विनोद मुसान
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गत दिनों मचे सियासी घमासान के बाद रामजी भाई 'गांव वाले` बड़े हैरान-परेशान हैं। उनकी परेशानी का सबब सियासत के अखाड़े में हो रही उठापठक नहीं है। वे इस बात से भी परेशान नहीं हैं कि राजनीति के इस खेल के खिलाड़ी किस कदर मर्यादा को ताक पर रख एक पाले से दूसरे पाले में जा रहे हैं। ...और जहां तक 'नोटतंत्र` (संप्रग सरकार की ताजा उपलब्धि) की बात है, इसे भी वे इतना बुरा नहीं मानते। उनके अनुसार ये विधा तो इस खेल में पूर्व से प्रचलित थी। फर्क सिर्फ इतना है, पहले ये खेल परदे के पीछे खेला जाता था, लेकिन अब टीवी कैमरों की टीआरपी ने इसे दर्शक उपलब्ध करा दिए। रामजी भाई की समस्या इससे भी ज्यादा 'टेि नकल` और देशकाल के साथ खुद उनके भविष्य से जु़डी है।
आप सोच रहे होंगे ये रामजी भाई हैं तो 'गांव वाले` और इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। आखिर ये हैं किस खेत की मूली? तो चलो रामजी भाई की समस्या से पहले उनका संक्षिप्त परिचय ही करा दिया जाए। दरअसल, रामजी भाई गांव के पढ़े-लिखे वे नौजवान हैं, जिन्हें आप और हमारी तरह ही देश के भविष्य की चिंता सताती रहती है। लेकिन, ग्रामीण पृष्ठ भूमि से जु़डे होने के चलते लोग उनकी बातों को उतनी तबज्जो नहीं देते, जितनी उनके अनुसार उन्हें मिलनी चाहिए। ये उनकी दूसरी समस्या है।
अब बात करते हैं मुद् दे की। करार के मुद् दे पर 'हाथ` और 'लाल झंडे` की बीच हुई तकरार आखिर उस माे़ड पर आ पहुंची, जहां बैटिंग कर रहा हाथ आउट होते-होते बचा। इसके बाद तो जैसे लाल झंडे का रंग और सुर्ख हो गया। उसने नया शगूफा छाे़डा और केंद्रीय दरबार की गद् दी में 'गजराज` को बैठाने की बात कह डाली। बड़े-बडे दिग्गजों के कान खड़े हो गए। उन्हें ताउम्र सियासत के खेल का अनुभव छोटा लगने लगा। उनके दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गई। ऐसे में हमारे रामजी भाई 'गांव वाले` का परेशान होना भी लाजमी था। आखिर लोकतांत्रिक देश में चिंतन करने का उनका भी हक है। यह बात दीगर है कि इस देश के लाखों-कराे़डों पढ़े-लिखे अन्य नौजवानों की तरह रामजी भाई भी सिर्फ 'सोचकर` ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं। वे चाहते हुए भी कुछ ऐसा नहीं कर पाते कि 'मायाजाल` में उलझने के बजाए उससे बाहर निकलकर दूसरों के सामने ऐसी युि त पेश करें, जिससे वे खुद की की नैय्या और साथ बैठे दूसरे सहयात्रियों को भी पार लगा सकें।
चलते-चलते बताता चलूं कि सियासतदांजी में पैनी नजर रखने वाले रामजी भाई किसी पार्टी विशेष से ताल्लुक नहीं रखते। उन्हें 'हाथी-घाे़डों` से भी बैर नहीं। न ही वे इस बात की परवाह करते हैं कि 'दरबारे दिल्ली` तक कौन व्यि त 'साइकिल` पर बैठकर आया या 'कार` में या उसके हाथ में किस रंग का झंडा था। उन्हें तो फिक्र है बस इस बात की राजदुलारा 'राज` तो करे, लेकिन उसे 'दुलार` करने वाले समुदाय विशेष के लोग न होकर वे लोग हों, जो कहलाते हैं इस देश के 'आम आदमी`।
Sunday, 31 August 2008
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