Sunday 10 May, 2009

चुनाव सभाआें में फिल्मी सितारे

विनोद के मुसान
भारतीय राजनीति में नेताआें की छवी जनता के बीच कितनी दूषित हो चुकी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लोकसभा चुनाव में साफ देखने को मिल रहा है। वे भीड़ को देखने के लिए तरस रहे हैं, लेकिन जनता उन्हें घास नहीं डाल रही। थक-हारकर उन्हें वह हत्थकंठे अपनाने पड़ रहे है, जो मर्यादित राजनीति को शोभा नहीं देते। स्टार प्रचारकों के नाम पर चुनावी सभाआें में उन लोगों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। फिल्मी पर्दे पर अभिनय कर एक हद तक भीड़ खिंचने वाले फिल्मी सितारे अब राजनीतिक मंचों की शोभा बनने लगे हैं। यहां भी यह लोग एक हद तक भीड़ खिंच लेते हैं, जिसको हमारे राजनेता अपनी उपलब्धि समझने की भूल कर रहे हैं। 
दरअसल फिल्म पर्दे की चकाचौंध के बाद जब फिल्म सितारे यकायक पब्लिक से रूबरू होते हैं, तो भीड़ भी उमड़ पड़ती है, यह वह भीड़ होती है, जो अपने चहेतों स्टार को करीब से देखने आती है। न की इन्हें बुलाने वाले नेता को। यही वजह है कि चुनावी रैलियों जनता के मुद् दे गौण हो रहे हैं। सभा से बाहर निकलने के बाद लोग बात करते हैं कि फंला अभिनेत्री ने या पहना था, वह बार-बार अपने बालों को झटके दे रही थी। अरे, उस अभिनेता की तो जींस फटी थी, फटी थी...नहीं-नहीं, यह तो फैशन है। नेता जी ने अपने भाषण में या कहा, या नहीं कहा। इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं। भीड़ पहुंच गई। दिल्ली से आए बड़े नेता जी भी खुश। लेकिन यह हत्थकंडा भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा। एक समय के बाद भीड़ नेताआें की तरह फिल्मी लोगों को भी नहीं पूछेगी। 
हालांकि चुनाव आयोग की सख्ती के चलते चुनावी सभाआें के मंच पर इस बार भाै़ंडे डांस नहीं दिखाई दिए। जिनको लेकर चुनाव चर्चाआें का विषय बनता था। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो यह आम बात थी। पब्लिक को रिझाने के लिए नेता लोग जो न कर जाएं, वह कम है।  
आफ बीट लोग कहते हैं, फिल्म वाले पैसा लेकर प्रचार करने आते हैं, इसमें भी दोराय नहीं है, योंकि इसी चुनाव में कुछ फिल्मी सितारों को एक दिन एक पार्टी तो दूसरे दिन दूसरी विपक्षी पार्टी का प्रचार करते देखा गया। टीवी चैनलों पर भी खूब शोर मचा। दोस्तीऱ्यारी और रिश्ते निभाने तक तो ठीक है, लेकिन पैसा लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था केलिए चुने जाने वाले सदस्यों के लिए प्रचार करना शोभा नहीं देता।
एक समय था जब चुनावी मंचों पर देश की नई तस्वीर तय होती थी। बड़े-बड़े मुद् दों पर बहस होती थी। शालिन अंदाज में विपक्ष की धज्जियां भी उड़ाई जाती थी। लोग दूर-दूर से नेताआें को सुनने आते थे। सभा से बाहर निकलने के बाद लोग आपस में बहस करते थे। लेकिन वर्तमान राजनीति का चेहरा इस कदर विकृत हो चुका है कि इसमें इन बातों के लिए कोई जगह नहीं है। 

Saturday 2 May, 2009

मुद् दों का सौदागर

विनोद के मुसान
नेता जी के आराम में खलल डालते हुए उनके सेके्रटरी चमच्च लाल ने तेजी से कमरे में प्रवेश किया और बोले, 'सर हमारी कान्सीटेंसी में 'मुद् दों` का सौदागर घूम रहा है।` 'कहो, तो बुला लाऊं।` 'पिछले चुनाव के बाद अबकी बड़ी मुद् दत के बाद दिखाई दिया है। कहीं ऐसा न हो, पिछली बार की तरह इस बार भी विपक्षी दल के लोग उसे लपक ले जाएं और हमारे हाथ इस बार भी खाली रह जाएं।` 'वैसे पिछली बार तो जुगाड़ से काम चल गया था, लेकिन इस बार या होगा।` नेता जी ने बड़ी सी जमाही ली और बोले, 'कौन-कौन से मुद् दे हैं इस बार सौदागर की झोली में।` 'महाराज, वो तो उसे बुलाने पर ही पता चलेगा।` 
'कहो तो, बुला लाऊं`। 'हां,` 'लेकिन रूको।` 'पहले इस बात की तफ्तीश कर लो, या इस बार मुद् दों की जरूरत है भी या नहीं।` 'जहां तक मेरी जानकारी है इस बार बड़ी-बड़ी पार्टियां भी बिन मुद् दई चुनाव लड़ रही हैं।` 'कहीं ऐसा न हो उसे बुलाकर हम बेकार का खर्च सिर मोल ले लें।` 'चुनाव आयोग का या भरोसा इसे भी हमारे चुनाव खर्च में ही जाे़ड लेगा।` 'फिर भला उसके पास इस बार कौन से नए मुद् दे होंगे। दशकों पहले हमने जो मुद् दे चुनाव के व त जनता के बीच रखे थे, वह आज भी वैसे ही हैं।` 'हर बार गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद और जनता को बरगलाने वाली कुछ नई योजनाएं इस बार भी चला देंगे। वैसे भी जनता के बीच अब ये मुद् दे बाजार में खोटा सि का चलाने जैसी बात है।`
 'जनता के पास ही इन बातों के लिए समय नहीं, तो भला हम यों मथापच्ची करें।` 
 'लोकतंत्र का यह महापर्व अब रस्मी अनुष्ठ ान बन गया है। जिसे पूरा करने के लिए अगर मुद् दों के सौदागर के पास कोई बूटी हो तो जरूर उसे बुला भेजो।` 'वैसे भी आतंकवाद पर एक पार्टी का कब्जा है, दूसरी परमाणु करार को लेकर चिंतित है, तीसरे हॉट मुद् दे का मुद् दा भी तीसरे र्मोचे ने लपक लिया है।` 
'मंदी को लेकर हम जनता के बीच जाना नहीं चाहते, योंकि यही असली मुद् दा है।` 'अगर गए तो कल जवाब देना पड़ेगा। इसलिए मुद् दों की बात न ही करो, तो ज्यादा अच्छा है। वैसे तो जनता की याददाशत बहुत कमजोर होती है, लेकिन बात जब सतही मुद् दों की आती है तो कोई भी 'जवाब हाजिर` हो सकता है।`
'जनता को मुद् दों की याद दिलाकर, अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात होगी। इसलिए अच्छा यही होगा, मुद् दों केसौदागर को न ही बुलाओ।` 'आगे काम की बात सोचो।` 'चुनाव जीतने के बाद किस पार्टी की गोद में बैठें और अभी किस की यारी प्यारी है।` 
नेता जी के तर्क सुनकर सके्रटी भी सोचने लगा, जब मुदई ही मुस्तैद नहीं है, तो भला चम्मच लाल यों अपनी चम्मची चमकाए।