Wednesday, 27 August 2008

बालमन को रौंदते टीवी न्यूज चैनल

सुबह सो कर उठा तो दोनों बच्चे घर में ही पाए गए, जबकि उन्हें स्कूल में होना चाहिए था। पूछा स्कूल यों नहीं गए तो एक ने जवाब दिया कि स्कूल जाकर या करना है। यह दुनिया तो वैसे भी कुछ ही दिन की मेहमान है। उसके जवाब से मैं हैरत में था। मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। खुद को संयत करते हुए पूछा कि तू ऐसी बकवास यों कर रहा है?
मैं नहीं डैडी, मेरे स्कूल के सभी लड़के कह रहे हैं कि पढ़-लिखकर या करना? दुनिया तो चार साल चार माह १५ दिन बाद तबाह हो जाएगी, बरबाद हो जाएगी। ऐसे में पढ़ने का या फायदा? जिंदगी के जो चार साल बचे हैं उसमें मौज-मस्ती यों न की जाए। मेरा यह बेटा अभी पंद्रह साल का है और नौवींं कक्षा में पढ़ता है। उसकी बातें सुनकर एक पल को तो मेरे शरीर में खून दाै़डना ही बंद हो गया। मुझे लगा कि यह या बकवास किए जा रहा है। अगले ही पल मुझे बहुत तेज गुस्सा आया और मन में आया कि मैं इसकी बेवकूफी के लिए इसकी पिटाई कर दंू। लेकिन फिर सोचा कि नहीं, इसकी बात को धैर्य से सुनना चाहिए। यह तय करने के बाद मैं शांत हो गया और उससे प्यार से पूछा कि आप और आपके स्कूल के लड़कों को यह बात किसने बताई? उसने बिना हिचक एक न्यूज चैनल का नाम लिया। अब मेरे लिए और चौकने की बारी थी। न्यूज चैनल का ऐसा प्रभाव नौवीं कक्षा के छात्रों पर इस तरह से भी पड़ सकता है मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। यह तो पता था कि आजकल न्यूज चैनलों में ऐसी-ऐसी खबरें दिखाई जा रही हैं जिनको खबर कहा ही नहीं जा सकता। लेकिन ऐसी भी खबरें दिखाई जा रही हैं जिससे बालमन हताशा और निराशा के गर्त में चला जा रहा है।
इसे या कहेंगे? या यही पत्रकारिता है? यही पत्रकारिता के सिद्धांत और नैतिक मूल्य हैं? या ऐसे ही देश निर्माण किया जाता है? या यही पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार हैं? ये सभी सवाल मेरे दिमाग पर किसी हथाै़डे की तरह प्रहार करने लगे। मुझे नहीं सूझ रहा था कि मैं बच्चे से आगे या कहंू। कुछ पल रुकने के बाद मैंने कहा कि जिस न्यूज चैनल की बात आप कर रहे हैं उसे कभी नहीं देखना चाहिए। वह झूठी और ऊल-जुलूल खबरें दिखाता रहता है। उसकी खबरों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
बेटे को यह प्रवचन देकर मैं टीवी खोल कर बैठ गया। उ त न्यूज चैनल के प्रति मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी। इस कारण उसी को देखने लगा। इत्तफाक से उस समय उस न्यूज चैनल पर वही खबर आ रही थी, जिसका जिक्र बेटे ने किया था। न्यूज चैनल किसी स्वामी के हवाले से दावा कर रहा था कि ४ साल ४ माह १५ दिन बाद एक प्रलय आएगा और पूरी दुनिया को तबाह कर जाएगा। तब इस धरती पर कुछ भी नहीं बचेगा। इन बातों के साथ वह विध्वंसक दृश्य भी दिखा रहा था। जिसका मतलब था कि जो वह कह रहा है उसका दृश्य इसी तरह का हो सकता है। न्यूज चैनल दावा कर रहा था कि २१ दिसंबर २०१२ को कलियुग खत्म हो जाएगा। इसी के बाद यह प्रलय आएगी। एक ऐसी सुनामी आएगी जिससे कोई भी नहीं बच पाएगा। चैनल का यह भी दावा था कि इस स्वामी की अभी तक की सभी भविष्यवाणियां सच हुई हैं। यही नहीं कुछ हिंदू धर्म गुरुआें ने भी ऐसी ही भविष्यवाणी की है। न्यूज चैनल यह भी दावा कर रहा था कि वैज्ञानिक भी इस आशंका में हैं और वह इस समस्या से निपटने का उपाय खोज रहे हैं। इन सब चीजों को वह एक हारर फिल्म की तरह दिखा रहा था। इसी बीच न्यूज चैनल को चाहिए था ब्रेक तो उसने दावा किया कि ब्रेक के बाद वह इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिकों की राय भी दिखाएगा। इस कारण मैं उस न्यूज चैनल को देखता रहा। सोचा देखते हैं वैज्ञानिक या कहते हैं।
ब्रेक खत्म हुआ। न्यूज चैनल फिर वहीं कहानी दोहराने लगा। उसके बाद दूसरी खबर दिखाने का वादा करते हुए बे्रक पर चला गया। वैज्ञानिकों की राय को दिखाने का जो दावा उसने किया था उसे ऐसे पी गया जैसे प्यासा पानी को पी जाता है। मैंने बेटे से कहा कि देखा इसने दावा करके वैज्ञानिकों की राय को नहीं दिखाया। इसका मतलब है कि इसने जो खबर दिखाई है वह केवल सनसनी फैलाने के लिए। उसकी खबर पर विश्वास नहीं किया जा सकता। संतोष की बात यह थी मेरी बात से मेरा बेटा सहमत हो गया। लेकिन उन बच्चों को कौन समझाएगा जिनके अभिभावक खुद ऐसी खबरों के प्रभाव में आ जाते हैं।
सवाल उठता है कि या टीआरपी के लिए किसी न्यूज चैनल को इस हद तक चला जाना चाहिए कि वह अपने सामाजिक सरोकारों को ही भूल जाए? खबरों का एक मूल्य होता है जो मानवीयता, नैतिकता, सामाजिकता, संस्कृति और देश के प्रति जवाबदेह होता है। जब इसका उल्लघंन किया जाता है तो उसके खतरनाक प्रभाव समाज, संस्कृति और देश पर पड़ता है। आजकल कुछ न्यूज चैनल शायद इस बात को भूल गए हैं। उनके लिए टीआरपी इतनी अहम हो गई है कि वह कुछ भी दिखाए जा रहे हैं, बिना यह सोचे-समझे कि इसका समाज पर या प्रभाव पड़ेगा। शायद यही वजह थी कि पिछले दिनों केंद्र सरकार ने न्यूज चैनलों पर शिकंजा कसने का प्रयास किया था। हालांकि इसका समर्थन नहीं किया जा सकता कि सरकार खबरों को सेंसर करे, लेकिन यदि न्यूज चैनल ऐसे ही चलते रहे तो सरकार के लिए मजबूरी हो जाएगी कि वह इन्हें पत्रकारिता सिखाए। इसके लिए उसे जनसमर्थन भी मिल जाएगा। यदि ऐसी स्थिति आती है तो इसके लिए ऐसे न्यूज चैनल ही जिम्मेदार होंगे जो विवेकहीन होकर सनसनी फैला रहे हैं।

3 comments:

Udan Tashtari said...

जो टीवी दिखा रहा है वो बच्चे सुन सीख रहे हैं. अभिभावकों को इस पर उन्हें गाइड करते रहना होगा लगातार और थोड़ा ज्यादा समय उन्हें समझाईश पर लगाना होगा.

टीवी तो हर बिकाऊ चीज लाता ही रहेगा.

सतीश पंचम said...

इस मुद्दे पर तो मैं समझता हूं एसे चैनलों को लोग खुद-ब-खुद देखना बंद कर दें तो शायद इन बेहया चैनल्स को थोडी अक्ल आए। मैं खुद एक दो न्यूज चैनल छोड, बाकी को SKIP कर चुका हूं।

Word Verification को हटा दें तो सभी टिप्पणीकारों को आसानी हो जाय।

मृत्युंजय कुमार said...

pancham ji, sujhaw ke liye thanx. word verification hata diya gaya hai.