ब्लाग का कितना गंदा इस्तेमाल हल्के स्तर पर किया जा सकता है यह मुझे आज पता लगा। कुछ दिन पहले एक बड़े प्रतिष्ठित विद्वान पत्रकार का फोन रात एक बजे आया था, -- किसी सिरफिरे ने मंगलेश डबरालजी के बारे में ऊ लजलूल टिप्पणी की थी। मुझे बुरा लगा था पर बहुत गौर नहींं कर पाया था। आज किसी मैंने ब्लागों को खंगालते हुए, एक ब्लाग को देखा, योंकि उस बलाग से मेरा भी नाता संबंधित व्यि त ने खुद ब खुद जाे़डा हुआ था।
मैने पढ़ा। कुछ हंसी आई । तुमने अ सर मेरी ही शराब पीकर मुझसे ऐसी बातें कही है। पर मै तुम्हारी समझ को देखते हुए उनको लाइट लेता रहा। पर जब तुम्हारे बलाग पर इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा तो मुझे लगा कि अब तुमसे तुम्हारी भाषा मेंं बात करनी चाहिए।
फिर सोचा कि या मुझे इतना नीचे गिरना चाहिए कि इसका जवाब दूं। दो रास्ते मेरे पास थे। एक तो यह कि इतने नीचे न जाऊं कि मैं भी इसी का हिस्सा हो जाऊं। दूसरा यह कि मेरी कुछ लिखे हुए से शायद इन्हें अहसास हो सके कि कुछ लिखने से पहले हजार बार सोचा जाना चाहिए। बहुत विचार किया। फिर एक पंि त कौंधी कि ----उनका भी होता है अपराध जो हर चीज में निरपेक्ष रहते हैं,खामोश रहते हैं। ------इसका जबाव देना ही पड़ेगा।
प्रस्तावना कुछ बड़ी हो गई। मुख्य बिंदु पर आता हूं।
तुमने लिखा है कि डबल जिंदगी जो लोग जीते हैं उनसे तुम घृणा करते हो। मुझे तो लगता है कि जितनी डबल जिंदगी तुम जीते आते हो वह बेमिसाल है। याद करो वह दिन जब एक व्यि त अपने इस स्वार्थ मेंं कि उसका ट्रांसफर नहीं हो पा रहा है, श्री संपादक जी भाई साहब, प्रिय मृत्यंुजय जी और राजीव को अपशब्द कह रहा था, तुम हंू-हां करते हुए उसकी शराब का आनंद लेते रहे, लेकिन जिन लोगोंं तुम्हें फर्श से अर्श पर पहुंचाया, उन्हीं की निंदा में तुम शामिल हो गए। चलो उस समय तुम्हारा उस समय उनके साथ भास्कर जाने का स्वार्थ छिपा था तो तुमने उस व्यि त का विरोध नहीं किया, लेकिन बाद में या तुमने इस बात को इन तीनों व्यि तयों मंे किसी को इस संबंध बताया? नहींं! योंकि तुम्हारी उठक बैठक उन दिनों उनके साथ थी, जो यहां से पूरे आफिसवालों को गालियां देते हुए भास्कर में चले गए। खूब घुलती मिलती थी उन दिनोंं तुम्हारी। तुम्हारा या फर्ज था। या तुम्हें बताना नहीं चाहिए था। चलो माना कि मैं नहीं तुम बहुत इनोसेंट हो, तुम भूल गए। पर.............
या तुम्हें याद है कि तुम एक दिन पैग की चुस्कियों के साथ कह रहे थे कि संजय शु ला को मैंं सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहा हूं। मैंं उससे नफरत करता हूं। पर कुछ ही दिन पहले तुमने ब़़डे जोश खरोश के साथ उसे अपने घर पर आमंत्रित किया था। या यह डबल गेम नहीं। दूसरो को जानने से पहले अपने को जानो। दूसरो की नहींं अपनी कमियां ढूूढो।
तुम्हीं हो जो शादी केबाद अपनी पत्नी के साथ एक वैज्ञानिक के घर पर जाते हो तो मिठाई का अच्छा खासा डिब्बा ले जाते हो, मेरे घर आए तो एक जंगल की लकड़ी लेकर। आखिर तुम्हीं हो जिसे यह ध्यान तो रहा कि मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण जी को अपने घर बुलाना है, पर कभी मुझे और मेरी पत्नी को कहा कि मेेरे घर आना। जालंघर में घर के बासमती चावल लाकर कुछ घरों में दिए पर कभी ध्यान आया कि जो व्यि त मुझे हर शाम इतना प्यार देता है उसे भी कभी एक आध किलो घर का बासमती चावल दे दूं। नहीं दे सकते योंकि असली आडंबर तुम्हारे अंदर हैँ। दोहरी जिंदगी में नहींं तुम जीते हो।
तुमने लांछन लगाया कि दूसरा इनोसेंट बनता है। इनोसेंट बनने की उसे जरूरत नहीं। उसकी आवाज पर तो उत्तराखंड आंदोलन के समय समाजवादी पार्टी जिस पांच लाख रुपए को प्रेस लब को देने जा रही थी उसे वापस लेना पड़ा। उसने तो हमेशा अपनी आवाज खुल कर उठाई। यह उसका साहस था कि वह संजय शु ला के साथ खुली लड़ाई लड़ सका। जबकि सब भीगी बिल्ली बने रहते थे।
जहां तक बात मेरी सादगी की है तो मैं तो अपनी शादी के समय ही अपना रेलवे टिकट कहीं भूल आया। इससे बड़ी सादगी और या होगी कि उसे अपने को भुनाना नहींं आया। वरना सुप्रतिष्ठ त राष्ट ्रीय न्यूज पेपर केएडिट पेज केलगभग सत्तर लेख, पहले पेज के अस्सी बाटम , पूरे फीचर पेज केकई आलेख, और जनसत्ता की पत्रिका की कई कवर स्टोरी के बावजूद अपने को भुना नहीं पाया। यह इनोसेंट ही है। वरना लोग तो एक दो स्टोरी के बाद राज्य सरकार का पुरस्कार पा जाते हैं। पर मैं फिर कह रहा हूं। मैं इनोसेंट नहीं हूं , न होना चाहता हूं। बल्कि मुझे बड़ी लड़ाई लड़नी है। मुझे तो सबसे गंदा तब लगता है जब कोई मुझे 'सीधा` कहता है। सीधा मतलब आज की दुनिया में बेवकूफ। माफ करना मैं बेबकूफ नहीं। पूरी समझ रखता हूं। मेरे आंख-कान सब खुले हैं। पूरी होशोहवाश है। एक एक पल की जानकारी रखता हूं। बस किसी का अहित नहीं करता। हां कोई मेरा अहित करने की सोचे तो उसे समय पर छोड़ता भी नहीं।
कमियों की बात करते हो तो अपनी कमियों को परखने के लिए जितनी जद्ोजहद मैं करता हूं उसके बारे मेंं तुमसे सलाह लेने की जरूरत नहीं। बचपन से अपनी कमियों को सुधारते सुधारते मैने अपनी जगह बनाई है। मुझे याद है कि अपना बायोडाटा श्री नंद किशोर नौटियालजी को देते समय मैने कई जगह मात्राआें की गलती की थी। नौटियालजी ने पढ़ते हुए कई गोले बनाए थे। मैं नाराज नहीं हुआ बल्कि उससे सबक लिया। लेकिन मैं जानता हूं कि तुम अपने किसी भी इंचार्ज को सहन नहीं कर पाते हो। हर इंचार्ज केलिए तुम्हारे मुंह में तौहीन होती है। हालांकि मेरे पास तुरर्म खां टाइप के पद नहीं है पर जो कुछ है वह तुम भी अच्छी तरह जानते हो। और न जानो तो मुझे परवाह भी नहीं।
मुझे पता है कि मेरे इस लिखने के बाद तुम जरूर कुछ लिखोगे। तुम्हें इसमें मजा आता है। अब तुम मुझे गाली भी दोगे तो मैंंइसका जबाव नहींं दुंगा। न मुझे इस बात का दुख है मैने तुम्हारे बारे मेंं राजीव से बात की थी। तुम जांलधर में मेरे प्रयास से नहींं लगे। अपने कर्मो से लगे हो। पर एक घटना याद आती है। तुम कहानीकार भी हो सुनो
रेलवे में एक बहुत बड़े पहाड़ी आइएएस अफसर थे। एक दिन शराब के पैग पीते हुए मैंने कहा कि राम विलास पासवान इतने लोगों को नौकरी देते हैं। आप भी अपने स्तर पर कुछ कीजिए। उनका जवाब था कि मैने शुरू में कुछ लड़के लगाए थे। लेकिन उन लड़कोंं ने नौकरी लगते ही मेरे बारे में इधर-उधर अनापशनाप कहना शुरू कर दिया ( ब्लाग लिखने का प्रचलन तब नहीं था) कि तंग होकर मुझे अपना ट्रांसफर कराना पड़ा। तबसे भाई मैं यह समाजसेवा नहींं करता।
आदमी को अपने विगत को नहीं भूलना चाहिए। उन लड़कों ने आगे कितनों का बुरा कर दिया। पर मैं तुम्हारे इस आचरण के बावजूद दूसरों की मदद करुंगा। अपने कैरियर में मैंने ४० से ज्यादा लोगोंं के लिए रोजगार के अवसर दिलाए। यही मेरी आंतरिक खुशी है। मैं संख्या ४०० पहुंचाना चाहता हूं। भले ही उसमेंं कुछ तुम जैसे दो चार लोगों से मुझे अपशब्द भी सुनना पड़े।
मैं या हूं कैसा हूं इसका प्रमाणपत्र मत दूं। मैं तो मुंबई से दिल्ली आ गया था। परिस्थितिवश तब मुंबई नहीं जा सका था। रेलवे स्टेशन पर मेरे सौ से ज्यादा दोस्तों ने लक्ष्मी को विदाई दी थी। यही नहीं सामान की पैेकिंग भी की थी। अगर मैं बुरा था तो तुम दून मेंं हर शाम मेरे घर यों पड़े रहते थे। थोड़ी सी तुम्हें पहचान और तनख्वाह मिलनी (देहरादून में या पाते थे और संस्थान में या तुम्हारी हैसियत थी, यह किसी से छिपा नहीं है) शुरू हुई और तुम मुझे दुनिया समझाने चलो हो। विनम्रता से कहते तो सुनता पर इस अंहकार के लायक अभी तुम नहीं हो। जब हो जाओगे तो कुछ कह लेना।
अभी भी तुम्हारी उम्र कम है। हालांकि बहुत कम भी नहीं। चाहो तो अपने में सुधार ला सकते हो। या फिर इसी तरह दूसरोंं पर कुछ भी लिख कर अपना समय गंवाआें। तुम कौन सा रास्ता अपनाओ इसे जानने की मुझे उत्सु ता नहीं। योंकि तुम पहले अपनी हरक तों से मुझे काफी आहत कर चुके हों। फिर भी याद रखो मैं तुम्हारा अच्छा ही चाहता हूं। तुम अच्छे होे जाओ इसी लिए यह सब लिख रहा हूं। वरना बलाग फ्लाग की परवाह मैं कब करता हूं। मैने कब किसी चीज की परवाह की। परवाह की होती तो कहींं गंभीर ओहदे मेंं होता। इसी अंदाज केलिए तो जाना जाता हूं। पहले मुझे समझो फिर टिप्पणी करो। देहरादून के तुम्हारे दो मित्रोंं की सोचने की जो क्षमता है उससे ऊपर हो जाओ।
मैने पढ़ा। कुछ हंसी आई । तुमने अ सर मेरी ही शराब पीकर मुझसे ऐसी बातें कही है। पर मै तुम्हारी समझ को देखते हुए उनको लाइट लेता रहा। पर जब तुम्हारे बलाग पर इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा तो मुझे लगा कि अब तुमसे तुम्हारी भाषा मेंं बात करनी चाहिए।
फिर सोचा कि या मुझे इतना नीचे गिरना चाहिए कि इसका जवाब दूं। दो रास्ते मेरे पास थे। एक तो यह कि इतने नीचे न जाऊं कि मैं भी इसी का हिस्सा हो जाऊं। दूसरा यह कि मेरी कुछ लिखे हुए से शायद इन्हें अहसास हो सके कि कुछ लिखने से पहले हजार बार सोचा जाना चाहिए। बहुत विचार किया। फिर एक पंि त कौंधी कि ----उनका भी होता है अपराध जो हर चीज में निरपेक्ष रहते हैं,खामोश रहते हैं। ------इसका जबाव देना ही पड़ेगा।
प्रस्तावना कुछ बड़ी हो गई। मुख्य बिंदु पर आता हूं।
तुमने लिखा है कि डबल जिंदगी जो लोग जीते हैं उनसे तुम घृणा करते हो। मुझे तो लगता है कि जितनी डबल जिंदगी तुम जीते आते हो वह बेमिसाल है। याद करो वह दिन जब एक व्यि त अपने इस स्वार्थ मेंं कि उसका ट्रांसफर नहीं हो पा रहा है, श्री संपादक जी भाई साहब, प्रिय मृत्यंुजय जी और राजीव को अपशब्द कह रहा था, तुम हंू-हां करते हुए उसकी शराब का आनंद लेते रहे, लेकिन जिन लोगोंं तुम्हें फर्श से अर्श पर पहुंचाया, उन्हीं की निंदा में तुम शामिल हो गए। चलो उस समय तुम्हारा उस समय उनके साथ भास्कर जाने का स्वार्थ छिपा था तो तुमने उस व्यि त का विरोध नहीं किया, लेकिन बाद में या तुमने इस बात को इन तीनों व्यि तयों मंे किसी को इस संबंध बताया? नहींं! योंकि तुम्हारी उठक बैठक उन दिनों उनके साथ थी, जो यहां से पूरे आफिसवालों को गालियां देते हुए भास्कर में चले गए। खूब घुलती मिलती थी उन दिनोंं तुम्हारी। तुम्हारा या फर्ज था। या तुम्हें बताना नहीं चाहिए था। चलो माना कि मैं नहीं तुम बहुत इनोसेंट हो, तुम भूल गए। पर.............
या तुम्हें याद है कि तुम एक दिन पैग की चुस्कियों के साथ कह रहे थे कि संजय शु ला को मैंं सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहा हूं। मैंं उससे नफरत करता हूं। पर कुछ ही दिन पहले तुमने ब़़डे जोश खरोश के साथ उसे अपने घर पर आमंत्रित किया था। या यह डबल गेम नहीं। दूसरो को जानने से पहले अपने को जानो। दूसरो की नहींं अपनी कमियां ढूूढो।
तुम्हीं हो जो शादी केबाद अपनी पत्नी के साथ एक वैज्ञानिक के घर पर जाते हो तो मिठाई का अच्छा खासा डिब्बा ले जाते हो, मेरे घर आए तो एक जंगल की लकड़ी लेकर। आखिर तुम्हीं हो जिसे यह ध्यान तो रहा कि मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण जी को अपने घर बुलाना है, पर कभी मुझे और मेरी पत्नी को कहा कि मेेरे घर आना। जालंघर में घर के बासमती चावल लाकर कुछ घरों में दिए पर कभी ध्यान आया कि जो व्यि त मुझे हर शाम इतना प्यार देता है उसे भी कभी एक आध किलो घर का बासमती चावल दे दूं। नहीं दे सकते योंकि असली आडंबर तुम्हारे अंदर हैँ। दोहरी जिंदगी में नहींं तुम जीते हो।
तुमने लांछन लगाया कि दूसरा इनोसेंट बनता है। इनोसेंट बनने की उसे जरूरत नहीं। उसकी आवाज पर तो उत्तराखंड आंदोलन के समय समाजवादी पार्टी जिस पांच लाख रुपए को प्रेस लब को देने जा रही थी उसे वापस लेना पड़ा। उसने तो हमेशा अपनी आवाज खुल कर उठाई। यह उसका साहस था कि वह संजय शु ला के साथ खुली लड़ाई लड़ सका। जबकि सब भीगी बिल्ली बने रहते थे।
जहां तक बात मेरी सादगी की है तो मैं तो अपनी शादी के समय ही अपना रेलवे टिकट कहीं भूल आया। इससे बड़ी सादगी और या होगी कि उसे अपने को भुनाना नहींं आया। वरना सुप्रतिष्ठ त राष्ट ्रीय न्यूज पेपर केएडिट पेज केलगभग सत्तर लेख, पहले पेज के अस्सी बाटम , पूरे फीचर पेज केकई आलेख, और जनसत्ता की पत्रिका की कई कवर स्टोरी के बावजूद अपने को भुना नहीं पाया। यह इनोसेंट ही है। वरना लोग तो एक दो स्टोरी के बाद राज्य सरकार का पुरस्कार पा जाते हैं। पर मैं फिर कह रहा हूं। मैं इनोसेंट नहीं हूं , न होना चाहता हूं। बल्कि मुझे बड़ी लड़ाई लड़नी है। मुझे तो सबसे गंदा तब लगता है जब कोई मुझे 'सीधा` कहता है। सीधा मतलब आज की दुनिया में बेवकूफ। माफ करना मैं बेबकूफ नहीं। पूरी समझ रखता हूं। मेरे आंख-कान सब खुले हैं। पूरी होशोहवाश है। एक एक पल की जानकारी रखता हूं। बस किसी का अहित नहीं करता। हां कोई मेरा अहित करने की सोचे तो उसे समय पर छोड़ता भी नहीं।
कमियों की बात करते हो तो अपनी कमियों को परखने के लिए जितनी जद्ोजहद मैं करता हूं उसके बारे मेंं तुमसे सलाह लेने की जरूरत नहीं। बचपन से अपनी कमियों को सुधारते सुधारते मैने अपनी जगह बनाई है। मुझे याद है कि अपना बायोडाटा श्री नंद किशोर नौटियालजी को देते समय मैने कई जगह मात्राआें की गलती की थी। नौटियालजी ने पढ़ते हुए कई गोले बनाए थे। मैं नाराज नहीं हुआ बल्कि उससे सबक लिया। लेकिन मैं जानता हूं कि तुम अपने किसी भी इंचार्ज को सहन नहीं कर पाते हो। हर इंचार्ज केलिए तुम्हारे मुंह में तौहीन होती है। हालांकि मेरे पास तुरर्म खां टाइप के पद नहीं है पर जो कुछ है वह तुम भी अच्छी तरह जानते हो। और न जानो तो मुझे परवाह भी नहीं।
मुझे पता है कि मेरे इस लिखने के बाद तुम जरूर कुछ लिखोगे। तुम्हें इसमें मजा आता है। अब तुम मुझे गाली भी दोगे तो मैंंइसका जबाव नहींं दुंगा। न मुझे इस बात का दुख है मैने तुम्हारे बारे मेंं राजीव से बात की थी। तुम जांलधर में मेरे प्रयास से नहींं लगे। अपने कर्मो से लगे हो। पर एक घटना याद आती है। तुम कहानीकार भी हो सुनो
रेलवे में एक बहुत बड़े पहाड़ी आइएएस अफसर थे। एक दिन शराब के पैग पीते हुए मैंने कहा कि राम विलास पासवान इतने लोगों को नौकरी देते हैं। आप भी अपने स्तर पर कुछ कीजिए। उनका जवाब था कि मैने शुरू में कुछ लड़के लगाए थे। लेकिन उन लड़कोंं ने नौकरी लगते ही मेरे बारे में इधर-उधर अनापशनाप कहना शुरू कर दिया ( ब्लाग लिखने का प्रचलन तब नहीं था) कि तंग होकर मुझे अपना ट्रांसफर कराना पड़ा। तबसे भाई मैं यह समाजसेवा नहींं करता।
आदमी को अपने विगत को नहीं भूलना चाहिए। उन लड़कों ने आगे कितनों का बुरा कर दिया। पर मैं तुम्हारे इस आचरण के बावजूद दूसरों की मदद करुंगा। अपने कैरियर में मैंने ४० से ज्यादा लोगोंं के लिए रोजगार के अवसर दिलाए। यही मेरी आंतरिक खुशी है। मैं संख्या ४०० पहुंचाना चाहता हूं। भले ही उसमेंं कुछ तुम जैसे दो चार लोगों से मुझे अपशब्द भी सुनना पड़े।
मैं या हूं कैसा हूं इसका प्रमाणपत्र मत दूं। मैं तो मुंबई से दिल्ली आ गया था। परिस्थितिवश तब मुंबई नहीं जा सका था। रेलवे स्टेशन पर मेरे सौ से ज्यादा दोस्तों ने लक्ष्मी को विदाई दी थी। यही नहीं सामान की पैेकिंग भी की थी। अगर मैं बुरा था तो तुम दून मेंं हर शाम मेरे घर यों पड़े रहते थे। थोड़ी सी तुम्हें पहचान और तनख्वाह मिलनी (देहरादून में या पाते थे और संस्थान में या तुम्हारी हैसियत थी, यह किसी से छिपा नहीं है) शुरू हुई और तुम मुझे दुनिया समझाने चलो हो। विनम्रता से कहते तो सुनता पर इस अंहकार के लायक अभी तुम नहीं हो। जब हो जाओगे तो कुछ कह लेना।
अभी भी तुम्हारी उम्र कम है। हालांकि बहुत कम भी नहीं। चाहो तो अपने में सुधार ला सकते हो। या फिर इसी तरह दूसरोंं पर कुछ भी लिख कर अपना समय गंवाआें। तुम कौन सा रास्ता अपनाओ इसे जानने की मुझे उत्सु ता नहीं। योंकि तुम पहले अपनी हरक तों से मुझे काफी आहत कर चुके हों। फिर भी याद रखो मैं तुम्हारा अच्छा ही चाहता हूं। तुम अच्छे होे जाओ इसी लिए यह सब लिख रहा हूं। वरना बलाग फ्लाग की परवाह मैं कब करता हूं। मैने कब किसी चीज की परवाह की। परवाह की होती तो कहींं गंभीर ओहदे मेंं होता। इसी अंदाज केलिए तो जाना जाता हूं। पहले मुझे समझो फिर टिप्पणी करो। देहरादून के तुम्हारे दो मित्रोंं की सोचने की जो क्षमता है उससे ऊपर हो जाओ।
1 comment:
Aapka dili jajbat kisi akhbari daftar ke gande mahaul se aahat pratit hota hai. Kaun sa akhbar hai yah bhi bata dete, khair...
Safalta ka ek naya rashta aapne bataya - basmati chawal banto.
Aise aur bhi rashton ka khulasa karte rahiye. Dhanyabad.
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