसा किया जाए तो कुछ असर हो। पर हम उन के चक्कर में अपनी नेचर को नही बदल सकते।

Wednesday, 16 July 2008

जब मैंने खोली पोल

मैं उस समय दसवीं कक्षा का छात्र था। स्कूल में एक दिन गुरुजी ने बताया कि सरकार ने ग्रामीण अशिक्षित लोगों को शिक्षित करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया है। जो बच्चे इसमें भागीदारी करना चाहें, वे अपना नाम लिखवा सकते हैं। उन्होंने स्कीम की विस्तृत जानकारी दी और साथ ही यह भी बताया कि इस अभियान में सफल भागीदारी करने वाले बच्चों को सरकार द्वारा विशेष तौर पर प्रोत्साहित किया जाएगा। इतना ही नहीं इस काम के लिए पठन सामग्री भी सरकार ही उपलब्ध कराएगी। योजना का खाका अपने दिमाग में बिठा मैंने सबसे पहले अपना नाम लिखवा लिया। मुझे पता था मेरी गांव में खासकर २० से ३० महिलाएं ऐसी थी, जिन्हें अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। सोचा पढ़ाई से अलग कुछ काम है, मजा आएगा और स्कूल में गुरुजी की शाबासी भी मिलेगी। सरकार या प्रोत्साहित करेगी, उस उम्र में इतना सोच पाना शायद मेरी समझ से बाहर था। लेकिन, फिर भी मैं उत्साहित था। अगले ही दिन से मैं काम में लग गया। स्कूल से किताबें, कापियां, स्लेट, ब्लैकबोर्ड और कुछ चार्ट (सभी वस्तुएं किसी भी एक केंद्र को चलाने के लिए ब्लाक स्तर पर उपलब्ध कराई जाती थी) ले आया। गांव में घर-घर जाकर बड़े-बू़ढों का समर्थन हासिल कर करीब २५ महिलाआें को केंद्र में आने के लिए राजी कर लिया। समय भी उनकी सुविधानुसार चुना गया, जब वे शाम को घास-दूध से निपट जाती थी और खाना बनाने में कुछ समय बाकी होता था। उत्साह पूर्वक मैंने केंद्र शुरू कर दिया। इसके बाद करीब चार माह तक अपनी बड़ी बहन के साथ मिलकर मैंने उत्साहपूर्वक केंद्र चलाया और इसके परिणाम भी सकारात्मक रहे। केंद्र में आने वाली लगभग सभी महिलाएं अपना नाम लिखना सिख चुकी थी। इतना ही नहीं कई महिलाआें ने अपेक्षाकृत परिणाम दिए और वे अक्षरों को जाे़डकर पढ़ने भी लगी। दूध का हिसाब कैसे रखा जाता है, बाजार में सामान को मोल भाव कैसे किया जाता है और बच्चों से हिसाब कैसे लिया जाता है, तमाम बुनियादी बातों को मैंने उन्हें सिखाने का प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी हुआ।
ये थी मेरी रुचि की कहानी, जिसने मुझे परम सुख दिया। मैं अपने काम से खुश था। गांव में मुझे इस काम के लिए सभी की शाबासी और इज्जत मिली। लेकिन ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
योजना का पहला चरण खत्म होने के बाद उस दिन ब्लाक ऑफिस में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। जिसमें डीएम से लेकर तमाम प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे। समारोह में योजना में शामिल लोगों और बच्चों के अनुभव साझा किए जाने थे, इसके अतिरि त उन बच्चों को पुरस्कृत किया जाना था, जिन्होंने इस काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सभी लोगों ने मंच पर चढ़कर अपनी बात कही। इसके बाद हमारे स्कूल की बारी आई। मेरी गुरुजी ने मुझे अपनी बात कहने के लिए मंच पर भेज दिया। किसी जलसे में मंच पर चढ़कर माइक पर बोलना मेरे लिए पहला अनुभव था। मेरी टांगे कांप रही थी और माथे पर पसीना आ रहा था। माइक हाथ में लिया तो वह भी कांपने लगा। समझ में नहीं आ रहा था कहां से शुरू करूं। पीछे से किसी ने मेरी स्थिति भांपते हुए तुरंत मुझे एक पानी का गिलास पकड़वा दिया। जिसे मैं एक सांस में पी गया। पानी ने जैसे टॉनिक का काम किया और फिर मैंने बोलना शुरू किया। शुरूआत की भूमिका के बाद मैं रौ में बहता चला गया और बहुत कुछ कह गया। लेकिन बात वहां पर अटक गई, जब मैंने कहा इन पूरे चार महीनों के दौरान कोई अधिकारी या इस योजना से जु़डा कोई व्यि त केंद्र पर झांकने तक नहीं आया। आशय यह था कि सरकार ने तमाम पठन सामग्री तो बांट दी, लेकिन उसका सही इस्तेमाल भी हो रहा है या नहीं इसे देखने वाला कोई नहीं था। तमाम उच्च अधिकारियों के सामने अपनी पोल खुलती देख निचले दर्जें के अधिकारी या शायद कर्मचारी में से कोई बीच में ही बोल उठा 'बेटा हम आए थे, तमाम सेंटर चेक किए जाते थे`। इसी बीच मेरे मुंह से कुछ ऐसा निकला, जिसने व्यवस्था को लेकर मेरे अंदर जमा हुए गुस्से का खुलेआम इजहार कर दिया। ज्वालामुखी फूट पड़ा और मेरे मुंह से निकला 'घंटा आया था कोई`। इसके बाद जो हुआ, वह कुछ अजीब था और कुछ सुखद। अजीब यूं कि पंडाल में बैठे सभी लोग हंसने लगे और मेरे गुरुजनों का सिर झुक गया और सुखद यूं हुआ कि इसके बाद डीएम साहब ने उसी 'घंटे` को केंद्रबिंदु बनाकर उ त योजना से जु़डे सभी लोगों की लंबी-चाै़डी लास ली और मुझे मंच पर सच्चाई रखने के लिए लगे हाथ बधाई भी दे डाली। व्यवस्था को लेकर कच्ची उम्र में उभरे उस रोष का भले ही मैंने मंच पर इजहार कर दिया था, लेकिन यकिन मानिए किसी की पोल खोलना उस व त मेरा मकसद नहीं था।

Wednesday, 9 July 2008

शुक्र है! भईया तो नही है।

धर्मबीर
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जालंधर अमर उजाला डेस्क पर नियुक्त हुए आज तीसरा दिन था। डेस्क के काम का पुर्वानुभव न होने व कुछ तकनीकि बारीकियाँ सीखने के कारण एक अतिरिक्त दबाव दिमाग पर था। हालाँकि समाचार संपादक मृत्युंजय जी की सहजता व अपनापन जो बुद्ध की भूमि से सम्बंध होने के कारण उनकी स्वाभाविक प्रकृति लगती है काफी हौंसला दे रही थी। पूरे ७ घण्टे कम्पयुटर के सामने बैठे-बैठे देह और दिमाग दोनों पस्त हो चुके थे। पेज छुटते ही इन्चार्ज को विदा कहकर मैं सीधा कैन्टीन की तरफ चल दिया। किसी भी संस्थान
कैन्टीन हमेशा ही सुकून देने वाली जगहों में से एक होती है। यहाँ आपको मनपसन्द चाय की चुसकी के साथ-साथ एक-दूसरे से खट्टे मिटठे अनुभव बांटने का मौका भी मिल जाता है। मेरे लिए तो अभी तक सहकर्मियों के साथ परिचय की औपचारिकता भी पूरी नही हुई थी। कैन्टीन पर पहले से ही कुछ सहकर्मी मौजूद थे। चाय का ऑर्डर देकर मैं बोझिल सा कुर्सी पर बैठ गया और दिन में खरीदा समकाल का ताजा अंक खोल कर जर्मनी में फिर से सिर उठा रहे नाजीवाद पर स्टोरी पढ़ने लगा। सामने नाजीवादियों के हमले में घायल तीन भारतीयों की तस्वीर थी जिसमें एक पंजाबी गुरमीत सिंह भी था जो वहाँ रेस्टोरेंट चलाता है। स्टोरी पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने मुम्बई घूम गया जहाँ आजकल उत्तर भारतीयों को खदेड़ा जा रहा है। कितनी समानता है राज ठाकरे और नाजीवाद के नये अवतारों में।
आप नये आये हैं क्या? हिन्दी, पंजाबी के मिश्रित डायलैक्ट वाले इस सम्बोधन ने मुझे जर्मनी और मुम्बई से जालंधर पहुँचाया। मैंने बताया कि अभी दो दिन पहले ही आया हूँ। इस तरह परिचय का सिलसिला निकल पड़ा। हिन्दुस्तान में जाति और इलाका के बिना परिचय अधूरा रहता है। इन्सानी पहचान इन्हीं के ईद-गिर्द सिमट कर रह गई है। मेरा धर्मवीर के आगे कोई शर्मा और वर्मा न लगाना उन्हें थोड़ा अखरा जरूर। तभी एक सज्जन ने पूछा कहाँ से आये हो? जैसे ही मैंने कहा कि हरियाणा से आया हूँ तो महाश्य ने राहत की सांस लेते हुए कहा शुक्र है! भईया तो नही है। तब तक चाय आ चुकी थी। हाथ से कप छुटते-छुटते रह गया। चाय का कप वहीं रख मैं कमरे की तरफ चल दिया। क्या मुम्बई की आग एक दिन पंजाब में सुलग उठेगी। क्या यहाँ बाहर से आए लोगों के साथ भी अरविन्द जोशी ;मुम्बई का एक उत्तर भारतीय प्राध्यापक जिस पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना समर्थक उसके ही छात्रों ने कैम्पस में ही कीचड़ फैंक दिया था, जैसा सलूक होगा। एक अज्ञात से भय ने मन को जकड़ लिया। ध्यान भटकाने के लिए कॉलेज के दिनों में एक साथी द्वारा सुनाई कविता की चंद पंक्तियाँ याद करने लगा, ''ज्यादा सोचना भय को जन्म देता है``। मगर उसी पल अर्न्तमन से एक आवाज आई क्या पलायन मौत का पर्याय नही है।

Saturday, 5 July 2008

धर्म की आड़ में सियासी साजिश

जल उठा जम्मू-कश्मीर। आग और भड़की। जाम और तोड़फोड़। हिंसा की चिनगारी दूसरे प्रदेशों तक पहुंची। देशव्यापी बंद और आंदोलन। मामले पर चढ़ा सांप्रदायिक रंग। कई शहरों में कफ्र्यू। फायरिंग में कई जानें गइंर्। मुद्दा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन आवंटित करने और फिर एक धर्म के लोगों के विरोध के बाद वापस लेने का। किस पक्ष को सही कहें, किसे गलत।
धर्मांधता के इस उबाल में पीछे छूट गइंर् बाबा बर्फानी के भ तों की दुष्वारियां। हजारों किलोमीटर दूर से हजारों रुपये खर्च कर पिछले कुछ दिनों के दौरान जम्मू पहुंचे शिव भ त वहां से आधार शिविर तक जाने-आने में झेली परेशानियों को आजीवन याद रखेंगे। सालों से बुनियादी सुविधाआें को तरसते श्रद्धालुआें को श्राइन बोर्ड की जमीन से कितनी राहत मिल जाएगी, यह समझ से परे है। दूसरी ओर सरकारी जमीन का एक टुकड़ा प्रदेश की एक ऐसी महत्वपूर्ण धार्मिक यात्रा को आवंटित करने, जो प्रदेश के हजारों लोगों की आजीविका से जु़डी है, से किसी को या आपत्ति हो सकती है यह भी एक बड़ा सवाल है।
जिस तरह से आनन-फानन में कई राजनीतिक पार्टियां इस मु े को भुनाने के लिए मैदान में कूदी है, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि धर्म की आड़ में यह एक सियासी साजिश है, जिसका मकसद आम लोगों का ध्यान महंगाई और विकास जैसे बुनियादी मुद्दों से हटाना है। गौर करने वाली बात यह भी है कि जम्मू-कश्मीर में भड़की आग की 'रोशनी` में सीमा पर घुसपैठ की कोशिशें तेज हो गई हैं। आखिर कौन दोषी है इस आग के लिए। जब तक आम लोग धार्मिक चादर में छिपे इंसानियत के ऐसे दुश्मनों को नहीं पहचानेंगे, यह आग ऐसे ही लोगों की जानें लेती रहेगी, कभी जम्मू, कभी श्रीनगर, कभी इंदौर तो कभी आपके शहर में।

राजकाज

राजकाज
राजनीति यानी राज करने की नीति अपने देश में कुछ ऐसी है कि इस मयावी चीज पर नजर रखने वाले बड़े-बड़े विशेषज्ञों का भी सिर चकरा जाए। यहां राज के लिए कब किस पार्टी या नेता की नीति बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ताजा उदाहरण देश में करीब एक साल से चर्चित मुद् दे परमाणु करार को लेकर हो रही उठापठक का है। करार या है? देशहित में कितना कारगर है? और इसकी महत्ता या है? इन प्रश्नों से शायद ही देश की एक बड़ी आबादी वाकिफ हो। लेकिन, यह भी सच है कि करार को लेकर कांग्रेस और वामदलों के बीच पैदा हुई तकरार आखिर उस माे़ड पर आ पहुंची, जहां देश की जनता पर मध्यावधि चुनाव थोपा जा सकता है। तब शायद लोगों को मजबूरन सोचना पड़े कि आखिर यह करार थी या बला? लेकिन, अब राजनितिज्ञों की बदली नीति की बदौलत शायद ऐसी नौबत न आए। चार साल संयु त प्रगतिशील गठबंधन में अछूत रही सपा ने ऐन व त पर कुछ ऐसे संकेत दिए हैं कि सरकार पर लटकी तकरार की तलवार और आम जनता पर थोपे जाने वाले मध्यावधि चुनाव शायद कुछ समय के लिए टल जाएं। चार साल पहले लोकसभा चुनाव में जब सपा को ३९ सींटे मिली थीं, तब माना जा रहा था कि सरकार बनाने की कुंजी सपा के हाथ में होगी। लेकिन, हालात कुछ ऐसे बने कि चुनाव के बाद चौथी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी सपा को पछूने वाला कोई नहीं रहा। लेकिन, अब अचानक सपा यूपीए की तारणहार बन गई है। मुलायम के अमर ने राजनीति की बिसात पर कुछ ऐसी गोटियां बिछाइंर् कि लाल झंडे का रंग भी अब फीका पड़ता दिखाई दे रहा है। पूरे साल करार को लेकर देश में सुर्खियों में रहा लाल रंग आने वाले समय में कितना चोखा होगा, यह तो व त ही बताएगा। लेकिन, सपा के एक सिपहसलार ने इस बार फिर राज की ऐसी नीति चली कि बड़े-बड़े चित हो गए।

Thursday, 3 July 2008

अपनी बात

मैं उन लोगों से सख्त नफरत करता हूं, जो बनावटी दुनिया में जीने में विश्वास रखते हैं, झूठ बोलते हैं और दूसरों की टांग खिंचकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसे लोग अकसर अपनी ही बात से मुकर जाते हैं, उन्हें सिर्फ दूसरों की गलतियां दिखाई देती हैं, अपनी तमाम मूर्खताआें पर वह किसी भोलेपन की चादर में ओढ दूसरों केसामने नासमझी को ढोंग करते हैं। खुद अगर कोई नामसझी करें तो वह उनका भोलापन होता है और दूसरा कोई करे तो वह बड़ी गलती हो जाती है। ऐसे लोगों को जो काम आता है, वह बड़ा काम होता है और जो उन्हें नहीं आता वह सिर्फ काम होता है। या कई बार कुछ होता ही नहीं है। वे तमाम बातें जानते हुए भी दूसरों के सामने नासमझ बनने का नाटक करते हैं और व त आने पर पलटवार करते हैं। ऐसे व्यि तयों की नजर में कोई भी व्यि त तब तक अच्छा होता है, जब तक अमुक व्यि त के जरिए उनके निहित स्वार्थों की पूर्ति होती है।
इन सब बातों के बावजूद मेरा मानना है कि ऐसे व्यि त भले ही दूसरे व्यि तयों को मानसिक तनाव दें, लेकिन वह खुद भी कभी चैन से नहीं रहते। वह हमेशा एक डरा-डरा सा जीवन जीते हैं, परेशान रहते हैं और दुनिया को मूर्ख समझने की मूर्खता कर खुद सबसे बड़े मुर्ख बन रहे होते हैं।
एक मित्र को सलाहऱ्यर्थात में जिओ, अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए उन पर अमल करो, योंकि मैं जनता हूं तुम अंदर से इतने बुरे भी नहीं।

तेल का खेल

सिन्धु झा

ऊर्जा सुरक्षा के नाम पर अभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल का खेल जारी रहेगा। तेल की कीमतें बढ़ने के लिए अमेरिका की खाड़ी राजनीति तो जिम्मेवार है साथ ही तेल को एक हथियार के रूप में भी अमेरिका इस्तेमाल कर रहा है। पश्चिमी देश भारत और चीन जैसे विकासशील देशों के खिलाफ इसका इस्तेमाल कर सकते हैं, ताकि दोनों देश विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़कर चुनौती न दे सकें। जानकारों का कहना है कि विश्व स्तर पर मौजूदा मूल्य वृद्धि भारत और चीन पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा हो सकता है। भारत सालाना १२_कराे़ड टन कच्चे तेल का आयात करता है। लगभग इतना ही चीन भी आयात कर रहा है। इस समय अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रेंच, जर्मन और रूसी कंपनियों का सिंडीकेट कच्चे तेल की कीमतों को तय करते हैं। न्यूयॉर्क_कमोडिटी_ए सचेंज (निमे स)_में कच्चे तेल का वायदा कारोबार होता है, जिसका लाभ बिचौलिये उठाते हैं। सिंडीकेट बाजार में तेल की कमी दिखाने के लिए कम माल खरीदते हैं और उसे ऊंची कीमत में बेचते हैं।
केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा_ने बताया कि तेल के कारोबार में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही सट्टेबाजी की वजह से कीमतें बढ़ रही हैं। जब तक सट्टेबाजी पर अंकुश नहीं लगेगा पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें स्थिर नहीं होंगी। कुछ दिनों पूर्व अमेरिकी कंपनी गोल्डमैन_सै स ने कच्चे तेल की कीमत बढ़कर २००_डॉलर प्रति बैरल हो जाने की जो भविष्यवाणी की उसे भी तेल के खेल का एक सुनियोजित हिस्सा माना जा रहा है। चर्चा है कि तेल सिंडीकेट के सुझाव पर ही गोल्डमैन_ने काल्पनिक बयान दिया था। इस रणनीति को गरीब और विकासशील देशों को तेल के नाम पर डराने की कोशिशों के रूप में देखा जा रहा है। तेल आयातक देशों के लिए सर्वाधिक चिंता की बात अभी तक यह है कि जो भी तेल उत्पादक देश हैं उनकी सरकारें पारदर्शी नहीं हैं। सबसे बड़े तेल उत्पादक देश सऊदी अरब में राजशाही_है, तो लीबिया में तानाशाही है। ईरान में धार्मिक कट्टरपंथ हावी है तो इराक एक विफल राष्ट्र बन चुका है। इन देशों की तेल कंपनियों के साथ पश्चिमी सिंडीकेट का 'अनहोली`_यानी अपवित्र सांठगांठ होना बताया जाता है। सूत्रों के अनुसार मौजूदा स्थिति में भारत और चीन में तेल की जितनी खपत बढ़ेगी उसी आधार पर विश्व बाजार में तेल के दाम भी बढ़ाए जाएंगे। पश्चिमी देशों की पूरी कोशिश और दबाव है कि भारत पेट्रोलियम पदार्थों से सब्सिडी पूरी तरह हटाए।

-साभार अमर उजाला