Saturday, 5 July 2008

राजकाज

राजकाज
राजनीति यानी राज करने की नीति अपने देश में कुछ ऐसी है कि इस मयावी चीज पर नजर रखने वाले बड़े-बड़े विशेषज्ञों का भी सिर चकरा जाए। यहां राज के लिए कब किस पार्टी या नेता की नीति बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ताजा उदाहरण देश में करीब एक साल से चर्चित मुद् दे परमाणु करार को लेकर हो रही उठापठक का है। करार या है? देशहित में कितना कारगर है? और इसकी महत्ता या है? इन प्रश्नों से शायद ही देश की एक बड़ी आबादी वाकिफ हो। लेकिन, यह भी सच है कि करार को लेकर कांग्रेस और वामदलों के बीच पैदा हुई तकरार आखिर उस माे़ड पर आ पहुंची, जहां देश की जनता पर मध्यावधि चुनाव थोपा जा सकता है। तब शायद लोगों को मजबूरन सोचना पड़े कि आखिर यह करार थी या बला? लेकिन, अब राजनितिज्ञों की बदली नीति की बदौलत शायद ऐसी नौबत न आए। चार साल संयु त प्रगतिशील गठबंधन में अछूत रही सपा ने ऐन व त पर कुछ ऐसे संकेत दिए हैं कि सरकार पर लटकी तकरार की तलवार और आम जनता पर थोपे जाने वाले मध्यावधि चुनाव शायद कुछ समय के लिए टल जाएं। चार साल पहले लोकसभा चुनाव में जब सपा को ३९ सींटे मिली थीं, तब माना जा रहा था कि सरकार बनाने की कुंजी सपा के हाथ में होगी। लेकिन, हालात कुछ ऐसे बने कि चुनाव के बाद चौथी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी सपा को पछूने वाला कोई नहीं रहा। लेकिन, अब अचानक सपा यूपीए की तारणहार बन गई है। मुलायम के अमर ने राजनीति की बिसात पर कुछ ऐसी गोटियां बिछाइंर् कि लाल झंडे का रंग भी अब फीका पड़ता दिखाई दे रहा है। पूरे साल करार को लेकर देश में सुर्खियों में रहा लाल रंग आने वाले समय में कितना चोखा होगा, यह तो व त ही बताएगा। लेकिन, सपा के एक सिपहसलार ने इस बार फिर राज की ऐसी नीति चली कि बड़े-बड़े चित हो गए।

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