Monday, 25 August 2008
समाज के विकास से जोड़कर देखना होगा खेलों को भी
ओमप्रकाश जी ने गंभीर सवाल उठाया है। मगर क्या हमें खेलों के परती हमारे रवैया को ऐतिहासिक नजरिये से नही देखना चाहिए । साहित्य , कला , विज्ञान या फ़िर खेल इन सभी विधाओं का विकास उन्ही समाजों में हुआ है जंहा समाज के ढांचे में आर्थिक विकाश हुआ है। अमेरिका , ब्रिटेन या फ़िर इस बार का ओलंपिक सिरमोर चीन हो। अनिल जी जिस चीज को तानाशाही कह रहे हैं दरअसल वह तानाशाही नही बल्कि १९४९ में हुई क्रांति के बाद का व्यवस्थित विकास है जिस के चलते लोगों की मुलभुत जरूरतें पूरी हुई और लोगों ने मनोरंजन के दुसरे साधनों के बारे में सोचने की फुरशत मिली । मगर भारत जैसे समाज में जंहा तीन बेटे पैदा होने पर बाप सोचता है की तीनो को ढाबे पर लगाने से ८०० रुपये परती माह के हिसाब से २४०० रुपये घर आयेंगे वंहा कौन ५००० रुपये महीने के स्वीमिंग पुल की फीस भर कर अपने बेटे को फेलेप्स सा तैराक बना पायेगा । कुछ लोग उदाहरण देते हैं की फलां खिलाड़ी आभाव में भीं मैडल जीत गया । ऐसे लोग तकनीक को भूल जाते हैं जो किसी भी खेल में बहुत मायने रखती है। किसी अख़बार में पढ़ा की अभिनव बिंद्रा की ट्रेनिंग पर दस करोड़ का खर्च आया । कुछ लोग सवाल कर रहे हैं की एक अरब की आबादी में केवल एक गोल्ड मैडल आना शर्म की बात है। भाई , जिस समाज में आधे से ज्यादा आबादी ठीक से पेट नही भर पति वंहा खेल कूद बेमानी है । यही कारन है की कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माता पिता अपने बेटे को आई टी आई या पोलिटेक्निक का सपना दिखाते हैं तो अच्छी स्थिति वाले डाक्टर या इंजिनियर का। मगर सवाल सबके सामने एक ही है रोटी का। जिस समाज में रोटी का सवाल हल नही होगा वंहा खेल कूद का सवाल उलझा रहेगा । इसलिए समाज की वास्तविक अर्थों में आर्थिक तरक्की हुए बिना खेल कूद, कला साहित्य में तरक्की मुस्किल है । हाँ अपवाद हर समाज में मिल जाते हैं
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जिस समाज में आधे से ज्यादा आबादी ठीक से पेट नही भर पति वंहा खेल कूद बेमानी है । यही कारन है की कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माता पिता अपने बेटे को आई टी आई या पोलिटेक्निक का सपना दिखाते हैं तो अच्छी स्थिति वाले डाक्टर या इंजिनियर का। मगर सवाल सबके सामने एक ही है रोटी का। जिस समाज में रोटी का सवाल हल नही होगा वंहा खेल कूद का सवाल उलझा रहेगा ।
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