बीजिंग ओलंपिक में पदक के मामले में भारत ४६वें स्थान पर है। लेकिन इस बार भारत की झोली में तीन पदक आ गए हैं। यह पदक जहां व्यि तगत स्पार्धाआें में मिले हैं। वहीं यह खिलाड़ियों की व्यि तगत मेहनत, लगन, जुनून और साहस का परिणाम भी है। जिन खिलाड़ियों ने हम हिंदुस्तानियों को गर्व करने लायक यह अनमोल क्षण दिया है उनके प्रति आज हमारा रवैया बेशक सकारात्मक है लेकिन खेल और खिलाड़ियों के प्रति हमारे समाज में अच्छी राय नहीं है। खेलों के प्रति हमारी मानसिकता कैसी है उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
आप किसी के यहां जाएं और उसके बच्चे से पूछें कि बेटा/बेटी बड़ा होकर या बनना चाहते हो? उसका जवाब होगा कि वह डा टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। इसी तरह यदि मेजबान मेहमान के बच्चे से पूछता है तो उस बच्चे का जवाब भी यही होता है कि वह इंजीनियर नहीं तो डा टर या आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। यह कोई एक-दो घर की बात नहीं है। हमारे देश में यह घर-घर की कहानी है। किसी घर में शायद ही कोई बच्चा कहे कि वह खिलाड़ी बनना चाहता है।
सवाल उठता है कि बच्चों में ऐसी मानसिकता कहां से आ जाती है? जाहिर सी बात है कि यह संस्कार बच्चों को अपने मां-बाप और परिवार से ही मिलता है। हमारे घरों में यह तो कहा जाता है कि बेटा या बेटी पढ़-लिखकर तुम्हें डा टर, इंजीनियर या आईपीएस, आईएएस बनना है लेकिन यह नहीं कहा जाता कि तुम्हें खिलाड़ी बनना है।
ऐसा यों है कि कोई अपने बच्चे को खिलाड़ी बनने के लिए प्रेरित नहीं करता? शायद भविष्य की चिंता। भविष्य की चिंता देशप्रेम पर भारी पड़ जाती है। अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेंदर की जीत पर हम जश्न मना सकते हैं, लेकिन हम यह कदापि नहीं चाहते कि हमारे घर से कोई अभिनव या सुशील निकले। ऐसे में किसी खिलाड़ी की जीत पर खुशी मनाते लोगों की देशभि त कितनी खोखली हो जाती है।
खेलों को जीवन स्कूल स्तर पर ही दिया जा सकता है। लेकिन आज निजी स्कूलों का बोलबाला है, जहां खेल हाशिये पर है। निजी स्कूलों की दिलचस्पी खेल में नहीं बच्चों के अंक पर होती है। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में अब भी एक पीरिएड खेल के लिए होता है। यह और बात है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे दिन के लगभग आठों घंटे ही खेल ही खेलते हैं। उन्हें पढ़ाने की जहमत तो शायद ही कोई शिक्षक उठाता है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों में समाज के ऐसे लोगों के बच्चे जाते हैं जो निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते। अब ऐसे लोगों के बच्चों के लिए कोई शिक्षक पढ़ाने यों लगा? जब कोई शिक्षक पढ़ाता ही नहीं तो वह खेल में या दिलचस्पी लेगा? फिर भी गांवों और शहरों के कुछ सरकारी स्कूलों में अभी खेल जिंदा है। फंड लेने के लिए सही यह स्कूल खेलों का आयोजन करते हैं। इस तरह यह अभी खेल जिंदा है बेशक वह अंतिम सांसें ले रहा है।
यदि हमें ओलंपिक स्वर्ण पदक चाहिए तो खेलों को स्कूली स्तर पर ही मजबूत करना होगा। निजी स्कूलों में भी खेलों के लिए एक पीरिएड रखना अनिवार्य करना होगा। पूरे साल खेलों का कोई न कोई आयोजन करते रहना होगा, ताकि जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं उन्हें पूरा मौका मिल सके। ब्लाक और जिला स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चों को विशेष संरक्षण देकर उनकी प्रतिभा को निखारना होगा। कम से कम ऐसी प्रतिभा को अपनी तैयारी में जहां कोई परेशानी न आए वहीं वह समाज में बेहतर जीवन जी सके इसके लिए उसके भविष्य को भी सुनिश्चित करना होगा। यदि ऐसी प्रतिभाएं प्रतियोगिताआें में उम्मदा प्रदर्शन करती हैं तो उन्हें और उनके परिवार को बेहतर प्रतिफल देना होगा। यह काम सरकार उद्योग जगत की मदद से कर सकती है। यदि हमें ओलंपिक और स्वर्ण या पदक चाहिए तो ऐसा करना ही पड़ेगा। देश के हर नागरिक को सोचना होगा कि उसके परिवार का कम से कम एक बच्चा किसी न किसी खेल में प्रतिभागी बने। केवल देशभक्ति के नारे लगाने से ही काम नहीं चलेगा। उद्योग जगत को भी सोचना होगा कि देश के लिए उन्हें अपनी आय का कुछ अंश खेलों के लिए दें। यदि कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में विजयी होता तो उद्योग जगत उसे विज्ञापन के लिए लपक लेता है, लेकिन उद्योग जगत कोई ऐसा खिलाड़ी तैयार करने में रुचि नहीं दिखाता जो भविष्य देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दे। इस मानसिकता को बदलना होगा यदि हमें अपने देश से प्यार है।
आप किसी के यहां जाएं और उसके बच्चे से पूछें कि बेटा/बेटी बड़ा होकर या बनना चाहते हो? उसका जवाब होगा कि वह डा टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। इसी तरह यदि मेजबान मेहमान के बच्चे से पूछता है तो उस बच्चे का जवाब भी यही होता है कि वह इंजीनियर नहीं तो डा टर या आईएएस, आईपीएस बनना चाहता है। यह कोई एक-दो घर की बात नहीं है। हमारे देश में यह घर-घर की कहानी है। किसी घर में शायद ही कोई बच्चा कहे कि वह खिलाड़ी बनना चाहता है।
सवाल उठता है कि बच्चों में ऐसी मानसिकता कहां से आ जाती है? जाहिर सी बात है कि यह संस्कार बच्चों को अपने मां-बाप और परिवार से ही मिलता है। हमारे घरों में यह तो कहा जाता है कि बेटा या बेटी पढ़-लिखकर तुम्हें डा टर, इंजीनियर या आईपीएस, आईएएस बनना है लेकिन यह नहीं कहा जाता कि तुम्हें खिलाड़ी बनना है।
ऐसा यों है कि कोई अपने बच्चे को खिलाड़ी बनने के लिए प्रेरित नहीं करता? शायद भविष्य की चिंता। भविष्य की चिंता देशप्रेम पर भारी पड़ जाती है। अभिनव बिंद्रा, सुशील कुमार और विजेंदर की जीत पर हम जश्न मना सकते हैं, लेकिन हम यह कदापि नहीं चाहते कि हमारे घर से कोई अभिनव या सुशील निकले। ऐसे में किसी खिलाड़ी की जीत पर खुशी मनाते लोगों की देशभि त कितनी खोखली हो जाती है।
खेलों को जीवन स्कूल स्तर पर ही दिया जा सकता है। लेकिन आज निजी स्कूलों का बोलबाला है, जहां खेल हाशिये पर है। निजी स्कूलों की दिलचस्पी खेल में नहीं बच्चों के अंक पर होती है। इसके विपरीत सरकारी स्कूलों में अब भी एक पीरिएड खेल के लिए होता है। यह और बात है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे दिन के लगभग आठों घंटे ही खेल ही खेलते हैं। उन्हें पढ़ाने की जहमत तो शायद ही कोई शिक्षक उठाता है। यही कारण है कि सरकारी स्कूलों में समाज के ऐसे लोगों के बच्चे जाते हैं जो निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते। अब ऐसे लोगों के बच्चों के लिए कोई शिक्षक पढ़ाने यों लगा? जब कोई शिक्षक पढ़ाता ही नहीं तो वह खेल में या दिलचस्पी लेगा? फिर भी गांवों और शहरों के कुछ सरकारी स्कूलों में अभी खेल जिंदा है। फंड लेने के लिए सही यह स्कूल खेलों का आयोजन करते हैं। इस तरह यह अभी खेल जिंदा है बेशक वह अंतिम सांसें ले रहा है।
यदि हमें ओलंपिक स्वर्ण पदक चाहिए तो खेलों को स्कूली स्तर पर ही मजबूत करना होगा। निजी स्कूलों में भी खेलों के लिए एक पीरिएड रखना अनिवार्य करना होगा। पूरे साल खेलों का कोई न कोई आयोजन करते रहना होगा, ताकि जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं उन्हें पूरा मौका मिल सके। ब्लाक और जिला स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चों को विशेष संरक्षण देकर उनकी प्रतिभा को निखारना होगा। कम से कम ऐसी प्रतिभा को अपनी तैयारी में जहां कोई परेशानी न आए वहीं वह समाज में बेहतर जीवन जी सके इसके लिए उसके भविष्य को भी सुनिश्चित करना होगा। यदि ऐसी प्रतिभाएं प्रतियोगिताआें में उम्मदा प्रदर्शन करती हैं तो उन्हें और उनके परिवार को बेहतर प्रतिफल देना होगा। यह काम सरकार उद्योग जगत की मदद से कर सकती है। यदि हमें ओलंपिक और स्वर्ण या पदक चाहिए तो ऐसा करना ही पड़ेगा। देश के हर नागरिक को सोचना होगा कि उसके परिवार का कम से कम एक बच्चा किसी न किसी खेल में प्रतिभागी बने। केवल देशभक्ति के नारे लगाने से ही काम नहीं चलेगा। उद्योग जगत को भी सोचना होगा कि देश के लिए उन्हें अपनी आय का कुछ अंश खेलों के लिए दें। यदि कोई खिलाड़ी किसी प्रतियोगिता में विजयी होता तो उद्योग जगत उसे विज्ञापन के लिए लपक लेता है, लेकिन उद्योग जगत कोई ऐसा खिलाड़ी तैयार करने में रुचि नहीं दिखाता जो भविष्य देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दे। इस मानसिकता को बदलना होगा यदि हमें अपने देश से प्यार है।
3 comments:
sahin kaha hai aap ne main aap ki baaton se puri tarha sahmat hun..thnxx..
पूरे साल खेलों का कोई न कोई आयोजन करते रहना होगा, ताकि जो बच्चे खेल में रुचि लेते हैं उन्हें पूरा मौका मिल सके। ब्लाक और जिला स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले बच्चों को विशेष संरक्षण देकर उनकी प्रतिभा को निखारना होगा। कम से कम ऐसी प्रतिभा को अपनी तैयारी में जहां कोई परेशानी न आए वहीं वह समाज में बेहतर जीवन जी सके इसके लिए उसके भविष्य को भी सुनिश्चित करना होगा। यदि ऐसी प्रतिभाएं प्रतियोगिताआें में उम्मदा प्रदर्शन करती हैं तो उन्हें और उनके परिवार को बेहतर प्रतिफल देना होगा। यह काम सरकार उद्योग जगत की मदद से कर सकती है। बिल्कुल सही कहना है आपका।
मुझे लगता है कि ओलंपिक में मैडल न मिल पाने का मूल कारण है देश की बढती आबादी. वो कैसे? वो ऐसे की बढ़ती आबादी के कारण युवाओं को नौकरी मिलना खासा मुश्किल हो गया है. ऐसे में हर कोई चाहता है कि अधिक से अधिक डिग्रियां लेकर नौकरी के अवसरों पर कब्ज़ा करे. खेल-कूद का पिछड़ना स्वाभाविक है. दूसरी ओर छोटे-छोटे देश जैसे जमैका, जर्मनी और फ्रांस ढेरों मैडल जीतते हैं. उनमें आबादी कम है, विकास अधिक है. नौकरियों के लिए इतनी मारा-मारी नहीं होती है. इसलिए कुछ युवा दिल खेलकर भी पैसा कमा लेते हैं.
चीन एक बहुत बड़ा अपवाद है - वहाँ बचपन से ही चुने गए कुछ खिलाड़ियों को खेल-कूद का प्रशिक्षण किसी सैनिक शिक्षा की तरह दिया जाता है. इसे तानाशाही कहें या खेल, इसपर खासा विवाद है.
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