अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो.. इस गीत के बोल एक बेटी की व्यथा को खुद व खुद बयां कर रहे है। कहते है समाज में बेटी के लिए सोच बदली तो है लेकिन कितनी बदलती है यह बहस का मुद्दा है। अगर बेटी के मन की बात शब्दों का रूप ले भी ले तब भी समाज को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आज भी बेटी को जन्म से पहले ही मारने का सिलसिला जारी है। कितने सेमिनार, कांफ्रेस और कैंप लगा कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, लेकिन घंटे आधे घंटे के भाषण में लोगों की सोच पर ज्यादा फर्क नहीं पड रहा। चाहे सरकार ने कानून बना दिए है, लेकिन डाक्टर खुद चंद रूपये के लिए पाप के भागीदार बन रहे है। क्या बेटी सच में मां बाप पर इतना बोझ बनती जा रही है कि उसको जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है। कितने गीतकारों ने अपनी कलम के माध्मम से अजन्मी बेटी के मन की बात को उजागर किया, कितने गायकों ने उसे अपनी सुरीली आवाज में लोगों पर पहुंचाया। फिर भी लोग बेटी को मारने के लिए वह पत्थर के दिल और खून से रंगे डाक्टर के हाथ कंपकपाते नहीं है। बेटियों ने समाज में अपना रूतबा कायम किया है। जिसे पुरूष प्रधान समाज को स्विकार करने में अभी वक्त लगेगा। मेरे इन शब्दों से बुरा लग सकता है, पर सच्चाई यहीं है कि बेटी का खुद की समाज में पहचान बनाना हजम नहीं हो पा रहा। बेटे को तो सभी हक खुद ब खुद दे दिए जाते है, पर बेटी के लिए नजरिया आज भी सदियों पुराना है। बेटा कुछ भी करें सब माफ, बेटी जरा सी गलती कर बैठे तो खान-दान की दुहाई। एक तरह तो कहते है कि बेटे से खानदान का नाम रोशन करता है, फिर सिर्फ बेटियों पर पाबंदियां क्यो? बेटी मायके में है तो हर बात के लिए पिता या भाई से इजाजत जरूरी। बचपन से एक बात परिवार के सदस्य के जुबान पर होती है, जो करना है अपने घर जाकर करना। क्या कहेंगे वो यही सिखाया मां-बाप ने। बेटी अरमानों के साथ ससुराल में कदम रखती है, वहां पर भी उसके लिए अपना घर उसे कहीं नजर नहीं आता। अपनी मर्जी से कुछ कर लिया तो वहीं बात अपने घर क्या ऐसा करती थी। पराए घर की है न इसलिए कुछ पता नहीं इसको। फिर सवाल वहीं कि अपने के बीच रह कर बेटी का अपना घर कौन सा है। चारों तरफ उसके अपने है, पर अपनों की भीड़ में वह खुद को पराया महसूस करती है। आखिर कब बदलेगी बेटी के लिए समाज की धारना। आखिर कब मिलेगा उसे अपने घर का आसरा। मेरी बातें लोगों को पसंद नहीं आएगी, लेकिन क्या कोई बता सकता है बेटी का अपना घर कौन सा है। दोनों परिवार अपने है बेटी के लेकिन बेटी किसी की अपनी क्यों नहीं?
Sunday, 3 August 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो...कई बार अपनी पत्नी के मुंह से जब ये बोल सुनता हूं (वो गाती अच्छा हैं) तो दोनों का गला रूंध जाता है। वजह उस की चाहें घरवालों से हमारे रिश्ते हों या कुछ और भी। लेकिन समाज बदल चुका है और कई जगह ये प्रक्रिया चल रही है। अब लड़कियां भी अपना घर बनाने लगीं है। कई लड़कियों को देखा है जब तक माता-पिता रहे वो उनका भार उठांती रहीं। दुनिया को ठेंगा दिखाकर। लकिन लड़कियों का घर कौन सा है ये जवाब सिर्फ और सिर्फ एक लड़की ही बेहतर बता सकती है। ये हक की बात है मानें तो बहुत कुछ नहीं तो....।
बेटी का घर वही है जो उसने स्वयं बनाया हो। उसे न पति से न पिता से आशा रखनी चाहिए। अपने बूते पर अपने या अपने व अपने पति के साथ मिलकर अपनी सम्पत्ति स्वयं बनानी है उसे जिसपर उसका नाम भी दर्ज हो। तभी वह इस बेघर होने के कष्ट से उभर पाएगी। माता पिता से लेना नहीं है देना है उसे ताकि उसे जो अमरलता का तमगा मिला है उससे छुटकारा मिले। उसे इतना ऊँचा उठना है कि कोई उसे बोझ समझने की गलती न कर सके।
घुघूती बासूती
aap ka kahna thik hai par ye to aap bhi mante honge ki ghar sirf chardiwari se nahi banta. jab beti sab ko apna bnati hai to phir us ko sab apna kio nahi mante.
रजनी जी ब्लागर होने पर आपको लख लख बधाई।
अनिल भारद्वाज, मनीष सिंह, अबरार अहमद
aap ko bi khabar ho gaye blog ki duniya me hmare hone ki anil bahi.
अनिल भारद्वाज, मनीष सिंह, अबरार अहमद to puri teem yha bramad hui h. anil g pazi ko namste, manish takle ko hello aur dono anujo ko....
हमारा एक बेटा है तीन साल का। मेरी धर्मपत्नी नहीं चाहती थी अब कोई और बच्चा हो। लेकिन मैं चाहता था कि घर में एक बेटी आए। आखिर मेरी पत्नी ने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए दूसरे बच्चे लिए हामी भरी। और अब वह मां बनने वाली है। हमारे घर में आने वाला मेहमान कौन होगा, हम नहीं जानते, लेकिन हम दोनों की इच्छा है ये प्रभु इस बार हमें बिटिया ही दीजौ।
Post a Comment