धर्मबीर
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जालंधर अमर उजाला डेस्क पर नियुक्त हुए आज तीसरा दिन था। डेस्क के काम का पुर्वानुभव न होने व कुछ तकनीकि बारीकियाँ सीखने के कारण एक अतिरिक्त दबाव दिमाग पर था। हालाँकि समाचार संपादक मृत्युंजय जी की सहजता व अपनापन जो बुद्ध की भूमि से सम्बंध होने के कारण उनकी स्वाभाविक प्रकृति लगती है काफी हौंसला दे रही थी। पूरे ७ घण्टे कम्पयुटर के सामने बैठे-बैठे देह और दिमाग दोनों पस्त हो चुके थे। पेज छुटते ही इन्चार्ज को विदा कहकर मैं सीधा कैन्टीन की तरफ चल दिया। किसी भी संस्थान
कैन्टीन हमेशा ही सुकून देने वाली जगहों में से एक होती है। यहाँ आपको मनपसन्द चाय की चुसकी के साथ-साथ एक-दूसरे से खट्टे मिटठे अनुभव बांटने का मौका भी मिल जाता है। मेरे लिए तो अभी तक सहकर्मियों के साथ परिचय की औपचारिकता भी पूरी नही हुई थी। कैन्टीन पर पहले से ही कुछ सहकर्मी मौजूद थे। चाय का ऑर्डर देकर मैं बोझिल सा कुर्सी पर बैठ गया और दिन में खरीदा समकाल का ताजा अंक खोल कर जर्मनी में फिर से सिर उठा रहे नाजीवाद पर स्टोरी पढ़ने लगा। सामने नाजीवादियों के हमले में घायल तीन भारतीयों की तस्वीर थी जिसमें एक पंजाबी गुरमीत सिंह भी था जो वहाँ रेस्टोरेंट चलाता है। स्टोरी पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने मुम्बई घूम गया जहाँ आजकल उत्तर भारतीयों को खदेड़ा जा रहा है। कितनी समानता है राज ठाकरे और नाजीवाद के नये अवतारों में।
आप नये आये हैं क्या? हिन्दी, पंजाबी के मिश्रित डायलैक्ट वाले इस सम्बोधन ने मुझे जर्मनी और मुम्बई से जालंधर पहुँचाया। मैंने बताया कि अभी दो दिन पहले ही आया हूँ। इस तरह परिचय का सिलसिला निकल पड़ा। हिन्दुस्तान में जाति और इलाका के बिना परिचय अधूरा रहता है। इन्सानी पहचान इन्हीं के ईद-गिर्द सिमट कर रह गई है। मेरा धर्मवीर के आगे कोई शर्मा और वर्मा न लगाना उन्हें थोड़ा अखरा जरूर। तभी एक सज्जन ने पूछा कहाँ से आये हो? जैसे ही मैंने कहा कि हरियाणा से आया हूँ तो महाश्य ने राहत की सांस लेते हुए कहा शुक्र है! भईया तो नही है। तब तक चाय आ चुकी थी। हाथ से कप छुटते-छुटते रह गया। चाय का कप वहीं रख मैं कमरे की तरफ चल दिया। क्या मुम्बई की आग एक दिन पंजाब में सुलग उठेगी। क्या यहाँ बाहर से आए लोगों के साथ भी अरविन्द जोशी ;मुम्बई का एक उत्तर भारतीय प्राध्यापक जिस पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना समर्थक उसके ही छात्रों ने कैम्पस में ही कीचड़ फैंक दिया था, जैसा सलूक होगा। एक अज्ञात से भय ने मन को जकड़ लिया। ध्यान भटकाने के लिए कॉलेज के दिनों में एक साथी द्वारा सुनाई कविता की चंद पंक्तियाँ याद करने लगा, ''ज्यादा सोचना भय को जन्म देता है``। मगर उसी पल अर्न्तमन से एक आवाज आई क्या पलायन मौत का पर्याय नही है।
Wednesday, 9 July 2008
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7 comments:
ek haryanvi ka bihari prem kuchh hajm nahi hua. lagta hai in bhaiyon ko bhaiya banane ki kala bhi aati hai jo ek haryanvi ko bhaiya bana choda. apne haryana ki to sharm karte bhai shahab. kisi ko agla article likhna chahiye " shukar hai haryanvi bhaiya chala gaya"putt jattan de
गल हर जगह होते हैं। उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। जिसकी कोई पहचान ही न हो उस पर तो दया ही आनी चाहिए। उपर जिसने भी टिप्पणी लिखी है वह भी वैसा ही है। अगर उसमें सच कहने की हिम्मत होती तो सबसे पहले वह अपनी पहचान जाहिर करता। मैं चाहता तो इस अभद्र टिप्पणी को हटा देता लेकिन मुझे जवाब देना आता है। मैं भी चाहूं तो प्रलाप करनेवाले बेनामी की घर महिलाओं से जिस्मानी रिश्तों को लेकर गालियों की पूरी डिक्शनरी लिख दूं लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा। क्यों कि भइया का मतलब बड़ा भाई होता है और हम उस फर्ज को निभाना अच्छी तरह से जानते हैं।
sir, hum log jahilon ki tarah gali galoch par nahi utar sakte kyonki
kudrat ne hame tarq ki taqt di hai. us gali ne aapko kitna aahat kiya
hoga main samajh sakta hun. main khud aise samaj me paida hua hun
jise hikarat ke siwa kuchh nahi mila. jo bhi paya lad kar paya hai. is
ladai me hum sath hain.
dhamvir
dharmvir ji& mrityunjay ji main sare punjab ki aur se sharminda hokar mafi mangta hun. bihar walon ne punjab ko bacha liya varna hum punjabi to dollers ke kiye angrejon ki jhutti pattal chatne par utar aaen hain. bihar wale aaj bhi budha ki sanskarti ko bachae hain humne nanak aur guru govind ko bhula. ramandeep
धर्मबीर की बात में दम है कि अपनी बात रखने के लिए हमें तर्क की ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन यह बात उस पर लागू होती है जिनके पास यह ताकत है। जिसके दिमाग में कचरा भरा है वह तो ब्लाग पर भी कचरा ही डालेगा। जिस सज्जन ने बिहारियों को गालियां दी है उसे यह नहीं पता कि उसे भी इससे ज्यादा गालियां दी जा सकती हैं? लेकिन क्या यही सही रास्ता है?
मैं तो नाम से ही बिहारी हूं। पहचान मिलने पर टिप्पणी लिखने वाले पिछवाड़े पर लात भी जमाने की औकात रखता हूं। लेकिन मेरी राय है कि ऐसे लोगों को नजरअंदाज ही किया जाए। क्योंकि यह पंजाब, हरियाणा और बिहार की समस्या नहीं है, यह एक मानसिकता है जो कहीं भी पनप सकती है। वैसे यह हकीकत है कि जो स्थिति पंजाब में ..भैय्यों .. की है, उससे बदतर स्थिति पंजाबियों की विदेशों में हैं।
baki blogs ki tulna me medianarad par hamesha hi rachnao ki gambhirta rahti hai.achha hoga agar medianarad par caste ya race ke sawal par sarthak bahas chalai jae. medianarad se jude logon me iski sambhawna najar aati hai. bihariyon se discrimination bhi ek tarah se racial issue hai.
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