Wednesday 3 December, 2008

राजनीती को हिकारत की चीज न बनायें

मुंबई के आतंकी हमले के बाद देश में राजनीती व राजनेताओ को लेकर जिस तरह की बहस छिड़ रही है वह ऐसे खतरनाक मौड़ की और ले जा रही है जंहा लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान लग गया है । राजनीति किसी भी समाज व्यवस्था का बुनियादी पहलू है। मानव को जंगली अवस्था से सभ्यता की और ले जाने में राजनीति का बड़ा रहा है। यूँ कहे की मानव को विभिन् समाज व्यवस्थाओं में बंधे रखने में राजनीति ही बुनियादी पहलू है। जब मानव ने सभ्यता के युग में परवेश किया तो समाज की भिन्न भिन्न किर्याओं को संगठित करने के लिए ही राजनीति अस्तित्व में आई। ये बात अलग है की समाज के प्रभुताव्शाली वर्ग ने राजनीति को अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया है। मगर फिर भी समाज विकास की प्रकिर्या में राजनीति के योगदान को नही नाकारा जा सकता। राजनीति सामंती काल में भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी जितनी लोकतंतर में है। सवाल राजनीति के वर्गीय सरोकारों का है। शायद यही कारण है की अपने वर्गीय स्वार्थों में लिपटे वर्तमान संसदीय नेताओं को देश की आम जनता की तकलीफों से कोई सरोकार नही है। भाजपा के नकवी , महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री आर आर पाटिल हो या फ़िर केरल का मुख्यमंत्री सब को यही तिलमिलाहट हो रही है की जनता अपने अधिकारों को मांग रही है। आम जनता का गुस्सा जायज है। उसके निकलने के तरीके भी अलग अलग हो सकते हैं। मगर समाज के जिम्मेवार हिस्से होने के नाते मीडिया से जुड़े लोगों द्वारा भी जब इस तरह की बहसों को जानबूज कर बढावा दिया जाता है तो शंका होती है। पडोशी देश पकिस्तान में राजनीत को बदनाम होता देख कर ही वंहा सेना ताक़तवर हुई जिसकी परिणिति सेना द्वारा तख्तापलट के रूप में हुई। किसी भी देश में सैनिक ताना शाही लोकतंतर की बजाये ज्यादा निरंकुश साबित हुयी है। इसलिए लोकतंतर को कोसने की बजाये उसे साफ करने की और ध्यान देना चाहिए। जनता के आन्दोलन और उसका पर्तिरोध ही इस सफाई का कारगर तरीका भी है।

Monday 24 November, 2008

'युवराज' में फिर दिखा शो-मैन का जौहर!

सुभाष घई निर्देशित कई फिल्में दर्शकों नकारी जा चुकीहैं। हालांकि यादें, यादें (ब्लैक एंड व्हाइट) अपनी संवेदनशीलता पारिवारिकसामाजिक सोद्देश्यता के साथ लगभग सभी सिनेमाई पहलू में श्रेष्ठ थी। तालके बाद यह शोमैन एक बार फिर पूर्णरुपेण एआर रहमान के साथ युवराज को लेकरप्रस्तुत हुआ है। इस क्रम में गीत गुलज़ार के हैं। पूरे फिल्म कीशूटिंग ९० दिन में पूरी हुई, तो संगीत ८५ दिन में तैयार हुआ है। इसलिएपहले संगीत की बात कर लें। निश्चित रूप से संगीत बेहतर है, "तू मेरादोस्त है"... "तू मुस्कुरा जहां...." की धीमी और गहरी मधुरता सुकून पैदाकरती है। "मस्त॥मस्त॥दर मस्तम" में लोक संगीत की मिठास है। "तू मेरादोस्त" में श्रेया घोषाल की आवाज़ बार-बार आकर्षित करती है, पर कहनापड़ेगा कि रहमान और गुलज़ार की जोड़ी वह नहीं कर पाई जो रहमान औरआनन्द बक्शी की जोड़ी ने ताल में किया था।फिल्म की कहानी तीन भाइयों ज्ञानेश युवराज (अनिल कपूर), देवेन युवराज (सलमान ख़ान) और डैनी युवराज (जायेद ख़ान) के बीच जायदाद की भागीदारी के साथ एक भाई देवेन युवराज के द्वारा अपनी प्रेमिका अनुष्का (कैटरीना) कीप्राप्ति की पृष्ठभूमि में बुनी गई है। सुभाष घई ने अपनी कुशलनिर्देशकीय ताकत से इस परंपरागत कहानी को संगीत से सराबोर करते हुए इसप्रकार से नए अंदाज़ में प्रस्तुत किया है कि दर्शक कहीं से भी बोझिलनहीं हो पाता है। अब्बास मस्तान की रेस में जहां दो भाइयों के बीचप्रापर्टी पाने की जद्दोजहद में सामान्य मानवीय संवेदना को क्रूरता कीसीमा तक कुचला गया है, वहीं युवराज में मानवीय संवेदनाओं के उभारा गया है। इस क्रम में कबीर लाल की सिनेमैटोग्राफी भी कमालदिखाती है। अनिल कपूर , सलमान, जायद खान और कैटरीना सबने अपने भूमिकाके साथ न्याय किया है। अनिल कपूर तो आलोचना से परे होते जा रहेहैं। किरदार को कैसे आत्मसात किया जाता है ये उनसे कोई सीखे। बोमनईरानी, मुन्ना भाई एमबीबीएस में कहीं बेहतर डाक्टरी अंदाज में थे औरअवषीमा साहनी ने भी अपनी छाप छोड़ी है। खासतौर से मुस्कुराहट बेजोड़है। कैटरीना और सलमान के बीच प्रेम को परदे पर सुभाष घई ने बड़ी बारीकीसे उभारा है। वास्तव में असल ज़िंदगी के प्रेम को परदे पर उभार पानाबेहद कठिन है। निर्देशकीय निपुणता का यहां एक बड़ा इम्तेहान होता है। परसुभाष घई खरे उतरे हैं। आधुनिक संस्कृति की पृष्ठभूमि में बेड परकैटरीना सलमान की नोंकझोंक के प्रेम पूर्ण दृश्य अपनी भावग्रह्यता मेंमुगल-ए-आजम के दिलीप कुमार और मधुबाला के रात के एकांतिक मिलन से कहींभी कम नहीं है। कुल मिलाकर, फिल्म बेहतर और देखने लायक है। दर्शक कहीं सेभी निराश नहीं होगा।
राकेश शुक्ला (हिंदी और इतिहास के अध्येता)
९८७१३६२९७२

Wednesday 12 November, 2008

मालेगांव की ‍आग पहुंची उत्तर प्रदेश

मालेगांव बम धमाके की आग अब उत्तर प्रदेश में सुलगने लगी है । गोरखपुर एक बार फिर सुर्खियों में है । इस बार साध्वी प्रज्ञा को लेकर गोऱखपुर का नाम सामने आया है । गोरखपुर के विधायक पर साध्वी के तार जुड़े होने के आरोप है । गोरखपुर के सांसद और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिंदू नेता योगी आदित्य नाथ भी घेरे में है । यह वही योगी है,जिन पर यूपी की पुलिस ने एक बार हाथ डालने की कोशिश की थी, तब गोरखपुर समेत पूरे उत्तर प्रदेश में बवाल खड़ा हो गया था । गोरखपुर में आगजनी हुई दंगा हुआ । सब राजनीति से प्रेरित है ।
पहले खादी से तो अब भगवा से राजनीति
एक जमाना था जब खादी से देश की राजनीति संचालित होती थी, लेकिन समय बदल गया है । देश की राजनीति खादी नहीं भगवा से चल रही है । भगवा है ठीक है, लेकिन भगवा की आड़ में चंद राजनेता गंदी राजनीति कर रहे हैं । हो सकता है साध्वी भी इसी गंदी राजनीति का शिकार बनी हो, लेकिन जांच तो होनी ही चाहिए ।
बहुत कुछ छिपा है बीहड़ों में
मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की बीच पड़ते बीहड़ों में वह बहुत कुछ सच्चाई छिपी है, जो एटीएस को तलाश है । चंबल की घाटी में हर वह सुराग मिल सकता है, जो एटीएस को शायद उत्तर प्रदेश के तराई इलाके से नहीं मिल सकती है । मालेगांव ब्लास्ट के तार उत्तरप्रदेश से होते हुए जम्मू-कश्मीर तक पहुंच गए हैं। मुंबई एटीएस ने बुधवार को कानपुर से एक शख्स को हिरासत में लिया है। उस शख्स का नाम दयानंद पांडे बताया जाता है और एटीएस को उसके वीएचपी से जुड़े होने की आशंका है। दयानंद को लेकर एटीएस लखनऊ रवाना हो गई। लखनऊ लाकर उससे मालेगांव ब्लास्ट मामले में पूछताछ की गई।एटीएस ने सोमवार को मुंबई की अदालत में एक अर्जी दाखिल कर एक प्रमुख हिंदू नेता से पूछताछ करने की इजाजत मांगी है तथा इस संबंध में उत्तरप्रदेश सरकार से सहयोग दिलाने की बात कही है। एटीएस ने फरुखाबाद और पूर्वी उत्तरप्रदेश में गुपचुप अभियान चलाकर मालेगांव विस्फोटों के लिए ठोस सबूत जुटाए हैं।भाजपा उत्तरप्रदेश से पार्टी के सांसद आदित्यनाथ का खुलकर बचाव में उतर आई है । आदित्यनाथ ने मालेगांव विस्फोट में उनका हाथ होने के बारे लगाई जा रही अटकलबाजियों के बाद मंगलवार को एटीएस को उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती दी थी।
चुनौती छोड़ कर जांच में सहयोग करे नेता
अगर साध्वी सही है, योगी आदित्यनाथ सही है, दयानंद पांडेय ने कोई गलत काम नहीं किया है तो भाजपा और संघ एटीएस को चुनौती क्यों दे रही है ? सभी राजनीतिक दलों को एक होकर इसके लिए अपेन स्तर पर एक जांच कमेटी तैयार कर मामले की सही जांच करना चाहिए । पुलिस और कानून को चुनौती देकर आखिर हमारे राजनेता साबित क्या करना चाह रहे हैं । मामले को राजनीतिक तूल दिया जा रहा है, जो देश के घातक है ।

Saturday 8 November, 2008

आंतकवाद का क्या धर्म है .

मालेगांव बम धमाकों ने धर्म और राजनीती पर बहस को एक बार फिर से पैदा कर दिया है। मीडिया के कुछ हिस्सों में मालेगांव बम धमाकों को हिंदू आतंकवाद का नाम दिए जाने से हिंदू संगठनो की भोंहे तन गई हैं। कल तक हर आतंकवादी वारदात को इस्लामिक आतंकवाद का नाम देने वाली भाजपा व् उसके अनुसंगी संगठन साध्वी की गिरफ्तारी से सकते में हैं। सच है की एक साध्वी या कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी भर से पूरी हिंदू कौम आतंकवादी नही हो गई। मगर अब सोचना यह भी चाहिए की क्या किसी मुस्लिम आतंकवादी के पकड़े जाने से पूरा इस्लाम आतंकवादी हो गया। इस्लाम को मानने वालों में तो असफाक उल्लाह खान भी थे। मालेगांव की घटना एक सबक है । अपनी ओछी राजनीति के लिए किसी कौम को बदनाम करना उस कौम के लिए मौत के समान है । किसी एक विक्षिप्त व्यक्ति की सजा किसी पूरी कौम को नही देनी चाहिए। उम्मीद है ऐसे लोग मेरे कहे पर खुले दिमाग से विचार करेंगे।

Thursday 6 November, 2008

वह घर कितना भाग्यशाली होता है, जहां बेटी जन्म लेती है। वह मां-बाप भी कितने खुशनसीब होते हैं, जिनकी गोद में प्यारी सी बिटिया होती है। लड़की की खिलखिलाहट, उसका हर काम पूरे घर में उल्लासपूर्ण माहौल बनाए रखता है। बेटी वह देवी है, जो हर समय घर को रोशन बनाए रखती है। इसके बनिस्बत जिस घर में चाहे चार बेटे हों, लेकिन एक कन्या नहीं हो तो, वहां का माहौल कितना उदासीन होता है। घर में वह रौनक दिखाई ही नहीं देती, जो बेटी के होने से होती है। घर में एक अलग तरह की नीरसता सी छाई रहती है। आंगन सूना-सूना रहता है।
जब बेटी बड़ी हो जाती है, तो उस पर कई जिम्मेदारियां भी आ जाती हैं। वह मां के काम में हाथ भी बंटाती है। स्कूल से जब कालेज जाने लगती है तो साथ-साथ जवानी की सीढ़ियां भी चढ़ने लगती है। यह समय बिटिया के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। उसे घर से बाहर इधर-उधर के तानों से बचना होता है। घर की इज्जत भी बचाकर रखनी होती है। घर में बेटी, बहन का रोल अदा करती है। तो ससुराल में जाने के बाद पत्नी, बहूरानी और भाभी का रोल निभाना पड़ता है। लेकिन परमात्मा ने कन्या को ऐसा वरदान दिया है कि इस तरह के अनगिनत गंभीर हालातों का सामना करने के बावजूद वह हर समय खुश नजर आती है।
आज जमाना भी बदल गया है। बेटियां बेटों की कमी पूरा कर रही हैं। कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष की दूरी माप रही हैं, तो साइना नेहवाल जैसी बेटियां खेलों में झंडे गाड़ रही रही हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि इसके बावजूद बेटियों को इस धरा पर आने से रोका जा रहा है। यदि वह किसी तरह जन्म ले लेती है, तो झाड़ियों और कू़ड-कर्कट में फेंक दिया जाता है। अस्पतालों के बाहर सरकार और समाजसेवी संस्थाआें द्वारा पालने लगाए जा रहे हैं ताकि जो मां-बाप बेटियों का पालन-पोषण नहीं कर सकते, वह उन्हें इनमें रख जाएं। इंसानियत के लिए इससे शर्मनाक शायद और कुछ नहीं हो सकती। सबसे ज्यादा शर्मनाक बात तो यह है कि ज्यादातर मामलों में महिला ही महिला की दुश्मन नजर आती है। घर में बेटी के जन्म लेने पर सास अपनी बहू को ताने देने लगती है। गर्भवती महिलाएं पति पर अल्ट्रासाउंड का दबाव डालती हैं और कन्या होने पर खुद ही गर्भपात का प्रस्ताव करती हैं। साधु महात्मा कहते हैं कि जितना पाप एक हजार गायों को मारने से होता है, उससे भी ज्यादा पाप एक कन्या या कन्या भ्रूण की हत्या से होता है।
बेटियों की मुस्कान बचाए रखने के लिए भ्रूण हत्या के खिलाफ के खिलाफ आम आदमी को खड़ा होना होगा। धर्म गुरुआें और डा टरों के सहयोग से इस लक्ष्य को पाने में काफी हद तक सफलता मिल सकती है।

बचाए रखो बेटी की मुस्कान

वह घर कितना भाग्यशाली होता है, जहां बेटी जन्म लेती है। वह मां-बाप भी कितने खुशनसीब होते हैं, जिनकी गोद में प्यारी सी बिटिया होती है। लड़की की खिलखिलाहट, उसका हर काम पूरे घर में उल्लासपूर्ण माहौल बनाए रखता है। बेटी वह देवी है, जो हर समय घर को रोशन बनाए रखती है। इसके बनिस्बत जिस घर में चाहे चार बेटे हों, लेकिन एक कन्या नहीं हो तो, वहां का माहौल कितना उदासीन होता है। घर में वह रौनक दिखाई ही नहीं देती, जो बेटी के होने से होती है। घर में एक अलग तरह की नीरसता सी छाई रहती है। आंगन सूना-सूना रहता है।
जब बेटी बड़ी हो जाती है, तो उस पर कई जिम्मेदारियां भी आ जाती हैं। वह मां के काम में हाथ भी बंटाती है। स्कूल से जब कालेज जाने लगती है तो साथ-साथ जवानी की सीढ़ियां भी चढ़ने लगती है। यह समय बिटिया के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। उसे घर से बाहर इधर-उधर के तानों से बचना होता है। घर की इज्जत भी बचाकर रखनी होती है। घर में बेटी, बहन का रोल अदा करती है। तो ससुराल में जाने के बाद पत्नी, बहूरानी और भाभी का रोल निभाना पड़ता है। लेकिन परमात्मा ने कन्या को ऐसा वरदान दिया है कि इस तरह के अनगिनत गंभीर हालातों का सामना करने के बावजूद वह हर समय खुश नजर आती है।
आज जमाना भी बदल गया है। बेटियां बेटों की कमी पूरा कर रही हैं। कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष की दूरी माप रही हैं, तो साइना नेहवाल जैसी बेटियां खेलों में झंडे गाड़ रही रही हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि इसके बावजूद बेटियों को इस धरा पर आने से रोका जा रहा है। यदि वह किसी तरह जन्म ले लेती है, तो झाड़ियों और कू़ड-कर्कट में फेंक दिया जाता है। अस्पतालों के बाहर सरकार और समाजसेवी संस्थाआें द्वारा पालने लगाए जा रहे हैं ताकि जो मां-बाप बेटियों का पालन-पोषण नहीं कर सकते, वह उन्हें इनमें रख जाएं। इंसानियत के लिए इससे शर्मनाक शायद और कुछ नहीं हो सकती। सबसे ज्यादा शर्मनाक बात तो यह है कि ज्यादातर मामलों में महिला ही महिला की दुश्मन नजर आती है। घर में बेटी के जन्म लेने पर सास अपनी बहू को ताने देने लगती है। गर्भवती महिलाएं पति पर अल्ट्रासाउंड का दबाव डालती हैं और कन्या होने पर खुद ही गर्भपात का प्रस्ताव करती हैं। साधु महात्मा कहते हैं कि जितना पाप एक हजार गायों को मारने से होता है, उससे भी ज्यादा पाप एक कन्या या कन्या भ्रूण की हत्या से होता है।
बेटियों की मुस्कान बचाए रखने के लिए भ्रूण हत्या के खिलाफ के खिलाफ आम आदमी को खड़ा होना होगा। धर्म गुरुआें और डा टरों के सहयोग से इस लक्ष्य को पाने में काफी हद तक सफलता मिल सकती है।

Tuesday 4 November, 2008

देह दर्शन या ड्रग्स को बढ़ावा




मधुर भंडारकर की फिल्म ‍'फैशन' में भारतीय फिल्म की नायिकाओं ने सभी पराकाष्ठा पार कर दी है । देह दर्शन के अलावा धूम्रपान 'फैशन' का सबसे बड़ा नकारात्मक हिस्सा है । फिल्म की नायिका कंगना राणावत और प्रिंयका चोपड़ा जिस तरह खुलेआम सिगरेट के धुंए के छल्ले उडाती नजर आईं, तो उससे भी कहीं ज्यादा बोल्ड शराब पीने की सीन रही है । अधनंगे बदन के साथ सिगरेट और शराब की मस्ती वाली 'फैशन' समाज को क्या संदेश देना चाह रही है, यह फिल्म देखने वाले भी नहीं बता सके । 'डा‍न' फिल्म में हीरो शाहरुख खान ने सिगरेट के धुंए उड़ाने पर जब बवाल खड़ा हो सकता है, तो फैशन की दारू और सिगरेट सैंसर बोर्ड को क्यों नजर नहीं आए । फैशन में तो हद ही कर दी है, मिनट दर मिनट सिगरेट के कश हीरो और हीरोइन लगा रहे हैं, लेकिन किसी को परवाह नहीं है । फिल्म में कंगना राणावत को ड्रग्स लेते जैसे दिखाया है, क्या यह उचित है ? कंगना राणावत ही क्यों प्रिंयका चोपड़ा भी क्लब में ड्रग्स लेती हैं, उसके बाद अपना सबकुछ लुटा देती हैं (हालांकि चोपड़ा इससे पहले ही अपना सबकुछ लुटा चुका होती है)। फैशन में मुंबई की क्लबों को जिस तरह से दिखाया गया है, सही हो सकता है, लेकिन फिल्म में सिगरेट, शराब, स्मैक, नशीले इंजैक्शन लेते होरी और हीरोइन ने सभी मर्यादा लांघ कर लोगों को गलत संदेश दिया है ।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सर्वजिनक स्थानों पर धूम्रपान पर पाबंदी लगाने के बाद उम्मीद जगी थी कि लोग सुधर जाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका । जब सिगरेट, शराब और अन्य तरह के नशीले ड्रग्स पर रोक है तो फैशन में इतनी मस्ती क्यों ? सैंसर बोर्ड सो कर फिल्में पास क्यों कर देता है । यही नहीं धूम्रपान पदार्थों के विज्ञापन पर भी रोक है, लेकिन फैशन में धूम्रपान पर रोक क्यों नहीं है ?

Saturday 1 November, 2008

ये कैसी संस्कृति, ये कैसा विस्तार

विनोद के मुसान
भारतीय संस्कृति में धर्म का बड़ा स्थान है। संविधान नेप्रत्येक नागरिक को अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यापन करने, उसकी रक्षा करने और उसके विस्तार का अधिकार प्रदत्त किया है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन दि कत तब आती है, जब संविधान में दिए गए इस अधिकार का लोग दुरुपयोग करने लगते हैं, जिससे दूसरे कई लोगों को दि कत होती है। बात 'धर्म` से जु़डी होती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध भी नहीं कर पाता है। लेकिन बापू के इस देश में ऐसा नहीं होना चाहिए, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।


मैली होती गंगा : गोमुख से निकलने वाली निर्मल और स्वच्छ गंगा हरिद्वार के बाद अपना रंग बदल देती है। या आपने कभी सोचा है, ऐसा यों होता है। यकीनन उसमें जगह-जगह सीवरेज और फैि ट्रयों से निकलने वाला गंदा पानी मिल रहा है। लेकिन, गंगा में आस्था रखने वाले उसके या कर रहे हैं। उसे साफ रखने के बजाय उसे और गंदा कर रहे हैं। पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद की पॉलीथीन, बच्चे के मुंडन के बाद उसके बाल, साथ में लाई गई अन्य गंदगी गंगा में बहा दी जाती है। नहाने के बाद मैले कपड़े उसमें निचाे़ड दिए जाते हैं।
एक कुप्रथा देखिए-पता नहीं किस मूर्ख ने इसकी शुरूआत की-ऋषिकेश में राम झूला के पास एक घाट है, जहां लोग नहाने के बाद अपने अंडरवियर छाे़ड जाते हैं। पूछने पर आस-पास बैठे पंडे बताते हैं, ऐसा करने से आदमी पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। लेकिन, वहां घाट पर बिखरे सैकड़ों अंडरवियर को देखकर मन खिन्न हो जाता है। गंगा हमारी मां के समान है, लेकिन उसके बेटों को कौन समझाए कि बेटा अब तुम जवान हो गए है। कम से कम नहाने के बाद अपना अंडरवियर तो संभाल लो। या अब भी इसे मुझे ही धोना पड़ेगा।
नगर कीर्तन : आप घर से किसी जरूरी काम के लिए निकले और रास्ते में आपको मिल गया नगर कीर्तन। सड़कें जाम। ट्रैफिक का बुरा हाल। पुलिस वालों द्वारा अमुक चौराहे पर आपको तब तक रोके रखा जाता है, जब तक की पूरा नगर कीर्तन गुजर जाए। इस दौरान ट्रैफिक में कोई मरीज भी फंसा होता है तो किसी की बस या ट्रेन छूटने वाली होती है। इतना ही नहीं इस दौरान नगर कीर्तन के साथ गुजरने वाला जत्था अपने पीछे सड़कों पर छाे़ड जाता है तमाम गंदगी। जिससे साफ करने वाला कोई नहीं। नगर कीर्तन का स्वागत करने वाले अपने श्रद्धा जताने को जगह-जगह लंगर तो लगा देते हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं देते की पीछे छूटने वाली गंदगी को कौन साफ करेगा। खासकर के पंजाब में यह दृश्य आम है।
जगराते : भगवान ने रात बनाई है सुकून से सोने के लिए। लेकिन आए दिन गली-मोहल्लों में होने वाले जगराते इसमें खलल डालते हैं। मुझे नहीं लगता दुनिया के किसी भी धार्मिक ग्रंथ में यह बात लिखी हो कि ऊंची आवाज में की गई तों की प्रार्थना भगवान जल्दी सुनते हैं। फिर यह शोर यों? आजकल हर गली मोहल्ले में कुछ लोगों ने अलानां-कमेटी, फलानां-कमेटी बनाकर हर साल निश्चित दिन पर जगराता कराने का ठेका ले रखा है, जिसके खर्चे वे आम जन से चंदे के रूप में वसूलते हैं। जगराता कमेटी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी के बच्चों की परीक्षा हो रही है, या आस-पास के घरों में कोई बीमार है। आधुनिक युग में भि की यह परंपरा कम से कम मुझे तो रास नहीं आती, आपका या कहना है।
'भजनों` का शोर : सुबह तड़के चार बजे मुर्गे की बाक, घर के पास स्थित मंदिर से आती शंक की ध्वनि, मस्जिद से आजान और गुरुद्वारे के लाडस्पीकर से सुनाई देती गुरुवाणी यकीनन कर्णप्रिय होती है। नए दिन की शुरूआत को आलौकिक करने वाली ये ध्वनियां भारतीय जनमानस के हृदय में बसी हैं। लेकिन, आधुनिक युग में धार्मिक वातावरण अब वैसा नहीं रहा। आज जब एक गली में दो गुरुद्वारे तीन मंदिरों और एक मस्जिद से एक साथ ये ध्वनियां उत्पन्न होती हैं तो 'शोर` का रूप धारण कर लेती हैं, जो कतई कर्णप्रिय नहीं लगती। धर्म के विस्तार की हाे़ड में हमने गली-गली में इतने मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े कर दिए हैं कि अब वे धार्मिक स्थल कम और धर्म के नाम पर खोली गई दुकानें ज्यादा लगती हैं।
प्रसाद का 'प्रदूषण` : जैसा कि मैने पहले भी कहा, आस्था के उन्माद में हम भूल जाते हैं, हमारे द्वारा लगाए गए लंगर के बाद पीछे छूटने वाली गंदगी की ओर कोई ध्यान नहीं देता। जहां कहीं भी प्रसाद का वितरण होता है, अकसर वहां इतनी गंदगी छाे़ड दी जाती है कि अगले दिन वहां खड़ा रह कर कोई सांस भी नहीं ले सकता। यह हाल तमाम धार्मिक स्थलों का है। हम प्रसाद ग्रहण करने के बाद उसके पात्र को जहां-तहां फेंक देते हैं। इस परंपरा कोई बदलना होगा। जैसे हम अपने घरों में सफाई रखते हैं, इसी तरह सार्वजनिक स्थलों का भी हमें ध्यान रखना होगा।
अंत में,
उपरो लिखी गई बातों से मेरा आशय किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं, धर्म के नाम पर हम ढकोसला करें। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातों का अध्ययन करें और उन पर चलने का प्रयास करें। दिखावे की भि से जीवन कभी भवसागर पार नहीं कर सकता। इतिहास गवाह है, जितने भी संत हुए हैं, उन्होंने अपने कर्मों की बदोलत मोक्ष प्राप्त किया। एक व्यवहारिक उदाहरण देना चाहूंगा। आप तय करें, किस की भि में शि है।
-एक आदमी किसी धार्मिक स्थल पर जाता हैं, कई घंटे लाइन में खड़े रहने के बाद उसका नंबर आता है, इसके बाद वह घर के लिए बस पकड़ता है। बस में एक वृद्धा खड़ी है, जिसे सीट नहीं मिलती। लेकिन, वह आदमी उसकी ओर से मुंह फेर लेता है और सोने का नाटक करने लगता है।
-एक आदमी कभी किसी धार्मिक स्थल पर नहीं जाता है। उसका मानना है, प्रभु घट-घट में निवास करते हैं। वह अकसर बस में बड़े बुजुर्गों और गर्भवती महिलाआें को अपनी सीट देकर घंटों खड़े होकर सफर करता है। अपने इसी तरह के कर्मों को वह अपनी पूजा मानता है