Tuesday 28 September, 2010

क्या देख रहे हैं देश के हुक्मरान यह पाक नहीं हमारी जमीं है हिंदुस्तान

विनोद के मुसान
ईद उल फितर के दिन श्रीनगर के लाल चौक पर जो कुछ घटा, उसे देखकर किसी भी सच्चे हिंदुस्तानी का खून खौल सकता है। लाल चौक पर खड़े एतिहासिक घंटाघर पर एक बारफिर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया। कई सरकारी बिल्डिंगों को आग के हवाले कर दिया गया। वाहन फूंके गए और तोड़फोड़ की गई। मुबारक पर्व पर जितना हो सकता था सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। इससे ठीक पहले दहशतदर्गी फैलाने वाले यह सभी लोग ईद की नमाज अदा कर लौटे थे।
इस देश में रहकर दूसरे देश का झंडा फहराना, जिस थाली में खाना उसी में छेद करने जैसा है। अलगाववादी कुछ लोग कश्मीर की जनता को बरगला कर अपने नाकाम मनसूबों को अंजाम देने में लगे हैं। जिन नौजवानों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं, उनके हाथों में सैन्य बलों को मारने के लिए ईंट और पत्थर दिए जा रहे हैं। मजहब के नाम पर उनकी जवानी को ऐसे अंधकार में धकेलने का काम किया जा रहा है, जहां से शायद ही वह कभी लौटकर वापस आ सकें।
देश का कोई नेता इन हालात को सुलझाने का प्रयास तक करता दिखाई नहीं दे रहा है। धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले और छोटी-छोटी बातों पर धरना प्रदर्शन करने वाले नेताओं की जुबान पर भी ऐसे मौके पर ताला लग जाता है। मीडिया की अपनी सीमाएं हैं। देश में अमन और शांति कायम रखने के लिए लाल चौक के उन दृश्यों को न दिखाने और मामूली कवरेज उस अघोषित रणनीति का हिस्सा होता है, जो लोकतांत्रिक देश की अखंडता के लिए जरूरी भी है।
कश्मीर में रोज खून की होली खेली जा रही है, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। आम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई इस तंत्र को यथावत रखने में लुटाई जा रही है, लेकिन हश्र सबके सामने है। विकास की बात तो दूर, सर्वविनाश करने वाले लोगों को रोका तक नहीं जा रहा है। सब जानते हैं मुठ्ठीभर दहशतगर्द नेता इस माहौल के लिए जिम्मेदार हैं।
उन पर लगाम लगाई जानी चाहिए। साफ होना चाहिए, वे जिस थाली में रोटी खा रहे हैं, उसमें छेद करने की जुर्रत न करें। नहीं तो अपना काला मुंह वहीं जाकर करें, जिसका गुणगान यहां रहकर कर रहे हैं।

Tuesday 10 August, 2010

गरम दूध है, उगला भी नहीं जाता, निगला भी नहीं जाता

विनोद के मुसान
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संबंध में मीडिया में आ रही नकारात्मक खबरों के बाद शायद मेरी तरह प्रत्येक भारतीय दुविधा में होगा। गरम दूध है, उगले या निकले। बात सिर्फ एक आयोजन भर की नहीं है। देश के सम्मान की है। देश की भ्रष्ट राजनीति और अफसरशाही ने एक महा आयोजन से पूर्व देश के सम्मान को चौराहे पर ला खड़ा किया है।
कुछ दिन पूर्व तक प्रत्येक भारतीय का सीना इस आयोजन पर गर्व से फूला जा रहा था, वहीं पूरा विश्व हमारी ओर सम्मान से देख रहा था। लेकिन जैसे-जैसे इस महा आयोजन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, मन में कोफ्त हो रही है। अफसोस हो रहा है इस बात का कि पूरी दुनिया हमारे देश के बारे में क्या सोचेगी। घर की बात होती तो घर में दबा दी जाती। जैसा कि अक्सर होता आया है देश में तमाम घोटाले हुए, कई विवादों ने जन्म लिया और यहीं दफन हो गए।
खेलों से पहले जो ‘खेल’ खुलकर सामने आ गए हैं, उसके बाद किसी भी भारतीय का उत्तेजित होना लाजमी है, लेकिन खेल का दूसरा पहलू यह भी यह ये खेल हमारे आंगन में हो रहे हैं। इनके सफल आयोजन की जिम्मेदारी भी हमारी है। नहीं तो देश-दुनिया में जिस शर्मिंदगी को झेलना होगा, वह इससे कहीं बड़ी होगी। मेरा मानना है मीडिया को भी इस मामले में थोड़ा संयम बरतना होगा। आखिर बात अपने घर में आई बारात की है। खेल सकुशल निपट जाएं, उसके बाद चुन-चुनकर इस भ्रष्टाचारियों को चौराहे पर जूते मारेंगे, जिन्होंने देश केसम्मान तक को दाव पर लगा दिया।

Sunday 20 June, 2010

मर्यादा में रहें, आपका स्वागत है


विनोद के मुसान
ऋषिकेश की हृदयस्थली और प्रमुख आस्था केंद्र त्रिवेणी गंगा घाट पर 13 जून की सुबह श्रद्धालुओं और गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने जापानी पर्यटकों के दल के एक गाइड की जमकर धुनाई कर डाली।
आरोप था कि सप्ताह भर से त्रिवेणी घाट पर सुबह सवेरे जापानियों का यह दल पश्चिमी सभ्यता की तर्ज पर नंगधडग़ होकर गंगा की लहरों में मौज-मस्ती करने आ रहा था। जिससे आस्था के इस केंद्र में श्रद्धालु खुद ही शर्मिंदा हो रहे थे। उन्हें देखने के लिए यहां मनचलों की भीड़ भी लग जाती थी। पुलिस प्रशासन का तो इस ओर ध्यान नहीं गया, लेकिन स्थानीय लोगों ने विदेशियों के स्वदेशी गाइड को इस तरह की हरकतों से बाज आने को कहा। लेकिन वह नहीं माना। रविवार को सुबह जैसे ही गाइड विदेशी पर्यटकों को लेकर त्रिवेणी पहुंचा। गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने गाइड की जमकर धुनाई कर दी।
घटना के बाद सवाल उठना लाजमी है कि यह कितना सही है और कितना गलत? एक ओर जहां हम पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए तमाम योजनाएं चलाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके साथ इस तरह का व्यवहार कहां तक सही है?
ऋषिकेश शुरू से ही विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। विदेशी सैलानी यहां आकर गंगा तट पर अपार शांति प्राप्त करते हैं। टू-पीस बिकनी में गंगा तटों पर लेटे सन-बाथ लेना और अठकेलियां करना उनके लिए आम बात है। स्थानीय लोग भी पश्चिमी सभ्यता के इस रूप से भली-भांति परिचित हैं। इसलिए उन्हें कोई परेशान भी नहीं करता। वे स्वच्छंद रूप से गंगा तटों पर इसी तरह विचरण करते हैं। लेकिन दिक्कत तब होती है, जब ये सैलानी आस्था के उन घाटों पर इस तरह का व्यवहार करते हैं, जहां हिंदू संस्कृति इस बात की इजाजत नहीं देती।
हिंदुओं के लिए गंगा जल में स्नान करना आज भी कई जनमों में कमाए गए पूण्य के समान है। जबकि कुछ सैलानी इन घाटों पर ठीक उसी तर्ज पर स्नान करने उतरते हैं, जैसे फाइवस्टार होटल के किसी स्विमिंग पूल में।
मतलब साफ है, आप हमारे देश में आइए, आपका स्वागत है। घूमिए-फिरिए, खूब मौज-मस्ती किजिए, लेकिन ध्यान रखिए किसी की धार्मिक भावनाएं आहत न हों।
हम आज भी अतिथि देवो भव: में ही विश्वास करते हैं। लेकिन, इसकी पहली शर्त ही मर्यादा है, जिसमें रहते हुए विदेशियों को ही नहीं, हर उस व्यक्ति को सम्मान मिलेगा, जो हमारे प्रदेश में आया है।

Thursday 3 June, 2010

हिंदी में इतने कहानी लेखक और पाठक नहीं

कथा देश का मार्च अंक खास रहा। इसमें पत्रिका ने उन कहानियों को प्रकाशित किया है जिन्हें उसने एक अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता के माध्यम से पुरस्कार देने के लिए चुना है। संपादक का दावा है कि इस प्रतियोगिता के लिए उसे दो सौ से अधिक कहानियां मिली थीं। जिसे कई दिग्गजों के माध्यम से छांटा गया। छांटी गई कहानियों में फिर पत्रिका के निर्णय मंडल ने कहानियों को पुरस्कार के लिए चयनित किया गया। तीन कहानियों को पहला और दूसरा पुरस्कार दिया गया है। तीन को संत्वना पुरस्कार से नवाजा गया है। पहला स्थान प्राप्त करने वाले लेखक को दस हजार रुपये से सम्मानित किया है। दूसरे को सात और तीसरे को पांच हजार रुपये। सांत्वना पुरस्कार के तौर पर शायद दो-दो हजार रुपये दिए गए हैं। लेखकों को पुरस्कार की आधी राशि नकद और आधी की राशि के बराबर मूल्य की किताबें देने की घोषणा की गई है।

चौकाने वाली बात है कि पत्रिका को इस प्रतियोगिता के लिए दो सौ कहानियां मिल गईं। इसका तात्पर्य यह है कि हिंदी में दो सौ कहानी लेखक सक्रिय हैं। यह तो प्रतियोगिता में शामिल लेखकों की संख्या है, कितने तो शामिल ही नहीं हुए होंगे। मेरा अपना अनुमान है कि न शामिल होने वाले लेखकों की संख्या भी पचास से कम तो नहीं होगी। इस तरह एक जानकारी यह मिली कि हिंदी में ढाई सौ से अधिक लेखक कहानियां लिख रहे हैं।
इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिंदी का कहानी लेखक ही एक दूसरे को न जानता हो। इसकी वजह यह है कि हिंदी का लेखक एक दूसरे को पढ़ता ही नहीं है। उसका पक्का मानना होता है कि उसके और उसकी जुंडली केअलावा कोई बढिय़ा नहींं लिखता। इसलिए हिंदी में अपनी और अपनी जुंडली की रचनाएं ही पढऩे की रवायत है। कुछ ही लेखक होंगे जो जुंडलीबाजी से परे होंगे और जिन्हें सभी पढ़ते होंगे।
यह भी आश्चर्य की बात है कि जिस हिंदी समाज में करीब तीन सौ कहानी लेखक हैं वहां किसी एक लेखक को सौ लोग भी नहीं पढ़ते। यानी हिंदी समाज एक ऐसा समाज है जहां रचा तो खूब जाता है लेकिन रचना को पढ़ा नहीं जाता। एक लेखक मित्र कहते हैं कि यहां लिखने वाले ही एक दूसरे को पढ़ लें तो बहुत है।
कहा भी जाता है कि हिंदी में लेखक ही पाठक होते हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है जब लेखकों की जुंडली है तो पाठकोंं की भी होगी ही। यानी पाठक भी अपनी जुंडली के रचनाकारों को ही पढऩा पसंद करते हैं। वैसे भी हिंदी केअधिकतर लेखक पढ़ते अंग्रेजी हैं और लिखते हिंदी हैं। वह इस भाव से लिखते हैं कि हिंदी के पाठक मूर्ख हैं। उनके लिए तो कुछ भी लिखा जा सकता है। यही कारण है कि कई लेखक तो हिंदी के फिल्मकारों की तरह अंग्रेजी रचनाओं को ही उड़ा देते हैं। कुछ इस मासूम भाव से कि हिंदी के पाठक को क्या पता। उड़ाने वाले मासूम लेखक को शायद यह भान नहीं होता कि हिंदी का लेखक यदि लिखने के लिए अंग्रेजी पढ़ता है तो हिंदी का पाठक भी पढऩे के लिए अंग्रेजी की रचनाएं पढ़ लेता है। अधिकतर हिंदी के लेखकों की भाषा-शैली और विषयवस्तु से ही समझा जा सकता हैकि उन्होंने कहां से टीपा है। पढ़ाई के दौरान से ही टीपने की आदत मरते दम तक बनी रहती है।
(नोट : इस संदर्भ में आज इतना ही अगली पोस्ट में कुछ और बातें होंगी। )

Tuesday 11 May, 2010

9 हेक्टेअर भूमि में आकार ले रहा 'लघु भारत ’

देहरादून से योगेश भट्ïट
सात साल पहले शुरू की गई एक पहल आज पूरे विश्व पर्यावरण के लिए नजीर बन गई है। पर्यावरण को बचाने की इस मुहिम को सलाम।
इस बार अगर आप बदरीनाथ धाम आएं, तो यहां बद्रीश एकता वन जरूर जाएं। यह वन देश ही नहीं विश्व भर के लिए पर्यावरण संरक्षण की मिसाल है। आप एक पौधा लगाकर आस्था और पर्यावरण के समागम में भागीदारी कर सकेंगे। चाहे आप देश के किसी भी कोने से आए हों, इस वन में अपने प्रदेश के लिए स्थान पहले से तय मिलेगा। इसी आरक्षित स्थान पर आप अपने पूर्वजों, प्रियजनों या फिर यात्रा स्मृति में पौधा रोपकर बदरीधाम से रिश्तों की डोर जोड़ सकेंगे। आपके 'पौधे ’ की देखरेख का जिम्मा प्रदेश का वन विभाग उठाएगा।
सात साल पहले 2002 में की गई यह पहल अब अपने यौवन रूप में नजर आने लगी है। बदरीनाथ में माणा और बामणी गांव के सहयोग से देवदर्शनी के पास 9 हेक्टेअर भूमि पर इस योजना को आकार दिया गया है। यहां 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भूमि आरक्षित कर 'लघु भारत ’ का स्वरूप दिया गया है। फिलहाल इस वन में चार प्रजातियों की वंश वृद्धि हो रही हैं। इसमेें भोजपत्र, कैल, देवदार और जमनोई शामिल हैं। अभी तक 700 से अधिक वृक्ष तैयार हो चुके हैं।
अब तक योजना का प्रचार-प्रसार नहीं था, लेकिन आम लोगों के रुझान को देखते हुए इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। इसी माह शुरू होने वाली चारधाम यात्रा के दौरान इस बद्रीश एकता वन का प्रचार करनेे की तैयारी है। प्रदेश सरकार भी विभिन्न मौकों पर इसका खास प्रचार कर रही है। प्रमुख वन संरक्षक डा. आरबीएस रावत इस योजना को लेकर खासे उत्साहित हैं। उनके अनुसार वन विभाग पर्यावरण संरक्षण की इस योजना पर पूरा फोकस है। योजना का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण का संदेश देना है।
साभार-अमर उजाला

Wednesday 5 May, 2010

चूहा मेरी बहन और रेटकिल

हद्द हो गई !

अब जा के मिला है जेब में,

वो बित्ते-भर का चूहा

जिसे कत्ल कर दिया था बवजह

कई बरस पहले,

मॉरटिन रेटकिल रख के

नहीं, ये विज्ञापन कतई नहीं है

बल्कि ज़रिया था मुक्ति का..........

पर फिर भी

चूहा तो मिला है !

और मारे बू के

छूट रही हैं उबकाईयां

जबकि उसी जेब में

-हाथ डालें-डालें गुज़ारा था मैंने जाड़ा

-खाना भी खाया था उन्हीं हाथों से

-हाथ भी तो मिलाया था कितनो से

तब भी,

न तो मुझे प्लेग हुआ

न ही किसी ने कुछ कहा..........

पर तअज्जुब है कि,

कैसे पता चल गया पुलिस को,

क्या इसलिये कि

दिन में एक दफे जागती है आत्मा,

और तभी से मैं

फ़रार हूँ................,

और भी हैं कई लोग

जो मेरी फ़िराक़ में हैं

जिन्हे चाहिये है वही चूहा,

ये वही थे

जो माँगा करते थे मेरा पेंट अक्सर

इसीलिये मैं नहाता भी था

पेंट पहनकर,

(था न यह अप्रतिम आईडिया..)

पर,

अंततः मैं पकड़ा जाता हूँ.....

ज़ब्ती-शिनाख्ती के

फौरन बाद

दर्ज होता है मुकद्दमा

उस बित्ते से चूहे की हत्या का,

और हुज़ूर बजाते हैं इधर हथौड़ा

तोड़ देते हैं वे

अप्रासंगिक निब को तत्काल

और मरने के स्फीत डर से बिलबिला जाता हूँ मैं

कि तभी ऐन वक्त पर

पेश होती है

चूहे की पीएम रपट

कि भूख से मरा था चूहा,

इसलिये मैं बरी किया जाता हूँ

बाइज़्ज़त बरी

हुर्रे........................।

फू..................

आप सोचते होंगे कि क्या हुआ

फिर रेटकिल का???

आप बहुत ज़्यादा सोचते हैं,

हाँ, मैं नशे में हूँ

श्श........श्श..........श्श.....श्श...

(बहुत धीरे से, एकदम फुसफुसा के..)

बहन को खिला दिये थे

वे टुकड़े चालाकी से

क्यूँकि शादी करी थी उसने

-किसी मुसल्मान से

-खुद के गोत्र में

-किसी कमतर जात में

हा...हा...हा...हा...हा...हा....

’फिलहाल आत्मा सो रही है....

और मॉरटिन रेटकिल भी खुश है

क्योकि इस बार चूहा नहीं

बल्कि बहन मरी थी ठीक बाहर जा के.....।

Sunday 18 April, 2010

कुंभ से साक्षात्कार

इन दृश्यों की शब्दों में अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती है। यह अद्ïभुत हैं, अलौकिक हैं। आंखों को तृप्त कर देने वाले। संसार में ऐसा समागम शायद ही कहीं और देखने को मिले। इसके बाद आप नास्तिक होते हुए भी अपने को उस भीड़ से जुड़ा पाते हैं, जो आस्था के भवसागर में तरने आई है।
बहुत लोगों को इस बात पर बहस करते सुना है, यह कुंभ नहीं महाकुंभ है। जो बारह साल बाद आया है और बारह साल बाद फिर आएगा। लेकिन कुछ भी हो, यह बे-मिशाल है। तमाम संस्कृतियों को ऐसा भवसागर, जिसमें हर कोई तरने आया है। होश संभालने के बाद यह दूसरा मौका है, जब कुंभ से मेरा साक्षात्कार हुआ।

विनोद के मुसान

पहला साक्षात्कार
1998 में जब मैं बी.एससी द्वितीय वर्ष का छात्र था। उस वक्त मेरी उम्र महज 17-18 साल थी। शौक के लिए फोटाग्राफी सीख रहा था। मेरे जीजा जी के एक मित्र हैं, रविंद्र पाल ग्रोवर, जिन्हें लोग बंटी भईया के नाम से जानते हैं। उन्हीं दिनों कुंभ मेला प्रशासन की ओर से उन्हें पूरे कुंभ की फोटोग्राफी और विडियो कवरेज का काम मिला था। जिसमें करीब 15 लोगों की टीम बनी। 'त्रिवेणी कंप्यूनिकेशन ’ की इस कंपनी में कई जाने-माने फोटोग्राफरों को शामिल किया गया। सभी लोग पेशेवर और मझे हुए थे, जबकि मेरी सिर्फ शुरुआत थी। हरिद्वार में शिव चौक स्थित मोती महल धर्मशाला में हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
इधर, कुंभ में पहले ही दिन मेरी ड्ïयूटी तात्कालिक मेला अधिकारी जेपी शर्मा के साथ लग गई। 'जैनित ’ का पुरना स्टील कैमरा मेरे पास था, जो मेरा खुद का नहीं था। कुंभ के विकास कार्यों को देखने निकला मेलाधिकारी का काफिला आधे दिन तक भ्रमण पर रहा। इसके बाद डाम कोठी में मीटिंग थी, (तब मेला नियंत्रण भवन नहीं बना था।) जो देर शाम तक चली।
सुबह से लेकर शाम तक मैंने पूरे दिन में रिकार्ड 450 फोटो खींचे थे। इसकी एवज में प्रति प्रिंट हमें 3 रुपए मिलते थे। यानी कुंभ में मैंने पहले ही दिन 1350 रुपए की कमाई की थी। इसके बाद तो जैसे मेरी निकल पड़ी। तय कार्यक्रम के मुताबित हमें एक दिन पहले बता दिया जाता कि फलां व्यक्ति की ड्ïयूटी कहां और किस अधिकारी के साथ रहेगी।
कब कितनी फोटो खींची जाएं, इसकी कोई बाध्यता नहीं थी। विकास कार्यों के भ्रमण के दौरान किसी निर्माण कार्य की तरफ अधिकारी का हाथ उठा और नीचे आते-आते मैंने पांच क्लिक कर दिए। कुल जमा 15 दिन के भीतर मैंने इतने पैसे जमा कर लिए कि अब मैं अपनी कामचलाऊ किट (कैमरा, फ्लैश, लांग जूम, वाइड लैंस, कुछ विल्टर, बैटरी, चार्जर और एक बैग) खरीदने के बारे में सोच सकता था।
तब शायद पूरे भारत में ही व्यवसायिक डिजिटल कैमरों का चलन नहीं था। फोटाग्राफी मैनवल कैमरों और विडियोग्राफी साधारण या बीटाकैन से होती थी। इसके बाद मैंने अपनी मां से कुछ पैसे उधार लिए और दिल्ली के चांदनी चौक स्थित फोटो मार्केट से एक खुद कीकिट खरीद लाया। जो उस वक्त मुझे कुल 25 हजार रुपए में पड़ी थी।
दिन भर फोटो खिंचना और शाम को धर्मशाला में निढाल होकर सो जाना। यह क्रम करीब दो महीने चला। इस बीच मुझे अपनी पढ़ाई के मद्ïदेनजर वापस लौटना पड़ा। जो मेरा पहला उद्ïदेश्य था। प्रोफेशनल फोटाग्राफरों के साथ रहते हुए इस बीच में फोटाग्राफी की कई बारीकियां सीख चुका था।
इस पूरे दौरान न तो मुझे कुंभ की महत्ता की जानकारी थी न ही में कभी इतनी धार्मिक प्रवृत्ति का रहा हूं। एक मात्र उद्ïदेश्य था फोटाग्राफी सीखना और कुछ पैसे कमाना। जो मैंने पूरा किया।
दुनिया के कोने-कोने से आकार लोग मोक्ष प्राप्ति को गंगा स्नान कर गए। लेकिन मैं पूरे दो माह हरिद्वार में रहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाया। न ही हमारे फोटोग्राफर साथियों के बीच कभी इस बात को लेकर चर्चा हुई। गंगा के प्रति हमेशा से मेरी अपार आस्था रही है, लेकिन यह प्रश्न आज भी जब मैं अपने-आप से पूछता हूं कि क्यों मैं ऐसा नहींं कर पाया तो उसका जवाब नहीं मिलता।
रात को जब तमाम घाट सुनसान हो जाते। दूसरे साथी इन घाटों पर बैठकर ही गंगाजी में आधे पांव डुबोकर मदिरापान करते और अपनी थकान उतारते। कई बार बियर का दौर चलता तो फ्रिज का काम भी गंगा के निर्मल जल से ही लिया जाता। इस पूरे आयोजन में मैं भी मदिरा पीने के अलावा बराबर का भागीदार बनता और माहौल का लुत्फ उठाता।
आज भी सोचता हूं तो बस सोचता ही रह जाता हूं-क्यों नहीं मैं भी उस भवसागर का तिल बन पाया, जिसमें सब तरने आए थे।

दूसरा साक्षात्कार
12 जनवरी 2010, दिन मंगलवार। मैं सीट पर बैठा खबरों का संपादन (अमर उजाला, देहरादून) कर रहा था। उसी वक्त संपादक आदरणीय निशीथ जोशी जी ने मुझे अगले दिन कवरेज के लिए हरिद्वार जाने का आदेश दिया। हालांकि अगले दिन मेरी छुट्ïटी थी और पहले से कुछ कार्यक्रम तय थे, लेकिन यह मेरे लिए शुअवसर था।
चूंकि अगले दिन 14 फरवरी यानी मकर संक्रांति को सदी के पहले कुंभ का पहला स्नान होने जा रहा था। मैं फोटोग्राफर नवीन कुमार सहित भारी बारिश के बीच 13 फरवरी की सुबह नौ बजे हरकी पैडी पर था। बारिश के बावजूद लोगों की भीड़ भोर से स्नान के लिए ब्रह्मïकुंड की ओर टूट रही थी। मैंने नवीन ने कहा काम शुरू करने से पहले गंगा जी को प्रणाम कर लिया जाए। इसके बाद हमने श्रद्धा केसाथ आचमन किया और दो मिनट गंगा के शीतल जल में खड़े होकर उसके स्पर्श का आनंद लिया।
पूरा दिन काम करने के बाद हमने हरिद्वार कार्यालय से स्टोरी फाइल की और फिर हम वापस आ गए। इस आपाधापी के बीच उस दिन हमें खाने का भी समय नहीं मिला। गंगा में स्नान करने की बात उस दिन भी दिमाग में नहीं आई। सुखद था तो इतना दिन भर की मेहनत अगले दिन पहले पन्ने पर बॉटम के रूप में नजर आई।

Saturday 3 April, 2010

एक आंदोलन जो विश्वव्यापी मुहिम बन गया



'चिपको आंदोलन ’ के 36 साल पूरे होने पर विशेष
विनोद के मुसान
एक आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचाई। पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना। विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चरचा, गोष्ठिïयां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। हम बात कर रहे हैं विश्वविख्यात 'चिपको आंदोलन ’ की। 'पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। लेकिन आज सवाल यह खड़ा होता है, क्या अब सब कुछ सुधर गया है? क्या हमें अब पेड़ों की जरूरत नहीं? या एक बार आंदोलित होने के बाद हम चैन की बंशी बजा रहे हैं।
यह आंदोलन उस वक्त इसी पर्वतीय क्षेत्र में शुरू हुआ था, लेकिन आज जब विकास के नाम पर पर्वतीय राज्य की रूपरेखा को एक आयाम देकर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया गया, तब यहीं के लोग इसे भूल गए। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो न ही आम आदमी को इसकी जानकारी थी और न ही सरकार के नुमाइंदों को। राज्य के राजनेताओं का तो कहना ही क्या। 26 मार्च को सत्तारूढ़ दल के नेता सत्र के दौरान विधायकों की संख्या गिनने में जुटे थे तो विपक्षी दल के नेता सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पटल पर रखने की तैयारी। ऐसे में भला उन्हें कहां याद रहता की आज चिपको आंदोलन की सालगिरह है।
आइए आपको इसकी पृष्ठïभूमि में ले चलते है, जहां से शुरू हुई थी एक मुहिम, जिसने देखते ही देखते न सिर्फ विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया बल्कि राष्टï्रीय राजनीति में एक तूफान खड़ा कर दिया। हमेशा नमन की हकदार रहेगी वह महिला गौरा देवी जिसने इस मुहिम को न सिर्फ शुरू किया, बल्कि इसे इसके मुकाम तक पहुंचाया। 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है। 12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है। गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा।
70 के दशक में जब सरकार पर्वतीय वनों को काटकर मोटा मुनाफा कमाना चाहती थी, उस वक्त मंडल-फाटा के जंगलों को बचाने से शुरू हुई मुहिम पैनखंडा ब्लाक के नीती घाटी के रैंणी के जंगलों तक फैल गई। गौरा देवी के साथ ऊमा देवी, अखा देवी, बारी देवी, मूसी देवी, रूपसा देवी पुसुली देवी, नोरती देवी नागी देवी जैसी सैकड़ों औरतों ने जैसे चंडी का रूप धारण कर लिया। उन्होंने समेट लिया उन पेड़ों का अपने आंचल में, जिन्हें वह अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं।
धीरे-धीरे यह मुहिम पूरे गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल तक फैलने लगी। लोग जुड़ते गए और कारवां बनता चला गया। 'पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ मरेंगे ’, 'लाठी-गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे ’ जैसे नारे पूरे पहाड़ की फिजा में गूंजने लगे। 1977 में जंगलों के कटान से उपजे जनाक्रोश का ही परिणाम नैनीताल क्लब को झेलना पड़ा। जनता ने उसे आग के हवाले कर प्रतिकार किया। इसके बाद सैकड़ों गिरफ्तारियां हुई, कई लोग जेल गए, लेकिन आंदोलन थमा नहीं। यह लोगों के हक-हकूक की ही लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ऐसी मुहिम थी, जिसमें विश्व कल्याण की भावना निहित थी।
चिपको की मुहिम के साथ और भी कई ऐसे नाम जुड़े हैं, जो विश्व पटल में इस आंदोलन से विख्यात हुए। पर्यावरणविद्ï सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ïट, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी, कुंवर प्रसून, बचना देवी और कई लोग जो आज भी चाहते हैं कि फिर से एक चिपको आंदोलन शुरू किए जाने की जरूरत है। इन्हीं लोगों ने पेड़ों पर 'रक्षा सूत्र ’ बांधकर एक नए आंदोलन को जन्म दिया था। जिसमें टिहरी जिले की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
उस वक्त अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो जाती तो पर्वतीय क्षेत्रों में देवदार, कैल, बांज, रुई, मुटिंडा, अखरोट, पांगर, मशरूम, चंद्रा मोतिया और न जाने कितने औषधीय महत्व के पेड़ नष्टï हो चुके होते। हरियाली से लबालब आज के कई पहाड़ हमें किसी विधवा की सूनी मांग से प्रतीत होते।
आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहा है। भविष्य में इसके खतरे पूरी पृथ्वी को लील लेना चाहते हैंं, ऐसे में हमें जरूरत है फिर से एक चिपको आंदोलन की। सामाजिक आंदोलनकारी चंडी प्रसाद भट्ïट, माटू जनकल्याण संगठन के संयोजक विमल भाई, गौरा देवी की प्रमुख साथी रही बाली देवी कहती हैं-आज के समय में जब विभिन्न परियोजनाओं खासकर बड़ी विद्युत परियोजनाओं से जल, जंगल और जमीन को हो रही क्षति के दुष्परिणाम बहुत ही घातक होंगे। हम अल्प समय के लिए मिलने वाली सुविधाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल हमें इसके भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अगर हम आज नहीं चेते तो कल इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

Friday 12 March, 2010

बाघों के संरक्षण को आगे आया चीन


विनोद के मुसान
बाघों को बचाने के लिए हमारे पड़ोसी देश चीन ने पहली बार भारत के साथ कदम मिलाने की पहल की है। इसके तहत चीन ने बाघों के अंगों की तस्करी रोकने के लिए कड़े फरमान जारी किए हैं। माना जा रहा है कि चीन के इस कदम से बाघों के संरक्षण में बड़ी मदद मिलेगी।
ऐसा पहली बार हुआ कि चीन के राज्य वन्य प्रशासन ने बाघों के प्रजनन की सुविधाओं में सुधार करने पर भी खास जोर दिया है। दरअसल भारत का आरोप है कि चीन में बाघों के अवैध प्रजनन की वजह से उनके अंगों की तस्करी बढ़ती है। चीन के इस कदम को सकारात्मक दृष्टिï से देखा जाना चाहिए। चीन के बाघों के अंगों के अवैध कारोबार पर रोक लगाने और दिशा-निर्देश जारी करने के बाद इस दिशा में जरूर कामयाबी मिलेगी।
इस साल चीन में बाघ वर्ष मनाया जा रहा है। हालांकि चीन ने इस आरोप को खारिज किया है। सरकार बाघों के संरक्षण के लिए कई कदम उठा रही है। चीन की इस पहल से भारत को बाघों के संरक्षण में खास मदद मिलने की उम्मीद जगी है।
देश में बाघों की हालत पर
- 2008 की गणना के अनसार देश में बाघों की संख्या 1411
- पिछले सात साल में 60 फीसदी संख्या घटी
- पूरे देश में 38 प्रोजेक्ट टाइगर अभयारण्य हैं
- 17 अभयारण्यों की हालत खराब
- 832 बाघों का शिकार 1994 से 2007 के बीच
- 59 बाघ मारे गए 2009 में, 15 का शिकार

Sunday 7 March, 2010

बाजार में बिकती 'भीड़ ’

विनोद के मुसान

भौतिकवाद और बाजारीकरण के इस युग में बाजार में बिकने लगी भीड़! क्या बात कर रहे हो भाई? आलू-प्याज समझा है क्या? माना कि बाजार में बहुतायत मिलती है यह भीड़, लेकिन बिकती भी है भीड़! कहां? क्या कहा! बाजार में! इनकी मंडी कहां लगती है? सरेआम, सरेराह, यहां-वहां, जहां-तहां, हर जगह, गली-मुहल्लों में, गांवों में, शहरों में जहां चाहोगे उपलब्ध हो जाएगी। लेकिन इसे इतनी भी 'आम ’ मत समझना। 'आम ’ को 'खास ’ बनाने वाली ये नाचीज सी 'चीज ’, है बहुत ही खास। जिस तरफ ढल जाए, उसका बेड़ापार कर देती है। बस दाम चुकाने के साथ मौका भुनाने वाला चाहिए। हर मौके पर उपलब्ध हो जाएगी यह भीड़।
कहते हैं, पहले ऐसी नहीं थी ये भीड़। जनम-मरण, खुशी-गम में यूं ही शामिल हो जाती थी ये भीड़। बड़े-बड़े किलों को फतह कर जाती थी यह भीड़। एकजुट होकर किसी को गद्ïदी पर बिठा और किसी को गद्ïदी से उतार देती थी ये भीड़। एकता की ऐसी मशाल जलाई की देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद करा गई ये भीड़।
वक्त बदला, जरूरतें बदली और बदल गई सोच। इसके बाद धीरे-धीरे बहुत नकचढ़ी सी हो गई ये भीड़। आलम यह है कि आज बिना दाम किसी को घास ही नहीं डालती यह भीड़।
अब तो कुछ लोगों ने इसके अच्छे-खासे दफ्तर भी खोल लिए हैं। इसके बिजनेस में सेल्समैन ही नहीं कांट्रेक्टर से लेकर सप्लायर तक की पोस्ट ईजाद हो गई हैं। आज किसी के परिणय सूत्र में बंधने से लेकर देश की संसद तक को प्रभावित करती है यह भीड़।
राज्य की राजधानी में बैठा 'मैं ’, उस दिन देखता ही रह गया भीड़। क्या नजारा था, रेलम-पैला था, एक के पीछे एक, दूर तलक बस दिखाई दे रही थी भीड़। पूछा, तो पता चला एक 'असामी ’ पार्टी ने जुटाई है आज यह भीड़। विस में सत्र शुरू हो चुका है। विपक्षी पार्टी ने परंपरा का निर्वाहन पूरा करने के लिए घिराव की तैयारी के लिए जुटाई है यह भीड़।
दूर से बहुत खुबसूरत सी नजर आ रही थी यह भीड़। मुखाने पर चमकते चेहरे थे, चटक सफेद कुर्ते-पजामे और सिर पर बेदाग सी दिखाई दे रही वही सफेद टोपी थी। गिले-शिकवे से भरे नारे भी थे। इसी भीड़ को पीछे छोड़ आगे जाने का जोश था। लेकिन पीछे और पीछे... दूर तलक मुरझाई हुई सी नजर आ रही थी यह भीड़। हाथों में झंडे-डंडे लिए सुस्ताई हुई सी थी यह भीड़। थोड़ा करीब जाकर देखा तो पता चला 'बिकी ’ हुई थी यह भीड़।
'पैसा फेंकों-तमाशा देखो ’ आज कुछ ऐसी हो गई है यह भीड़। 'वक्तिया प्रारूप ’ में ढलकर अपना 'स्व-स्वरूप ’ खो गई है यह भीड़। अपनी ताकत का एहसास होने के बाद भी असहाय सी हो गई है यह भीड़। नजरों का फेर नहीं हकीकत में कहीं अपने में ही खो गई यह भीड़।

Wednesday 24 February, 2010

सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी : लोकतन्‍त्र का लबादा खूंटी पर, दमन का चाबुक हाथ में

ज़रूरी नहीं फ़ासीवाद केवल धर्म का चोला पहनकर ही आए, वह लोकतन्‍त्र का लबादा ओढ़कर भी आ सकता है। और ऐसा हो भी रहा है। चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद कई लोगों ने खुशी जाहिर की थी और उन्‍हें लगा था कि चुनावों ने फासिस्‍ट भाजपा को हाशिये पर धकेल दिया है। उस समय भी हमने इस संबंध  में लिखा था कि चुनावों में भाजपा की हार से ही फासीवाद की हार तय नहीं होती और यह कि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सेवानिवृत्त होकर ''बुद्धत्त्‍व'' प्राप्त करने के बाद पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण ने भी यह वक्तव्य दिया था कि वर्तमान आर्थिक नीतियों को एक फासिस्ट राजनीतिक ढांचे में ही पूरी तरह लागू किया जा सकता है। अब परिस्थितियां अक्षरक्ष: इसे स‍ाबित कर रही हैं। एक तरफ़ तो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार कल्‍याणकारी योजना के नाम पर जनता के बीच उसी से लूटी गई संपदा के टुकड़े फेंक रही है, तो दूसरी तरफ नक्‍सलवाद, आतंकवाद के खात्‍मे के नाम पर आम जनता और उसके हक की लड़ाई लड़ने वालों को का दमन कर रही है उन्‍हें सलाखों के पीछे डाल रही है। पत्रकार सीमा आज़ाद की गिरफ्तार भी इसी दमन की एक अगली कड़ी है। नक्‍सलवाद से पूरी तरह वैचारिक विरोध रखने वाले संगठन पीयूसीएल की सदस्‍य और पत्रकार सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हमला तो है ही, साथ ही जनपक्षधर राजनीति करनों वालों और जनता के पक्ष में संघर्ष करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश भी है। 'बर्बरता के विरुद्ध' सरकार के इस क़दम का विरोध करता है और पत्रकार सीमा आज़ाद के रिहाई की मांग करता है।