Thursday 31 January, 2008
मीडिया में महिलाएं और देह का दुर्गद्वार
मीडिया मुखर होता है समाज में घटित अपराधों, उत्पीड़नों के खिलाफ। समाज के किसी वर्ग के साथ हुए अन्याय को वह स्वर देती है। खासकर महिलाआें के साथ किसी अभद्रता और उत्पीड़न को लेकर यह मीडिया कुछ ज्यादा ही सेंसेटिव होता है, होना भी चाहिए। लेकिन सच का एक पहलू यह भी है कि इसी मीडिया में महिलाआें की भागीदारी, उनके साथ बर्ताव सवालों के घेरे में है। मैं भी इस मुद्दे को नहीं उठाता अगर एक महिला मीडियाकर्मी ने अपना सच साझा नहीं किया होता।
हमारे साथी पहले भी सवाल उठाते थे कि फलां लड़की अभी आई और बिना खास योग्यता के तुरंत ही तर की की सीढ़ियां चढ़ती चली गई, आखिर यों और कैसे? ये सवाल अधिकतर मीडिया संस्थान के पत्रकारों के पास हैं और आपसी बातचीत मेंं वे खुलकर इसे शेयर भी करते हैं। बाद में जब उस लड़की ने अपने दो तीन संस्थानों के अनुभव सुनाए तो यही लगा कि मीडिया में तर की के लिए देह कई बार रोड़ा साबित होती है तो कई बार सीढ़ी का काम करती है। कई वरिष्ठों ने उसके सामने शरीर समर्पण की पेशकश रखी थी और कुछ अन्य लड़कियों की तर की का उदाहरण भी दिया था। जो इसे स्वीकार कर लेती हैं वे आगे बढ़ जाती हैं और न मानने वाली लड़कियां अगर जीवट की नहीं होतीं तो दूसरी नौकरी की तलाश करती हैं या घर बैठ जाती है। 'टीमलीज सर्विसेज` द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक कार्यस्थलों पर रोमांस की कई वजहें हैं। लंबी कार्य अवधि, सहकर्मियों से निकटता और पदोन्नति के लिए इसका इस्तेमाल कार्यस्थलों पर रोमांस की प्रमुख वजहें हैं। वेतन वृद्धि और पदोन्नति पाने का सबसे आसान और सीधा तरीका बॉस के साथ रोमांस हो सकता है।
आप कह सकते हैं कि यह तो सभी आफिसों का सच है। पत्रकार भी समाज का हिस्सा हैं लेकिन चौथा स्तंभ होने के नाते यहां नैतिक जिम्मेदारी बढ़ जाती है। अभी हाल ही में एक वरिष्ठ पत्रकार और चैनल के एडीटर इसलिए पैदल से कर दिए गए योंकि किसी बैंक के एटीम रूम में ही वे अपनी सहकर्मी के साथ रासलीला करते धरे गए। कहीं मजबूरी होती है तो कहीं जबरदस्ती तो कहीं इस्तेमाल। जो कुछ नहीं कर पाते वह निगाहों से ही कपड़े फाड़ते रहते हैं। यह पुरूष और स्त्री किसी एक पर नहीं दोनों पर लागू होती हैं। हंस ने जब मीडिया केंद्रित कहानियों का अंक निकाला तो उसमें भी यही गलाजत भरी हुई थी। अधिकतर के अनुभवों का दायरा इस खास बिंदु पर सिमटा हुआ था।
इस परिदृश्य को किस नजरिए से देखा जाए, इस पर बहस जरूरी लगी। इसी के लिए इस मीडिया केंद्रित ब्लाग पर अनुभव आमंत्रित किए गए। इस कड़ी में कल वरिष्ठ पत्रकार संजय मिश्रा की टिप्पणी इसी ब्लाग पर देख सकते हैं।
Monday 28 January, 2008
कैसा महसूस होता है?
तुम कौन हो
तुम्हारी अहमियत क्या है
तुम्हारी खबर यों छापें
क्यों दिखाएँ अपने चैनल पर
तुम्हारी बेटी की इज्जत
लुट गई तो क्या हुआ
गलती तुम्हारी ही है
क्यों रहते हो झुग्गी में
क्यों नहीं है उसमें मजबूत दरवाजा
दरवाजा नहीं होगा तो
कोई न कोई घुस ही जाएगा
क्या तुम्हारे पास घटना की
कोई लाइव या स्टिल फोटो है
नहीं तो इसमें बिकने लायक क्या है
लोग इसे क्यों देखेंगे
उन्हें इस खबर में क्या थ्रिल मिलेगा
तुम्हारी बेटी की इज्जत तो लुट गई
पर बिना मसाले के खबर नहीं बनेगी
न ही इस पर आएगा एसएमएस
जिससे होती है कमाई
बुरा मत मानना
आखिर टार्गेट रीडर या दर्शक
का भी खयाल रखना है
अगली बार जब भी कुछ
ऐसा हो तो प्लीज कैमरे की
व्यवस्था जरूर करना
नहीं तो हमें खबर कर देना
हमारे फोटोग्राफर पहुंच जाएंगे
तुम्हें भी मिलेगा इसका लाभ
पब्लिसिटी मिलेगी
हमारी खूबसूरत एंकर रिपोर्टर
पूछेगी तुम्हारी बेटी से सवाल
कैसे हुआ था बलात्कार
उस समय
तुम्हें कैसा महसूस हो रहा था?
Sunday 20 January, 2008
विश्व पुस्तक मेले का कैसे सेट हो सकता है एजेंडा?
मुझे लगता है कि इस प्रतिभा का इस्तेमाल हम दिल्ली में होने वाले विश्व पुस्तक मेले का एजेंडा सेट कर सकते हैं। एजेंडा सेट करने का मतलब यह है कि मीडिया नारद से जुड़े साथी हिंदी में पिछले एक साल क्या कुछ लिखा पढ़ा गया है, कितना कूड़ा और कितना सार्थक है। पाठक क्या पढ़ सकता है। आत्मकथाएं, जो इन दिनों प्रचलन में है, के अलावा हिंदी में नया क्या हो रहा है। साहित्य के नाम पर हिंदी में अनुवाद के अलावा विदेश क्या है। कहानी, कविता के अतिरिक्त क्या-कुछ पढ़ा लिखा जा रहा है। प्रकाशन संस्थान क्या कर रहे हैं। दस किताब छाप कर एक प्रकाशक ग्यारहवीं किताब कैसे तैयार कर लेता है। धर्म व योग के नाम पर हिंदी के पाठकों को कैसे जाहिल बनाने का काम प्रकाशक व लेखक कर रहे हैं।
अब यह सब मीडिया नारद में कैसे हो सकता है। इसे जल्द से जल्द तय कर लें, तो विश्व पुस्तक मेले में जब हम जाएंगे, तो मालूम होगा कि कौन सी किताब खरीदनी है और कौन सी पढ़नी है।
Thursday 17 January, 2008
देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये
ओमप्रकाश तिवारी ------------------
हिंदी के कहानीकारों और कवियों का यदि सर्वे किया जाए तो पाया जाएगा कि अधिकतर रचनाकार गांव की पृष्ठ भूमिसे हैं या थे। लेकिन इसी के साथ शायद यह तथ्य भी सामने आ जाए कि किसी भी लेखक (अपवाद मुंशी प्रेमचंद) ने ग्रामीण समस्या, किसान समस्या, खेतिहर मजदूरों पर प्रमाणिक, तार्किक और वस्तुपरक रचना शायद ही की है। मुंशी प्रेमचंद ने अपना अधिकतर लेखन इन्हीं विषयों या इनके ईद-गिर्द किया। गोदान और रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद के ऐसे उपन्यास हैं जो न केवल किसान, दलित, खेतिहर श्रमिकों की समस्याआें पर केंद्रित हैं, बल्कि यह विश्वस्तरीय रचनाएं हैं। इसके बाद व्यापक फलक पर (मेरी समझ से) जगदीश चंद्र ने इस ओर ध्यान दिया है। लेखक और आलोचक तरसेम गुजराल लिखते हैं कि प्रेमचंद ने गोदान में होरी को छोटे किसान से भूमिहीन मजदूर के रूप में स्थगित होते दिखाया है। इसी तरह जगदीश चंद्र के उपन्यास 'धरती धन न अपना` उपन्यास में भूमिहीन दलित सामने आया है।` इसके अलावा जगदीश चंद्र के दो उपन्यास 'नरककुंड में बास` और जमीन अपनी तो थी` उपन्यासों की चर्चा की जाती है। मेरे मित्र अमरीक, जोकि हिंदी साहित्य के खूंखार और प्रोफेशनल पाठक हैं, कहते हैं कि किसानों, दलितों, भूमिहीन श्रमिकों पर जगदीश चंद्र का लेखन सराहनीय है। वैसा लेखन प्रेमचंद के बाद अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता।
हो सकता है और भी किसी लेखक ने किसानों पर लिखा हो। जो अनदेखा रह गया। अचर्चित रह गया। यह भी हो सकता है कि मैं ही उस बारे में अज्ञान हूं, लेकिन इतना तो सच है कि गांव की पृष्ठ भूमि और किसान पृष्ठ भूमि से आने वाले अधिकतर लेखक इस समस्या की अनदेखी करते रहे हैं। अब लंबे अंतराल के बाद कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास 'आखिरी छलांग` किसान समस्या पर आया है। 'नया ज्ञानोदय` के जनवरी २००८ के अंक में प्रकाशित यह रचना अंधेरी सुरंग में किसी रोशनी से कम नहीं है। इस उपन्यास में एक लोकगीत की चर्चा है।
'देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये`
मेरे ख्याल से यही लाइन इस उपान्यासकी जान है। यही इसकी विषयवस्तु भी है। कंटेंट भी। किसानों की दुर्दशा और हालात पर यह लाइन बिल्कुल सटीक बैठती है। इस पंि त को जब मैं पढ़ रहा था तब भारतीय शेयर बाजार हिरण की तरह कुलाचे भर रहा था। अनिल अंबानी धीरूभाई गु्रप की कंपनी रिलायंस पावर का आईपीओ शेयर बाजार में उतारा गया था। दूसरे ही दिन इस कंपनी के प्रारंभिक इश्यू के लिए १४ गुना सब्सक्रिप्शन मिल चुका था। कंपनी द्वारा जारी किये गये २२।८०_करोड_शेयरों के मुकाबले ३१५।८७_कराे़ड शेयरों के लिए आवेदन प्राप्त हो चुके थे। छोटे-छोटे_शहरों के टर्मिनलों में रिलायंस पावर के शेयर खरीदने वालों की भीड उमड़ पड़ी थी। कंपनियों के दफ्तरों में कर्मचारी इसी आईपीओ_की बात करते नजर आते रहे। भारतीय शेयर बाजार में ऐसा कमाल पहली बार हुआ। इससे यह समझा जा सकता है कि नौकरीपेशा वर्ग की आय बढ़ी है। देश का एक वर्ग है जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बाद इतना कमा पा रहा है कि वह शेयर बाजार में निवेश कर सके। लेकिन यह वर्ग कितना बड़ा है। यह सोचने की बात है। दूसरी ओर किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। आज देश में दो तिहाई किसानों हैं, जिनकी रोजी-रोटी_का साधन कृषि है, लेकिन अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि का योगदान दिनप्रतिदिन घटता ही जा रहा है।
जिस समय रिलायंस पावर के शेयरों को खरीदने के लिए देश का एक वर्ग बेताब दिख रहा था उसी समय भारत में हरित क्रांति के जनक रहे एस.एस._स्वामीनायन_किसानों की आर्थिक दशा पर चिंता व्य त रहे थे। उनका कहना था कि भारतीय उप महाद्वीप में मैन्यूफै चरिंग ग्रोथ_इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है जो सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराता है। देश में दो तिहाई (लगभग १.१_बिलियन)_लोग अब भी कृषि पर निर्भर हैं। उनकी रोजी-रोटी_का एक मात्र साधन कृषि ही है, लेकिन ये सभी सरकार की गलत नीतियों के कारण पूरी तरह से उपेक्षा के शिकार हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक तरफ छोटे-छोटे_शहरों में एक वर्ग शेयर बाजार की उछाल पर उछल रहा है। तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत प्रतिपल_एक ऐसी सुरंग में फंसता जा रहा है कि जिसका कोई ओर-छोर_ही नहीं_है। किसान आज किसानी नहीं करना चाहता। उसके पास समस्याआें की भरमार है। उसका जीना मुश्किल हो गया। उसकी भावनाआें को यह लोकगीत अच्छी तरह से अभिव्य त करता है। .....'देसवा_होई गवा सुखारी_हम भिखारी रहि_गये।`
किसान भिखारी हो गया है। वह भीख भी नहीं मांग सकता। वह मौत भी मांगता है तो नहीं मिलती। उसे तो सल्फास खाकर जान देनी पड़ती है। फांसी का फंदा लगाना पड़ता है। ऐसे में शिवमूर्ति_का उपन्यास बहुत ही मौजू है।_लेकिन यह उपन्यास अपेक्षाआें पर खरा नहीं उतरता। शिवमूर्ति_जैसे समर्थ कथाकार से ऐसी रचना की उम्मीद मैं तो या शायद कोई भी नहीं करता। सभी जानते हैं कि शिवमूर्ति_बहुत कम लिखते हैं, लेकिन जो लिखते हैं वह मील का पत्थर साबित होता है। अफसोस की 'आखिरी छलांग` उनकी अब तक की शायद सबसे कमजोर रचना है।
हालांकि नया ज्ञानोदय_के संपादक रवींद्र कालिया_अपने संपादकीय में लिखते हैं कि 'हिंदी में फैशन के तौर पर ग्राम्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा गया है परंतु यह उपन्यास प्रेमचंद_के बाद पहली बार भारतीय किसान के जीवन संघर्षों, कठिनाइयों, अंतरविरोधों_तथा विडंबनाआें को प्रमाणिक और वस्तुपरक रूप से प्रस्तुत करता है।` संपादक के इस दावे पर यह उपान्यास_खरा नहीं उतरता। यही नहीं अपने संपादकीय में किसानों की समस्याआें की जो तस्वीर कालिया_जी ने प्रस्तुत की है उसके एक अंश को भी यह उपन्यास नहीं छू पाता।
आज की किसान समस्या बहुत व्यापक है। कोई भी लेखक यदि जल्दबाजी में इस विषय पर लिखेगा तो शायद ऐसा ही लिखेगा। शिवमूर्ति_जी ने इसकी रचना प्रक्रिया का उल्लेख किया है। वह यह भी कहते हैं कि इसे मात्र १७ दिनों में लिखा है। यह भी बताते हैं कि जो लिखना चाहा था नहीं लिख पाया। इतनी जल्दबाजी में शायद लिखा भी नहीं जा सकता है। जल्दबाजी की वजह समझ में नहीं आई। लेकिन संतोष की बात यह है कि जल्दबाजी में भी उन्होंने जो लिखा वह संपादक के दावे पर बेशक खरा न उतरा हो, परंतु पाठकों की भावनाआें पर खरा उतरने में जरूर कामयाब होगा। हालांकि रचनाकार किसान समस्या पर लिखने चला था, पर वह बीच में शायद बहक गया और दहेज समस्या में अधिक उलझ गया। कहा जा सकता है कि यह भी किसान की ही समस्या का एक अंश है। जोकि ठीक भी है। लेकिन यदि किसी समस्या का अंश ही कहानी का मुख्य अंश बन जाए तो शायद यह ठीक नहीं कहा जाएगा।
यह भी सच है कि आज की किसान समस्या इतनी व्यापक है कि आप केवल दो-चार_पात्रों के माध्यम से उसे अच्छी तरह से नहीं उकेर सकते। 'आखिरी छलांग` में यही कमी खलती है। इसमें केवल एक मुख्य पात्र है पहलवान। शेष चरित्र इस पात्र की सहायता में आते हैं और चले जाते हैं। उनका विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि पूरी कहानी में पहलवान के बाद ऐसा कोई चरित्र जीवंत नहीं हो पाता।
एक और बात। संपादक रवींद्र कालिया_ने इसे उपान्यास_कहकर छापा है। संपादकीय में लघु उपान्यास_लिखा है जबकि यह एक लंबी कहानी ही हो सकती है। यदि हम इसे उपान्यास_मानें और कालिया_जी के दावे को खारिज करते हुए एक कहानी के तौर पर पढ़ें_तो शायद यह उचित होगा। इससे लाभ यह होगा कि फिर हम रचना में उन दावों को नहीं खोजेंगे, जोकि किया गया है। हम रचना को पढ़ेंगे और जो उसमें है उसके अनुसार उसे सझेंगे।_ऐसा करने पर पाठक शायद रचना को बेहतर समझ पाएगा। मुझे लगता है रचना में खराबी नहीं है, बल्कि दावे करके पाठकों की अपेक्षाआें को जो हाइप_दी गई है, यह उस पर खरा नहीं उतरता। रचना पर यदि कोई दावा नहीं किया जाता_तो तो इसका एक स्वतंत्र फ्रेम बनता, जोकि ज्यादा सार्थक होता।
देखा जाए तो रचना में या नहीं है। रचना की शुरूआत होती है-'पहलवान_ने चरी का बोझ चारा मशीन के पास पटका तो पास में सोया पड़ा कुत्ता चौंककर भौंकते हुए भागा।` इस एक वा य से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किस शैली में और कितने सरल व सहज भाषा में रचना की शुरुआत होती है। यह वा य पूरा होते-होते_पाठकों के दिमाग में गांव की तस्वीर उभर जाती है। (जिसने गांव देखा है उसके) पाठक सीधा गांव पहंुच_जाता है, और एक किसान की छवि उसके दिमाग में बनती है।_कहानी में ऐसे दृश्यों की भरमार है। इसके अलावा देशज और स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी सहज-सरल_और पात्रानुकूल_किया गया, जिससे रचना ग्रामीण जीवन से आसानी से जु़ड जाती है।
हालांकि रचना की पृष्ठभूमि जिस क्षेत्र की है उससे बाहर के पाठकों को इसे समझने में दि कत आ सकती है। मसलन जिन शब्दों को पढ़कर मैं गदगद हो रहा था उन्हीं शब्दों को मेरे मित्र अमरीक_अपनी डायरी में नोट कर रहे थे मुझसे पूछने के लिए। रचना की भाषा-शैली_बेजाे़ड है। प्रवाह भी देखते-पढ़ते_ही बनता है। हां, कहीं-कहीं_पर किसी-किसी_पात्र से ऐसी बौद्धिक बातें कहलवाई गईं हैं जो गले की नीचे नहीं उतरतीं और खटकती हैं। विश्वास भी नहीं होता। साफ लगता है कि लेखक अपना ज्ञान उड़ेल रहा है।
पत्रिका के संपादक के दावे को दरकिनार करके यदि इसे पढ़ा जाए तो यह एक अच्छी कहानी है। मैं इसे किसान समस्या से अधिक दहेज समस्या पर आधारित कहानी मानता हंू।_हालांकि यह मेरी अपनी समझ हो सकती है। समझने की मेरी अपनी सीमाएं हैं। लेकिन इसे पढ़ने के बाद जो महसूस किया वह यहां व्य त कर दिया। इतना जरूर कह सकता हंू_कि किसानों की समस्या पर यह रचाना एक शुरुआत भर है, जो बंद नहीं होनी चाहिए। उम्मीद है कि शिवमूर्ति_जी किसान समस्या पर एक बेहतर_रचना के साथ सामने आएंगे। उन जैसे लेखक से ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
Wednesday 16 January, 2008
इस जमीन पर नहीं टिमटिमा सकते तारे
'तारे ज़मीन पर' को टैक्स फ्री कर दिया गया। आडवाणी उस फिल्म को देखकर रो पड़े (ये वही आडवाणी हैं जिनकी पार्टी के मुख्यमंत्री के राज्य में गुजरात दंगों के दौरान एक गर्भवती का पेट चीरकर भ्रूण निकाल लिया गया था, लोगों को जिंदा जला दिया गया था, महिलाओं पर बलात्कारी पौरुष का प्रदर्शन किया गया था, और वो भी सरकारी मशीनरी और नेताओं की शह पर...और उस समय ये आडवाणी रोए नहीं थे)। अभिभावक बच्चों पर ध्यान दे रहे हैं, उनकी इच्छाओं को समझने का प्रयास कर रहे हैं (ये मैं नहीं कहता, ये तो 'तारे ज़मीन पर' फिल्म के बारे में किसी समीक्षक ने कहा था)। लेकिन क्या 'तारे ज़मीन पर' समस्या की तह में जाने का प्रयास वाकई में करती है? हालांकि, आमिर खान तो कुछ ऐसा ही दावा करते प्रतीत होते हैं, जब वे इस फिल्म के मुख्य किरदार, यानी पढ़ने-लिखने में कठिनाई महसूस करने वाले बच्चे, के माता-पिता से मिलते हैं। उनसे मिलने पर वे पूछते हैं कि क्या आपने बच्चे की परेशानी को समझा, और जब बच्चे के पिता कुछ बातें बताते हैं, तो आमिर का जवाब होता है कि आप लक्षण बता रहे हैं बीमारी नहीं। लेकिन खुद आमिर ने भी इस फिल्म में लक्षण ही बताया है, उसका कारण नहीं।
स्वयं मैं भी फिल्म देखते हुए सतही भावुकता की रौ में बह गया, लेकिन फिल्म खत्म होने के बाद जब मेरे भीतर का आलोचक सक्रिय हुआ तो उसने खुद मेरी सतही भावुकता के साथ ही फिल्म के सतहीपन की चीरफाड़ करनी शुरू कर दी। और तब पता चला कि यह संवेदनशील माने जाने वाली फिल्म भी इस अमानवीय व्यवस्था की ही समर्थक है। एक अच्छी फिल्म या अच्छी कहानी, या उपन्यास जिंदगी की वास्तविक समस्याओं की ओर आपका ध्यान खींचते हैं, भले ही वे कोई रेडीमेड हल प्रस्तुत नहीं करते लेकिन ढेरों सवाल खड़ा करके आपको उन समस्याओं पर सोचने और उनका हल ढूंढ़ने को प्रेरित करते हैं। लेकिन ये फिल्म वास्तविक समस्या के बजाए लक्षणों की बात करती है।
सिर्फ खास समस्या के बच्चे ही क्यूं...हर बच्चा नये समाज की नींव है। लेकिन इस फिल्म में नींव के एक दो पत्थरों पर ध्यान दिया गया है। गरीबों के बच्चों का बचपन तो जीवित रहने और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में ही तिरोहित हो जाता है। लेकिन इस फिल्म में केवल अंत में कुछ गरीब बच्चों को दिखा कर जिम्मेदारी को पूरा मान लिया गया।
आमिर खान फिल्म में जगह-जगह ये तो स्वीकारते हैं कि ये दुनिया बेरहम है, प्रतिस्पर्द्धात्मक है, लोग डॉक्टर इंजीनियर बनाने से नीचे बच्चे के भविष्य के बारे में नहीं सोचते, कला और आंतरिक सौंदर्य का वास्तविक मूल्य नहीं आंका जाता। लेकिन वो भूल जाते हैं कि डॉक्टर, इंजीनियर और दूसरे कमाऊ धंधों (जी हां, अब डॉक्टर होना मानवता का सेवक होना तो है नहीं, वो तो पैसा और उसके मार्फत रुतबा कमाने का जरिया है) में उतारने की ख्वाहिशें इसलिए पनपती हैं कि इस व्यवस्था में, जहां मुनाफा ही भगवान है, पैसा ही मसीहा है, बिना पैसे वाला हुए कोई इज्जत नहीं है, चाहे वो पैसा कैसे भी आए। ऐसे मैं लोग बच्चों के सपनों, उनके बचपन को कुचलने के सिवा क्या कर सकते है। जिस समाज का आधार मुनाफा हो, उसमें हर रिश्ता-नाता, शिक्षा, कला, संस्कृति उसी मुनाफे के तर्क से संचालित होती है। लेकिन आमिर की फिल्म में कहीं भी इस ओर ध्यान नहीं दिलाया गया। दर्शक इस बारे में सोच ही नहीं पाता कि चंद लोगों के हाथों में पूरे समाज की धन-संपदा का मालिकाना सौंपनी वाली व्यवस्था में बहुसंख्या गरीब, निम्न मध्यवर्ग के लोग रोटी खा-कमाकर जीवित तो हैं, लेकिन जिन अमानवीय परिस्थितियों में वो रहते हैं, उसमें बच्चों का विकास हो ही नहीं सकता। ये फिल्म इस सवाल को नहीं उठाती कि तेल के स्रोत पर कब्जा करने के लिए अमेरिकी हमलों और प्रतिबंधों के चलते हजारों बच्चे भूख से मर गए, तो इसका कारण क्या है।
जिस समाज में हजारों बच्चे ढाबों, फैक्टरियों में काम करने को मजबूर है, वहां सारे बच्चे शिक्षा कैसे पा सकते हैं। और कुछ स्कूल तक पहुंच भी जाते हैं, तो खाली तनख्वाह के लिए पढ़ाने वाले अध्यापक बच्चों पर ध्यान क्यों देंगे। निजी स्कूल एक आम बच्चे की पारिवारिक समस्याओं के कारणों की पड़ताल क्यों करने लगे, उन्हें सिर्फ अपने स्कूल की इज्जत की परवाह होती है ताकि ज्यादा से ज्यादा पैसे वाले वहां बच्चों को दाखिला दिलाएं नहीं तो मुनाफा कैसे बटोरेंगे। वहां तो बच्चे का आत्मविश्वास वैसे ही चूर चूर हो जाता है यदि वो अपने दोस्तों की तरह कार में नहीं आता, मोबाइल नहीं रखता, या पिजा बर्गर नहीं खा पता। यानी मुनाफे के लिए पैदा किए गए उत्पादों का उपभोग नहीं कर पाता।
ऐसे समाज में मां-बाप बच्चे को बेहतर इंसान बनाने के बजाय उसे किसी भी तरह खूब रुतबा पैसा कमाने लायक बनाना चाहते हैं। कला साहित्य से ये चीजें तो मिलती नहीं। खाते-पीते मध्यवर्ग के लोग ही अपने बच्चे पर उस तरह ध्यान दे सकते हैं, जिस तरह आमिर खान चाहते हैं। गरीब लोग तो बस इसी की चिंता में रहते हैं कि वो और उनके बच्चे जिंदा कैसे रहें। वो दवा-दारू के अभाव में दम तोड़ते बच्चों को देखते हैं, यदि वो बच भी गया तो उनका बचपन, सपने, हसरतें तो किसी ढाबे, मोटर मैकेनिक की दुकान, फैक्ट्री आदि में स्वाहा हो जाता है। कुल मिलाकर ऐसे समाज पर यह फिल्म सवाल तक नहीं उठाती, जहां बचपन और बच्चों की यही परिणति होती है। वो बुराइयों पर तो ध्यान दिलाती है, लेकिन उसकी जड़ पर नहीं जिनके चलते मां-बाप, अध्यापक मालिकान बच्चों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं। या संवेदनाएं होती भी हैं तो बिल्कुल इस फिल्म के अभिभावकों की तरह। और समस्या की जड़ पर ध्यान देने के बजाय उसके लक्षणों को ही इलाज बताने के चलते आमिर खान की यह फिल्म जाने-अनजाने इस व्यवस्था का समर्थन ही करती है। यह जरूरी नहीं कि इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक ने सचेतन तौर पर ऐसा किया हो, लेकिन हर विचार किसी न किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है और यहां भी तमाम तकलीफों के बावजूद इस समूची व्यवस्था के प्रति कोई सवाल नहीं खड़ा किया जाता।
(यह आलेख शब्दों कि दुनिया ब्लोग से साभार लिया गया है)
Tuesday 15 January, 2008
पहले अपनी गिरेबान में तॊ झांकें
Sunday 13 January, 2008
हिन्दी अखबारों में बिजनेस का उजाला
राजेश रपरिया बिजनेस पत्रकारिता के लिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हिन्दी के पहले समग्र बिजनेस दैनिक अमर उजाला कारोबार उनकी असाधारण क्षमताओं का ही उदाहरण था। आज जब हिन्दी बिजनेस अख़बार के लिए बाजार में होड़ मची है तब उस पर उनकी टिप्पणी का खास महत्व है। पेश है दैनिक हिंदुस्तान में १३ January को छपा उनका आलेख-
हिन्दी पत्रकारिता और खासकर बिजनेस पत्रकारिता के लिए वर्ष 2008 तमाम खुशखबरों को लाया है। हिन्दी दैनिक अखबारों के बिजनेस पेज महज पीआर और टेंडर तक सिमट कर रह गए, तब यह अंदेशा स्वाभाविक है कि हिन्दी बिजनेस पत्रकारिता का आदि और अंत यही है। लेकिन हिन्दी बिजनेस चैनल ‘सीएनबीसी-आवाज’ की रिकॉर्ड सफलता ने अखबार मालिकों को भाषाई दैनिक बिजनेस अखबार निकालने के लिए आंदोलित कर दिया। नतीजा है कि इस साल एक-दो नहीं, तीन-तीन दैनिक हिन्दी बिजनेस अखबार लांच होने जा रहे हैं। भीमकाय ‘इकनॉमिक टाइम्स’, ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ और हिन्दी के सबसे बड़े अखबार ‘दैनिक जागरण’ के हिन्दी बिजनेस अखबारों का घमासान दिलचस्प होगा। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या हिन्दी में एक साथ तीन-तीन अखबार मुनाफा कमाने लायक हालत में पहुंच पाएंगे। जहां तक ‘इकनॉमिक टाइम्स’ और ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ के हिन्दी बिजनेस अखबारों का सवाल है, तो यह मूलत: मूल अखबार की सामग्री पर लगभग शत-प्रतिशत निर्भर होंगे। यानी लगभग अनूदित अखबार होंगे।
‘जागरण टीवी-18’ के गठजोड़ का अखबार कैसा होगा, इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है। इस संदर्भ में हिन्दी के पहले बिजनेस बहुसंस्करणीय सेटलाइट दैनिक अखबार ‘अमर उजाला कारोबार’ के अल्पकाल में ही बंद हो जाने के बाद अखबार मालिकों को ऐसा लगता था कि हिन्दी में बिजनेस अखबार की न कोई जगह है, न कभी थी। शायद यही कारण रहा कि अखबारी दुनिया में बेमिसाल सफलता हासिल करने वाले भास्कर समूह ने ऐन वक्त पर बिजनेस अखबार ‘डीएनए मनी’ को हिन्दी में प्रकाशित करने की बजाए अंग्रेजी में ही निकालना मुनासिब समझा। पर तब भी यह भय बेबुनियाद था, और आज भी है। ‘अमर उजाला कारोबार’ पर लगभग दो साल में तकरीबन खर्च पौने तीन करोड़ रुपए आया था, इसमें पूंजी व्यय भी शामिल है, जो अमर उजाला जैसे समूह के लिए ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ था। असल में यह अखबार बेवक्त शहीद हो गया।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की शुरुआत से ही भाषाई पत्रकारिता के लिए बिजनेस अखबार की जमीन बनने लगी थी। दस साल पहले भी यह जमीन इतनी बंजर नहीं थी कि कोई हिन्दी बिजनेस अखबार उस पर पनप न सके। पर आज यह जमीन बेहद उर्वर हो चुकी है जिसमें ऐसे कई वृक्षों के लहराने की अपार संभावनाएं हैं। मसलन, आप डीमैट खातों को ही लीजिए। शायद अधिकांश लोगों के मुख से डीमैट खातों की सर्वाधिक संख्या के लिए महाराष्ट्र या गुजरात का ही नाम निकलेगा। लेकिन सबसे ज्यादा डीमैट खाते तमिलनाडु में हैं। उत्तर प्रदेश भी इस मामले में महाराष्ट्र और गुजरात से आगे है। जाहिर है कि शेयर कारोबार आज मुंबई या अहमदाबाद की बपौती नहीं रहा है। रिलायंस पॉवर का उदाहरण देखें। इसका इश्यू 15 जनवरी को खुलेगा। इसके चलते पैन कार्ड पाने की प्रतीक्षा अवधि आठ-दस दिन से बढ़कर पच्चीस-तीस दिन हो चुकी है और नए डीमैट खाते खुलवाने के लिए अफरा-तफरी मची है। इन बानगियों से कोई भी समझ सकता है कि भाषाई बिजनेस अखबार का स्कोप कितना व्यापक हो चुका है।
आज आम आदमी के सामने यह समस्या है कि वह अपनी बचत को कैसे निवेश करे। बैंकों की जमा दरें इतनी कम हो चुकी हैं कि महंगाई को बेअसर करने में असमर्थ हैं। भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत पत्रों ने अपनी चमक खो दी है। जमीन जायदाद में निवेश के लिए भारी पूंजी चाहिए, जो 80 फीसदी निवेशकों के बूते के बाहर की बात है। निवेश की विवशताओं और कारोबार की आवश्यकताओं ने भाषाई बिजनेस अखबार का स्कोप असीमित बना दिया है। दस साल पहले देश में म्युचुअल फंड की संख्या नगण्य थी, अब उनकी भरमार है। इनके वैधानिक अनिवार्य विज्ञापनों ने अखबारों की आय के भारी स्त्रोत खोल दिए हैं। सूचीबद्ध कंपनियों के तिमाही विज्ञापन छपना अनिवार्य है। इंश्योरेंस सेक्टर में भी इन अखबारों की आय के लिए अकूत धन छुपा हुआ है। फाइनेंशियल सर्विस, बैंकिंग सेक्टर, प्रॉपर्टी, रिटेल और कंज्यूमरिज्म आदि ऐसे सेक्टर हैं जिनके बिना ‘अतुल्य भारत’ के आमजनों का जीवन अकल्पनीय है। निस्संदेह, छोटे और मझोले शहरों में स्टॉक और कमॉडटि ऑनलाइन ट्रेडिंग के फैलते जाल की महत्ता कारोबारी जगत के लिए ऑक्सीजन से कम नहीं है, लेकिन इन अखबारों सफलता-विफलता उनकी विषय-सामग्री पर ही निर्भर करेगी। जो अखबार पाठकों की आवश्यकताओं को जितना पूरा करेगा, वह वर्चस्व की लड़ाई में उतना ही आगे निकलेगा। क्योंकि अन्य संसाधनों में इस घमासान के कम से कम दो योद्धा एक-दूसरे से कमजोर पड़ने वाले नहीं हैं।
Tuesday 8 January, 2008
आख़िर कौन है नस्लवादी ?
जाहिर है कि नहीं, पहले भी उसके खिलाड़ी प्रतिद्वंदी टीम को चोट पहुंचाने वाली टिप्पणियां करते रहे हैं। बल्कि इसे वे अपना सश त हथियार मानते हैं। क्रिकेट की भाषा में जिसे ..स्लेजिंग.. कहा जाता है दरअसल उस छींटाकशी को आस्ट्रेलिया के खिलाड़ियों ने अपमानजनक रूप दे दिया था। कई जीतों का श्रेय गर्व से वे अपने इस व्यवहार को देते रहे हैं।
लगातार मिल रही जीत ने उनके उल्लास को कब गर्व में और गर्व को दर्प मेंं बदल दिया यह आस्ट्रेलियाई कैप्टनों के क्रमश: बयानों में साफ देखा जा सकता है। जीत की लिप्सा अब कुंठा बन चुकी है। इसलिए हार की आशंका उन्हें बौखला देती है। दरअसल आस्ट्रेलियाई जीत और हार दोनों को ठीक ढंग से पचा नहीं पा रहे। एक मैच के समापन समारोह के दौरान पोंटिंग ने बीसीसीआई के अध्यक्ष शरद पवार को मंच से ध का देकर हटा दिया था। अभी भारत दौरे पर जब श्रीसंत ने उन्हीं की स्टाईल में उन्हें जवाब दिया तो उन्हें बुरी तरह अखर गया और आस्ट्रेलिया दौरे पर बदला लेने का मन बना लिया था।
पहले अंपायर, फिर मैच रेफरी और उसके बाद आईसीसी का पक्षपात पूर्ण रवैये ने भारतीयों को आंदोलित कर दिया। आम तौर पर अंपायर अपनी तरफ से निष्पक्षता बरतते हैं। लेकिन सिडनी जो कुछ हुआ उससे उन पर उंगली उठनी ही थी, उठी। शायद वे आस्ट्रेलियाई टीम के हौव्वे के दबाव में आ गए। लेकिन इसके बाद मैच रेफरी ने जिस तरह से एकतरफा फैसला कर भज्जी को नस्लवादी ठहरा दिया और आईसीसी का रवैया भी उसकेसमर्थन में रहा। इससे साफ हो गया कि क्रिकेट में नस्लवाद है और गोरे देश इसके पोषक हैं। वे आज भी आसानी से इसे स्वीकार नहीं करते कि क्रिकेट में भारत की भी थोड़ी बहुत ताकत है। हालांकि यह ताकत भारत के विकास और दूसरे पहलुआें का प्रतिनिधि नहीं है।
भारत क्रिकेट दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और यही उसकी ताकत है। इसी ताकत के बूत जगमोहन डालमिया आईसीसी को अपने इशारे पर चलाया करते थे। इसी ताकत ने बीसीसीआई को आईसीसी के फैसले को चुनौती देने का माद्दा दिया है। इसलिए जरूरी है कि मामले को बीच में न छोड़ा जाए और भारत सिडनी टेस्ट रद करने के फैसले पर अड़ा रहे और दौरा छोड़कर वापस चला आए। बेशक इसके लिए आस्ट्रेलिया से क्रिकेट संबंधों को तिलांजलि देने की नौबत आ जाए। यही क्रिकेट के नस्लवाद को भारतीय जवाब हो सकता है।
Sunday 6 January, 2008
यह कर्ज क्यों नहीं माफ हो सकता?
फाइल के मुताबिक राज्य के 23 हजार दलितों पर कुल 80 करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है। इसमें कोई भी कर्ज पचास हजार रुपए से ज्यादा नहीं है। फाइल यह भी बताती है कि कर्ज लेने वाले सारे दलित भूमिहीन है और ज्यादातर खेतों में काम करते हैं। यह इस फाइल की कम्लीट कहानी है। अधिकारी को यह पूरी उम्मीद थी कि यह कर्ज माफ करने का आदेश हाथों हाथ हो जाएगा। पर, हुआ कुछ और। मुख्यमंत्री ने यह फाइल अपने पास रख ली। फाइल छह दिन बाद बगैर किसी टिप्पणी के बैरंग लौट आती है। कोई कारण नहीं बताया जाता है।
फाइल और उसकी पूरी कहानी बताने के बाद वह अधिकारी यह सवाल उठाता है कि आखिर यह कर्ज क्यों नहीं माफ हो सकता है। वे कहते हैं देश में किसानों की हालत खराब है। उनका खून चूसा जा रहा है। इसलिए उनके कर्ज को सरकार ने माफ करके अच्छा किया। पर, इन दलितों की हालत कौन सी अच्छी है। खेत नहीं है। इसलिए खेतीहर मजदूर है। खेती में इनका थोड़ा बहुत (?)योगदान तो होगा ही। फिर कर्ज माफी की इस फाइल पर कोई मुख्यमंत्री क्यों नहीं साइन करता है?
Thursday 3 January, 2008
अब जाट तख्त से भी जारी होंगे फतवे
Tuesday 1 January, 2008
यह भी अपने समय का सच है!
पत्रकार प्रशांत को उत्तराखंड की पुलिस ने गिरफ्तार किया है। उत्तराखंड की पुलिस यह बता रही है कि प्रशांत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के जोनल कमांडर है। यह हो सकता है कि पुलिस को कह रही है, वह सच हो। हो सकता है कि पुलिस का यह अारोप बिल्कुल गलत हो। मगर, उत्तराखंड के पत्रकारों को क्या हो गया है, जिन्होंने प्रशांत की गिरफ्तारी की खबर तो छापी, मगर यह नहीं बताया कि वे पत्रकार हैं। उनकी गिरफ्तारी की खबर छापने वाले बहुत सारे वे लोग भी शामिल है, जो प्रशांत को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। फिर भी वहां के अखबारों में यह सच सामने नहीं अाता है कि प्रशांत कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक स्टैट्समैन के पत्रकार हैं। एक अखबार ने लिखा कि प्रशांत सीएलअाई नामक किसी संगठन के जोनल कमांडर हैं। उस अखबार के पत्रकार को सीएलअाई के बारे में कोई जानकारी तो नहीं ही है, सबसे ताजुब्ब की बात यह है कि अखबार के संपादक ने भी यह पता करने की जहमत भी नहीं उठाई कि सीएलअाई क्या बला है और उसमें प्रशांत जोनल कमांडर क्यों थे।
दूसरी खबर :
देवेंद्र शर्मा पहले पत्रकार रहे हैं और अब एनजीओ चलाते हैं और अखबारों में खेती से संबंधित सवाल पर कालम लिखते हैं। कुछ दिन पहले वे मंगलौर में बनने वाले सेज (विशेष अार्थिक जोन) के विरोध में वहां के किसानों को संगठित करने पहुंचे, वहां सेज के पक्षधर संस्थाओं ने उन्हें नक्सली बताते हुए भाडे़ के लोगों से परचे बंटवाए। जगह-जगह यह बैनर टंगवाए कि देवेंद्र शर्मा नक्सली हैं। इनका साथ देने वाले किसानों को भारी नुकसान हो सकता है। वहां के अखबारों में यह खबर प्रमुखता से छपी भी है।