Monday, 25 August 2008

एक कसक थी मन में


वेद विलास उनियाल
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एक सुबह विविध भारती पर बड़े गुलाम अली का एक भजन मन को बेहद सुकून दे गया। इस मायने में भी कि पिछले दिनों संसद में गुरु घंटालों की कारगुजारियों को देख मन व्यथित था। अभी ज्यादा व त नहीं हुआ हमारे सैनिक कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ते हुए विपरीत स्थिति में आतंकवादियों से जूझ रहे थे। सैनिकों के शहीद होने की खबरें आती थी। पूरा देश गमगीन था और साथ ही अपने जवानों की शौर्य गाथा से अभिभूत भी। तब भी मन में यही कसक हुई थी। एक तरफ हमारे जवान सियाचीन करगिल जैसी ऊंची पहाड़ियों पर तैनात होकर देश की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, दूसरी तरफ हमारे नेता किस तरह इस देश की अस्मिता पर प्रहार कर रहे हैं। बेशक उनकेपास टीवी के माइक पर बोलने के लिए ऊंची आवाज है, उनके पास चमकता कुर्ता है, विरोधियों को चित्त करने के लिए फुहड़ डिबेट है। लेकिन, अगर उन्हें कुछ याद नहीं रहता तो शायद यही कि हर बार सीमा से हमारे कुछ सैनिक अधिकारियों के शहीद हो जाने की खबर रह-रह कर आती है।
संसद में नोट उछालने का वह दृश्य दिखा तो बहुत याद करने पर भी याद नहीं आया कि किसी मारधाड़ या स्टंट फिल्म के किसी सीन में इतने रुपए एक साथ देखे होंगे। नहीं याद आया। भारतीय मध्यम वर्ग का आम आदमी इतने रुपए तो फिल्म के पर्दे पर ही देखता है। यहां के जासूसी उपन्यासों में भी पैसों की बात होती है तो लेखक दस पांच लाख रुपए तक ही बात सीमित रखते हैं। तब करोड़ रुपए संसद के पटल पर रखे जा रहे थे। इस बात की उत्सुकता नहीं कि रुपए कहां से आए और किसने दिए। राजनीति के पतन में अब सब कुछ किसी भी स्तर तक हो सकता है। एक करोड़ नहीं प्रत्येक दलबदलू को पचास करोड़ भी चाहिए तो कुछ नेता कहे जाने वाले बिचौलिए उसका भी इंतजाम कर लेंगे।
बात फिर एक क्षण की। विविध भारती सुनने के लिए रेडियो स्विच ऑन किया तो ठुमरी पर कार्यक्रम चल रहा था। ठुमरी और वह भी बड़े गुलाम अली की। शायद सावन के महीने में विविध भारती ने समझ कर बड़े गुलाम अली की ठुमरी हरी ओम तत्सत को सुनाया होगा। इस भजन से अपनी पुरानी स्मृति जु़डी है। बचपन की याद है पिताजी ने कभी कहा था हरि ओम तत्सत, महामंत्र है, ये जपा कर, जपा कर, बड़े गुलाम अली ने बहुत भावविभोर होकर गाया है, कभी जरूर सुनना। फिर बाद में कहीं और भी जिक्र हुआ था। पर इस भजन को कहीं सुन नहीं पाया था। इसकी चाह में जगह जगह घूमा। मुंबई के रिदम हाउस, दिल्ली के बाजारों, दून का पल्टन बाजार, और भी बहुत जगह। बड़े गुलाम अली की कई कैसेट सीडी देखीं पर यह भजन नहीं दिखा। फिर एकाएक रेडियो पर उद्घोषिका ने बड़े गुलाम अली की ठुमरी का जिक्र करते हुए इस भजन का जिक्र किया तो मन चहक उठा। बरसों मन की चाह पूरी हो रही है। कुछ ही पलों में बड़े गुलाम अली की सधी आवाज गूंज रही थी। मैं सुन रहा था,
...एक दिन पूछने लगी शिव से शैलजा कुमारी, प्रभु कहो कौन सा मंत्र है कल्याणकारी, कहा शिव ने यही मंत्र है तू जपा कर जपा कर हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत। लगी आग लंका में हलचल मची थी, तो यों कर विभिषण की कुटिया बची थी, यही मंत्र उसके मकां पर लिखा था हरी ओम तत्सत, हरी ओम तत्सत।.... उस साधक के स्वरों में मैं खो सा गया। जहां अमृत का रस बरसता हो वहां हमारी नई पीढ़ी इससे अनजान यों है। मुझे थोड़ा तंज भी हुआ कि मुंबई में रहते मैंने विविध भारती में कमल शर्मा और यूनुस खान से इस भजन की चर्चा यों नहीं की। और तमाम गीत संगीत पर तो साथियों से जब-तब बातें होती रहती थी। वह मुझे कुछ न कुछ बताते। लेकिन, अब ही सही, मुझे वह सुनने को मिला जिसे पाने के लिए मैंं बहुत घूमा फिरा। वह स्वर मेरे कानों मेंं अब भी गूंज रहे हैं। सच कितनी संपन्न विरासत है हमारी। आप को भी यह सुनने को मिले तो जरूर सुनिएगा।

1 comment:

Anwar Qureshi said...

बहुत अच्छा लिखा है ..