Thursday 31 December, 2009

भारत के लिए बनूंगा रफ़्तार : राहुल


14 साल की उम्र में 105 से 110 मील प्रतिघंटे की गति से करता है गेंदबाजी

जालंधर। पांच मैच, 15 ओवर, 49 रन और पांच विकेट। यह प्रदर्शन है लेफ्ट आर्म मीडियम पेसर राहुल तिवारी का। आंखों में क्रिकेट को लेकर जुनून और आत्मविश्वास से लबरेज राहुल हाल ही में मुंबई में आयोजित 55वें नेशनल स्कूली गेम में पंजाब की तरफ से अंडर-14 टीम में बतौर पेसर शामिल था। आउट और इन स्वींग कराने में माहिर राहुल अपने इस प्रदर्शन से संतुष्ट तो नहीं है लेकिन उत्साहित जरूर है। उनका कहना है कि यदि उन्हें सही मौका मिला होता तो उनके और विकेट होते। पूरे टूर्नामेंट के दौरान अक्सर उन्हें दो या तीन ओवर के बाद हटा दिया गया और दोबारा स्पेल डालने का मौका नहीं दिया गया। राहुल का कहना है कि वह पुरानी गेंद को अच्छी तरह स्विंग करा सकता है। यदि अंतिम ओवरों में मौका मिलता तो प्रदर्शन कुछ और होता। अपनी इस उपेक्षा से राहुल निराश नहीं हैं। उनका कहना है कि वह और बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिश करेगा। इसके लिए वह लगातार अभ्यास को तरजीह देगा। 14 साल की उम्र में करीब 105 से 110 मील प्रतिघंटे की गति से गेंदबाजी करने वाले राहुल ने कहा कि उसका सपना देश के लिए खेलना है। राहुल ने बताया कि उसके प्रदर्शन में स्कूली कोच रविंदर शर्मा का विशेष योगदान है। राहुल के क्षेत्ररक्षण की बात करें तो उसने 6 मैचों में 12 कैच लपके और सटीक थ्रो से चार खिलाडियों को रन आउट भी किया।
मुंबई में आयोजित 55वें नेशनल स्कूली गेम में पंजाब की तरफ से अंडर-14 क्रिकेट टीम से खेलने वाले राहुल को एक मैच में बल्लेबाजी करने का मौका मिला तो सात गेंद पर 15 बनाए। इसमें एक जोरदार छक्का भी शामिल है। टीम के साथी खिलाड़ी राहुल को पिंच हिटर के रूप में जानते हैं। पिछले साल जालंधर की तरफ खेलते हुए राहुल ने 37 गेंदों पर 50 रन बना डाले थे। जिसमें सात चौके और दो छक्के शामिल थे। जालंधर के साईं दास स्कूल में आठवीं के छात्र राहुल स्कूल और जालंधर की अंडर-14 टीम की कप्तानी भी करते हैं।

मुंबई में आयोजित 55 वें नेशनल स्कूली गेम में राहुल का प्रदर्शन

मैच ओवर रन विकेट मेडन
पहला मैच 3 6 1 1
दूसरा मैच 2 8 1 0
तीसरा मैच 1 5 0 0
चौथा मैच 3 १2 १ 0
पांचवां मैच 3 10 1 0
छठा मैच 3 8 1 0
(गेंदबाजी औसत-3.26 (प्रति ओवर))

Sunday 15 November, 2009

अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो



हम लड़कियां है, क्या यही हमारा गुनाह है? माता-पिता ने विदेश में सैटल करवाने के मकसद से हमारी शादी एनआरआई लड़कों से कर तो दी, लेकिन हम आज भी मायके में हैं। पति हमें छोड़कर विदेश जा चुके हैं। हमें न्याय की दरकार हैजाने-अनजाने एनआरआई लड़कों से विवाह हो गया। एनआरआई पति विवाह रचाने के बाद छोड़कर विदेश चले गए। अब हमारे पास मायके में रहकर न्याय के लिए चक्कर काटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा। यह दर्द भरी दास्तां सुनाई एनआरआई युवकों की सताई 24 लड़कियों ने। सर्किट हाउस में मंगलवार को फफक-फफक कर रोते हुए लड़कियों ने कहा कि आखिर वे लड़कियां क्यों हैं? उन्हें अब किसी भी जन्म में लड़की नहीं बनना है।
केस-1
कमलजीत कौर की मार्च-2002 में मक्खनलाल से विवाह हुआ और दो साल बाद वह फ्रांस चला गया। पांच साल बाद मक्खनलाल वापस लौटा तो 11 अगस्त को दूसरा विवाह रचा लिया। विवाह करवा कर वह फिर फ्रांस चला गया। अब कमलजीत कौर परिजनों के साथ थाना, पुलिस और अदालत के चक्कर काट रही है
केस-2
लतारानी का विवाह अप्रैल-2009 में कपूरथला के अमरजीत के साथ हुआ। डेढ़ माह बाद अमरजीत इटली चला गया। मालूम पड़ा, अमरजीत इससे पहले दो विवाह कर चुका था, अब वो इटली में चौथे विवाह की तैयारी कर रहा है। लता के पिता राजकुमार के अनुसार पहली पत्नी अमन होशियारपुर की है, जबकि दूसरी पत्नी रंजीत कौर कपूरथला की ही है।
केस-3
राजविंदर का विवाह साल-07 में पटियाला के गुरप्रीत सिंह के साथ हुआ। पांच माह बाद गुरप्रीत आस्ट्रेलिया चला गया। इस 21 मार्च को गरप्रीत भारत आया, और 25 मार्च को फिर आस्ट्रेलिया चला गया। राजविंदर कौर के अनुसार इस दौरान गुरप्रीत ने उसका गर्भपात भी करवा दिया। अब आस्ट्रेलिया ले जाने के लिए गुरप्रीत 5।50 लाख रुपए मांग रहा है।
केस-4
सुखविंदर कौर की बैगोवाल के प्रसिद्ध आढ़ती के बेटे सुखप्रीत सिंह के साथ दिसंबर 2005 में विवाह हुआ। एक साल साथ रहने के बाद सुखप्रीत कनैडा चला गया। इस बीच 2007 में सुखविंदर कौर ने एक बच्चे को जन्म दिया। सुखप्रीत सिंह अब कनैडा में दूसरी शादी रचाने जा रहा है, जिसकी शिकायत पुलिस में की गई है।
केस-5
किरनबाला की मोगा निवासी संदीप सिंह से 7 दिसंबर 2008 को मैरिज हुई। किरनबाला के मुताबिक संदीप ने फ्रांस जाकर दूसरी शादी के लिए अखबारों में विज्ञापन देने शुरू कर दिए, जब उसने फोन पर संदीप से बात की तो उसने उसे छोड़ देने की बात कही। किरन ने संदीप की शिकायत एसएसपी से कर दी है। - महाबीर सेठ http://www.gonard.blogspot.com/

Sunday 27 September, 2009

Monday 17 August, 2009

अपनों के जाने पर होता है दुःख

इस दुनिया में जो भी आया है, सबको जाना है। लेकिन जब कोई अपना चला जाता है तो दुःख होना स्वाभाविक है। गोरखपुर अमर उजाला के संपादक आदरणीय मृत्युंजय जी के पिता जी के इस दुनिया से जाने का समाचार मिला तो काफी दुःख हुआ। दो दिन पहले उन्हें हर्दयाघात हुआ और दुनिया से अलविदा कह गए। उमर के भी करीब ७८ पड़ाव पर कर चुके थे। घर में पोते-पोती, दोहते-दोहती सब है। वे अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गए है। दुआ करते है भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे।

Sunday 2 August, 2009

विरोध का यह कौन सा तरीका है

विनोद के मुसान
विरोध के सौ तरीके हो सकते हैं। लेकिन राष्ट ्रीय अभियान को धता बताकर अपने बच्चों को कुछ लोग पोलियो की दवा सिर्फ इसलिए नहीं पिलाते की उनके गांव में सड़क नहीं बनी या उनके यहां बुनियादी सुविधाआें का अभाव है। तो इसे आप या कहेंगे?
उत्तर-प्रदेश में इस तरह के 'विरोध` आम बात होती जा रही है। अशिक्षा का अंधेरा और जागरूकता की कमी ने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों को उजाले से दूर रखा है। गरीबी रेखा से नीचे दयनीय जीवन व्यापन कर रहे ये लोग नहीं जानते कि ऐसा करके वे कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं। इसे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना नहीं तो और या कहेंगे। पहले ही एक विशेष संप्रदाय के लोग (विशेषकर उत्तर-प्रदेश में) कुछ भ्रांतियों को आधार बनाकर पोलियो ड्राप का विरोध करते रहे हैं, लेकिन अब स्थिति और भयावह होती नजर आ रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हमारे देश के प्रशासनिक ढांचे में तमाम 'होल` मौजूद हैं। यहां व्यवस्थाएं हैं, योजनाएं हैं, नीतियां हैं, लेकिन इन्हें क्रियान्वयन करने वाली तमाम शि तयां भ्रष्ट ाचार केदलदल में गले-गले तक दबी हैं। ऐसे में संचालित हो रही योजनाआें का आधा-अधूरा लाभ भी संबंधित लाभार्थियों को नहीं मिल पा रहा है। 
इन हालात में यदि बची-कुची व्यवस्था को भी हम अपने हाथों चौपट कर देंगे, तो कैसे काम चलेगा। देश के नौनिहाल स्वस्थ रहें, वे आगे चलकर एक जिम्मेदार नागरिक बने, इस मंशा को पूरा करने के लिए सरकार तमाम योजनाएं संचालित करती है। राष्ट ्रीय जागरूकता पोलियो अभियान भी इसी मुहिम का एक हिस्सा है। उत्तर-प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी समस्याआें को आगे रखकर अभियान का विरोध तेजी से जोर पकड़ता जा रहा है। यह राष्ट ्रीय चिंता का विषय है। देश के नीति-नियंताआें को इस विषय में गंभीरता से सोचना पड़ेगा। इन क्षेत्रों में जागरूकता के लिए उन बुनियादी बातों को भी जानना जरूरी है, जिनके कारण लोग ऐसा कदम उठा रहे हैं। नहीं तो यह अभियान एक मजाक बनकर रह जाएगा और हमारे बच्चे जागरूकता केअभाव में एक ऐसा जीवन जीने को मजबूर होंगे, जो उन्होंने कभी भी अपने लिए नहीं चुना होगा।




Friday 10 July, 2009

ब्लागर मित्रों के नाम खुला पत्र

प्रिय ब्लागर मित्रों
आप सभी को मेरा नमस्कार...
खासकर श्री मृत्युंजय भाई साहब को सादर प्रणाम, जिन्होंने मुझे ब्लाग की इस अनोखी दुनिया से रू-ब-रू कराया। दफ्तर का काम खत्म करने के बाद घर लौटा तो कुछ लिखने की इच्छा हुई। सोचा आज उन दोस्तों के नाम ही एक खुला पत्र लिखा जाए, जो दूर रहते हुए भी दिल के करीब हैं।
मैं जनता हूं, आप सब भी मेरी तरह अपनी-अपनी दुनिया में मस्त हो। या यूं कहा जाए की उलझे हो। योंकि मस्ती आजकल की भाग-दाै़ड भरी जिंदगी में किसी नसीब वाले को ही नसीब होती है। फिर भी निराश होने की जरूरत नहीं है, इसी का नाम जीवन है। मैं अपने जीवन के तीस साल पूरे करने के बाद 31वें साल को अपनी तरह से इंज्वाय कर रहा हूं। जाहिर है मेरे मित्रों में भी अधिक संख्या उन लोगों की है, जो उम्र के इसी दौर से गुजर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कैरियर के लिए यही दिन जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण दिन होते हैं। मेरी तरह आप सब भी आगे बढ़ने के लिए जद् दोजहद कर रहे होंगे।
कुछ मित्र थे जो पहले ब्लाग की दुनिया में निरंतरता बनाए हुए थे। लेकिन पिछले कुछ महिनों से वे शांत हैं। समझ सकता हूं, आप सब पहले से ज्यादा व्यस्त हो गए हो, लेकिन मुझे लगता है, समाज के उत्थान को चिट् ठाजगत को आप लोगों की जरूरत है। आप सौ कराे़ड लोगों में वह चुनिंदा लोग हैं, जिन्हें भगवान ने लेखन कार्य की शि त दी है। चिट् ठाकारों के लिखने से यूं तो यह दुनिया बदलने वाली नहीं है, लेकिन हमारा प्रयास ही हमारा प्रण है। हम जूझेंगे, लिखेंगे और चेतना की नई ज्योत को हमेशा जलाकर रखने की कोशिश करेंगे। हम शत-प्रतिशत नहीं तो दस-प्रतिशत तो कामयाब होंगे।
आदरणीय मृत्युंजय जी सबसे बड़ी शिकायत मेरी आप से है। आपके ब्लाग लेखन से ही हमें इस दुनिया में झांकने का मौका मिला। आपने हमें बुनियादी बातें भी समझाई। अब आप ही चुप बैठ गए। मैं जनता हूं अब आपके कार्यक्षेत्र का विस्तार हो गया है, बड़ी जिम्मेदारी आपकेकंधों पर हैं। लेकिन मेरा मानना है, आप अगर समय निकालेंगे तो जरूर कुछ नया पढ़ने को मिलेगा। यह मेरी ही नहीं अधिकतर ब्लागर की शिकायत है।
वेद जी आप तो नोयडा जाकर, जैसे कहीं खो ही गए। आपकी लेखनी के हम हमेशा से कायल रहे हैं। कभी-कभार समय निकालकर कर अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करा दिया किजिए। यही शिकायत मेरी बड़े भाई ओम प्रकाश तिवारी, रंजन जी, थपलियाल जी, भाटिया जी से भी है। लगता है जालंधर से जाने केबाद जैसे सब कहीं खो गए हैं। रजनी जी आप तो शादी के बाद से ही ब्लाग की दुनिया से गायब हैं। अब लौट आइए। बहुत दिन हुए, आपकी कोई नई कविता नहीं पढ़ी।
...और अबरार भाई आप कहां हो, आपकी बहुत नहीं लेकिन कुछ नजमे पढ़ी, यकिन मानो बहुत दर्द है आपकी रचनाआें में। बस जरूरत है तो निरंतरता की। उम्मीद है आप जल्दी दस्तक दोगे।
अनिल भारद्वाज जी और मनीष जी लंबे समय से आप भी कहीं दिखाई नहीं दिए। भड़ासी तो बन गए, लेकिन दिल में दबी भड़ास को कब बाहर निकालोगे। फुर्सत केक्षण निकालकर कुछ नया जरूर लिखें, ऐसा मेरा अनुरोध है।
अंत में,
मैं अपने सभी मित्रों के सुखद भविष्य की कामना करते हुए यह चिट् ठा समाप्त कर रहा हूं। भूल-चूक केलिए माफी के साथ आपका स्नेही
विनोद के मुसान

Tuesday 30 June, 2009

अमरत्व की अधूरी आस


विनोद के मुसान
माया की महामाया परंपार है। जो कोई न करे, वह कर गुजर जाए। पूर्व में शायद देश के महापुरूषों को अ ल नहीं थी। उन्होंने अपने जीवित रहते अपना कोई बुत नहीं लगवाया। इसलिए तो उनका यह हाल है। जो उनके अमर होने के बाद कई लोग उन्हें ठीक से जानते तक नहीं। लेकिन बहन जी ने इस मामले में कोई कसर नहीं छाे़डी। अपने जीवन रहते ही इतने बुत खड़े कर दिए, ताकि बाद में कोई कसर न रहे। फिर करे भी यों न। इतिहास गवाह है, अपने जीवत रहते अमरत्व की लालशा कई लोगों ने की। वे कितने सफल हुए, यह एक अलग विषय है। 
अब यही अभिलाषा एक दलित की बेटी ने की तो कईयों के पेट में दर्द होने लगा। अरे भाई! अमरत्व कोई सत्ता की कुर्सी नहीं, जिस पर कोई भी ऐरा-गैरा, नत्थु खैरा आ कर बैठ जाए। यह एक तपस्या है, जिसे पूरा करने के लिए कई त्याग करने पड़ते हैं। जनता के दो-चार हजार कराे़ड रुपए तो आहूति भर हैं। अपनी इस उत्थान यात्रा में वे लगातार आगे बढ़ रही हैं। उन्होंने ताज कारिडोर, चल-अचल संपत्ति, भष्ट ्राचार तथा कई अन्य प्रकार के राहु-केतुआें को पटखनी देते हुए यह उपलब्धि हासिल की है। और फिर आप उनके अन्य महान कर्मों को यों भूल जाते हैं। पहले उन्होंने दलितों का उत्थान किया। उन्हें तर किया, वितर किया और फिर एकत्र किया। पिछले चुनाव में इसका विस्तार करते हुए एक उच्च श्रेणी की जाति का सेनापति नियु त किया और नारा दिया 'सर्व जन सुखाय, सर्व जन हिताय`। तुम भी खाओ, हमें भी खाने दो, सभी सुखी रहो। अब आप ही बताएं, इसमें गलत या भाई। आज कल जहां, भाई-भाई को सुखी नहीं देख सकता, वहीं वह सर्व जन सुखाय की बात करती हैं। अपने प्रदेश के दलितों का उत्थान करने के बाद वह रूकी नहीं, उन्होंने अपनी विकास यात्रा जारी रखी। वे देश की प्रधानमंत्री बनकर पूरे देश का उत्थान करना चाहती थी। लेकिन उनकी इस मुहिम को बिता चुनाव झटका दे गया। देश के कई पार्क और चौराहे उनकी अमरत्व की शिला से महरूम रह गए। 
अब ताजा प्रकरण ही ले लीजिए। अमरत्व की उनकी इस विकास यात्रा में एक सिरफिरे ने खलल डाल दिया। इतनी व्यवस्तम यात्रा में उन्हें कुछ ऐसे सवालों का जवाब देना पड़ेगा, जिनका पूछने वाले और जवाब देने वाले दोनों को पता है कि इसके बाद भी कुछ नहीं होने वाला। 
जैसे जनता की गाढ़ी पसीने की कमाई यानि सरकारी धन का दुरुपयोग यों किया गया। वह भी तब, जबकि उनका प्रदेश गरीबी और अशिक्षा में सबसे आगे है। जनता को दी जाने वाली मूलभूत सुविधाआें का टोटा है। जनता के बीच बिजली-पानी को लेकर हहाकार मचा है। स्वास्थ्य सेवाआें की तो बात ही मत करो। परिवहन का बुरा है। ऐसे में भला आप खुद का उत्थान कैसे कर सकती हैं। 
खैर हमारी तो कामना है बहन जी आप दिन-दुनी, रात चौगुनी तर की करो। आप दलितों की मसीहा बनी, खुद का उत्थान किया, अब देश का भी कुछ भला करो। योंकि ज्यादा खाने से किसी को भी अपच हो जाता है। बढ़े-बू़ढों की बात समझो। कम खाओ और सुखी रहो। 

Monday 8 June, 2009

मीडिया के चुतियापे का समय

यह मीडिया के चुतियापे का समय है। इस शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अपनी हरकतों से मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रहा है। चुनाव में हिन्दी के कई ..बड़े अख़बारों ने पैसे लेकर विज्ञापन नुमा न्यूज़ छापी। पाठकों को बेवकूफ समझा। एक ही पेज पर एक ही साथ कई लोगों को जिताया. जाहिर है की पाठक उनकी पिछवारे पर आज नहीं तो कल लात मारेंगे । भला हो अमर उजाला का जिसने कई दिक्कतों के बावजूद इस चुनाव में पैसे लेकर खबरें छापने से इंकार कर मीडिया की इज्जत बचायी।

कई संसथान संपादको की जगह मैनेजरों को बिठाकर कबाडा कर रहे है। कई रिपोर्टरों को विज्ञापन के टारगेट दे रहे हैं और वे भी परम कुत्ता भाव से खबरों की जगह क्लाइंट को सूंघते फ़िर रहे है। कई पत्रकार की जगह दलाल या लाइजनर बन गए है। तो मीडिया को बेडा गर्क होने से कौन बचायेगा।

Saturday 6 June, 2009

लोकतंत्र के उत्सव में दहकते रहे पहाड़


इधर पूरी सरकारी मशीनरी लोकसभा चुनाव में व्यस्त रही और उधर उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय क्षेत्र केवन आग की चपेट में थे। पहाड़ों में सुलगती ज्वालाएं रोज अपार वन संपदा को लीलती रहीं, लेकिन आग को बुझाने की पहल नहीं की गई। चुनाव तो सकुशल निपट गया। लेकिन इस दौरान जलते जंगलों के बाद हुई क्षति को कौन पूरा करेगा, यह प्रश्न्न यक्ष बना हुआ है।  
विनोद के मुसान
पहाड़ गर्म हैं। देश भी गर्म है। वजह अलहदा है। देश में सियासी लू चल रही है तो पहाड़ों में आग पखवाड़े भर अपना दायरा बढ़ाती रही। इसका अहसास वहां सैर को जाने वालों को होता है जब दिन में कपड़ों पर गर्द पड़ती है और रात केअंधेरे में आसमान लाल लगता है। देखने में खूबसूरत लगने वाले रात के आसमान की हकीकत जानने केबाद जेहनी जु़डाव वाले लोग शायद ही उस रात सो पाएं। कहां गए होंगे वहां के जानवर? कितने पे़ड, कितने घोसले खाक हुए होंगे? आयोग की सख्ती से लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव में जनता को राहत मिली, लेकिन यहां राहत कहां? इतने छोटे से लफ्ज की इतनी बड़ी तासीर, कि कल्पना में रात गुजर जाए। 
होश संभलने के दौरान आपने भी कहानी पढ़ी होगी जिसमें कोर्ट में पेश एक नासमझ वकीलों के तमाम तर्कों के बावजूद नहीं मान पाता कि दो बोल्ट खोलने से ट्रेन भला कैसे पलट सकती है। उसने तो मछली पकड़ने के जाल में बांधने केलिए रेल पटरी से दो नट-बोल्ट खोले थे। ऐसा तो उसके बस्ती वाले अ सर करते थे। उसे सजा मिलती तो है लेकिन अपराध को वह समझ ही नहीं पाता। ठीक उसी तरह जब उत्तराखंड के बाशिंदों से जाना कि हर साल लगती है आग, लेकिन इस बार लगाने वाले ने यह सोचा भी नहीं होगा कि बुझाने वाले ही नहीं मिल पाएंगे। 
उत्तराखंड में रात को सफर करते समय ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से उठने वाली लपटें किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकती हैं, लेकिन काल की माफिक अपार वन संपदा और वन्य जीवन को लीलने वाली इन लपटों की हकीकत जानने के बाद किसी का भी मन उद् विगन हो सकता है। तपती गरमी में दिन के समय जलते जंगलों से उठने वाला धुआं और हवा के साथ गिरने वाली राख पूरे वातावरण को दूूषित बना देती है। 
देवभूमि कहे जाने वाले इस छोटे से प्रदेश की वन संपदा खतरे में हैं। खतरा इतना बड़ा है कि इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। पूरे प्रदेश के जंगल इन दिनों आग की चपेट में हैं। हर तरफ बस आग की लपटें दिखाई देती हैं। शासन और प्रशासनिक मशीनरी को सबकुछ दिखाई दे रहा था, लेकिन वह पहले लोकतंत्र के महाकुंभ में व्यस्त थी और अब खुमारी उतारने में। आम आदमी दुनियादारी के झंझटों में इतना उलझा है कि वह इन दृश्यों को देखकर भी अनदेखा कर देता है। 
पिछले दिनों एक शादी समारोह में टिहरी गढ़वाल जाते हुए तपते पहाड़ों को देखकर मन में एक अजीब सी उदासी छा गई। लगा मेरे सामने मेरा घर जल रहा है और मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। थक-हार कर आपातकालिन सेवा नंबर पर फोन किया। एक नहीं कई बार फोन किया। हर बार एक ही जवाब आया। हमने आपकी शिकायत दर्ज कर ली है। फलां थाने को इसकी सूचना दे दी गई है। संबंधित अधिकारियों का नंबर मांगने पर पहले तो असमर्थता जता दी गई। बाद में नंबर उपलब्ध हुआ तो जवाब मिला, साहब इन दिनों चुनाव में व्यस्त हैं, कुछ नहीं कर सकते। मन खिन्न हो गया। वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया गया, तो टका का जवाब मिला, 'हम कोशिश कर रहे हैं।` 
यह वही विभाग है, जो किसी ग्रामीण को एक गट्ठर चूल्हे की लकड़ी ले जाते पकड़ ले तो उस पर अच्छा-खासा जुर्माना कर देता है। पर यहां तो पूरे के पूरे जंगल खाक हो रहे हैं। तमाम पशु-पक्षी मारे-मारे फिर रहे हैं। वनाषौधियां नष्ट हो रही हैं। भूमि में जल संरक्षित करते वाले श्रोत खत्म हो रहे हैं। पूरी प्रकृति ही अपना श्रंगार खो रही है। 
टिहरी जिले की भिलंगना रेंज, भागीरथी रेंज, पोखाल, जगधार, चंबा केवन, सुरसिंहधार, प्रतापनगर, बाल गंगा रेंज, नैलचामी डाडां, घनसाली ब्लाक, देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में पड़ने वाले तमाम जंगल, नई टिहरी के आस-पास केवन, पटीयाली गांव केसामने की पहाड़ियां कुछ ऐसी जगह थीं, जो आग की लपटों में घिरी थी। 
यह वही जिला है, जहां से अभी कुछ दिन पहले पर्यावरण केनाम पर एक शख्स राष्ट ्रीय सम्मान पद् मविभूषण लेकर लौटे हैं। मैं बात कर रहा हूं उस जानी-मानी हस्ती की, जिसे लोग अंतर्राष्ट ्रीय ख्याति प्राप्त शख्सियत सुंदर लाल बहुगुणा के नाम से जानते हैं। मन में एक सवाल उठा, 'बहुगुणा जी, आप तो नई टिहरी में निवास करते हैं, जहां से दूर-दूर तक हिमालय केदर्शन होते हैं, दिन नहीं तो रात में तो आपको जलते जंगलों से उठती लपटे जरूर दिखाई देती होंगी, आप कुछ करते यों नहीं?` 'अगर ये पहाड़ यूं ही तपते रहे, कहां रहेगा पर्यावरण और कहां जाएंगे पर्यावरणविद् ?`
यहां निवास करने वाले आम आदमी से इस विषय में बात करने पर सौ में से नब्बे लोगों का एक ही जवाब होता है, 'जंगलात वाले जंगलों में खुद आग लगाते हैं।` कारण पूछने पर बताते हैं, इसके बाद होने वाली मोटी कमाई, जो उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाती है। जलते जंगलों की आग शांत करने के लिए जारी होने वाला मोटा बजट और इसके बाद प्लानटेशन के नाम पर होने वाली खानापूर्ति से छोटे कर्मचारी से लेकर बड़े अधिकारी तक अपना पेट भरते हैं।` हकीकत कुछ भी हो, लेकर इस स्याह सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि जंगल जल रहे हैं और धुआं वहीं उठता है, जहां आग लगी हो। 
ऐसा नहीं है कि इस आपदा को लेकर पहाड़ का हर शख्स मौन हो, कुछ ऐसे कर्मठ लोग भी यहां मौजूद हैं, जिन्होंने गांव केआस-पास केजंगलों में आग को कभी फटकने भी नहीं दिया। उन्होंने इन जंगलों को अपने बच्चे की तरह पाला है। टिहरी जिले के हिंडोलाखाल ब्लाक में मां चंद्रबदनी देवी मंदिर केनीचे निवास करने वाले कई गांव ऐसे हैं, जो इस मुहिम को जनांदोलन का रूप दिए हैं। कैंथोली, करास, पुजार गांव और आस-पास के कुछ अन्य गांव इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। आस-पास आग की एक छोटी सी चिंगारी पर भी पूरे गांव के लोग इकट् ठा होकर उसे शांत कर देते हैं। इन गांवों केआस-पास फैले घने बांज और चीड़ के जंगल खुद इनकी रक्षा करने वालों के हौसले की दाद देते हैं। 
यहां के लोगों का मानना है, 'ये सिर्फ जंगल नहीं, हमारे माता-पिता हैं, जो हमें अपनी गोद में पालते हैं, जिस दिन इनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, ये पहाड़ भी रहने लायक नहीं रहेंगे। अगर व त रहते लोग नहीं चेते तो पहाड़ बिन जंगल ठीक उस विधवा की तरह दिखेंगे, जिसकेमाथे का सिंदूर मिट चुका होता है।`
ज्वलंत मुद् दा
नोट - यह लेख २४ मई को 'कांपे ट` (अमर उजाला संस्करण) में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुका है। 

Sunday 10 May, 2009

चुनाव सभाआें में फिल्मी सितारे

विनोद के मुसान
भारतीय राजनीति में नेताआें की छवी जनता के बीच कितनी दूषित हो चुकी है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लोकसभा चुनाव में साफ देखने को मिल रहा है। वे भीड़ को देखने के लिए तरस रहे हैं, लेकिन जनता उन्हें घास नहीं डाल रही। थक-हारकर उन्हें वह हत्थकंठे अपनाने पड़ रहे है, जो मर्यादित राजनीति को शोभा नहीं देते। स्टार प्रचारकों के नाम पर चुनावी सभाआें में उन लोगों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं। फिल्मी पर्दे पर अभिनय कर एक हद तक भीड़ खिंचने वाले फिल्मी सितारे अब राजनीतिक मंचों की शोभा बनने लगे हैं। यहां भी यह लोग एक हद तक भीड़ खिंच लेते हैं, जिसको हमारे राजनेता अपनी उपलब्धि समझने की भूल कर रहे हैं। 
दरअसल फिल्म पर्दे की चकाचौंध के बाद जब फिल्म सितारे यकायक पब्लिक से रूबरू होते हैं, तो भीड़ भी उमड़ पड़ती है, यह वह भीड़ होती है, जो अपने चहेतों स्टार को करीब से देखने आती है। न की इन्हें बुलाने वाले नेता को। यही वजह है कि चुनावी रैलियों जनता के मुद् दे गौण हो रहे हैं। सभा से बाहर निकलने के बाद लोग बात करते हैं कि फंला अभिनेत्री ने या पहना था, वह बार-बार अपने बालों को झटके दे रही थी। अरे, उस अभिनेता की तो जींस फटी थी, फटी थी...नहीं-नहीं, यह तो फैशन है। नेता जी ने अपने भाषण में या कहा, या नहीं कहा। इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं। भीड़ पहुंच गई। दिल्ली से आए बड़े नेता जी भी खुश। लेकिन यह हत्थकंडा भी ज्यादा दिन नहीं चलेगा। एक समय के बाद भीड़ नेताआें की तरह फिल्मी लोगों को भी नहीं पूछेगी। 
हालांकि चुनाव आयोग की सख्ती के चलते चुनावी सभाआें के मंच पर इस बार भाै़ंडे डांस नहीं दिखाई दिए। जिनको लेकर चुनाव चर्चाआें का विषय बनता था। उत्तर प्रदेश और बिहार में तो यह आम बात थी। पब्लिक को रिझाने के लिए नेता लोग जो न कर जाएं, वह कम है।  
आफ बीट लोग कहते हैं, फिल्म वाले पैसा लेकर प्रचार करने आते हैं, इसमें भी दोराय नहीं है, योंकि इसी चुनाव में कुछ फिल्मी सितारों को एक दिन एक पार्टी तो दूसरे दिन दूसरी विपक्षी पार्टी का प्रचार करते देखा गया। टीवी चैनलों पर भी खूब शोर मचा। दोस्तीऱ्यारी और रिश्ते निभाने तक तो ठीक है, लेकिन पैसा लेकर लोकतांत्रिक व्यवस्था केलिए चुने जाने वाले सदस्यों के लिए प्रचार करना शोभा नहीं देता।
एक समय था जब चुनावी मंचों पर देश की नई तस्वीर तय होती थी। बड़े-बड़े मुद् दों पर बहस होती थी। शालिन अंदाज में विपक्ष की धज्जियां भी उड़ाई जाती थी। लोग दूर-दूर से नेताआें को सुनने आते थे। सभा से बाहर निकलने के बाद लोग आपस में बहस करते थे। लेकिन वर्तमान राजनीति का चेहरा इस कदर विकृत हो चुका है कि इसमें इन बातों के लिए कोई जगह नहीं है। 

Saturday 2 May, 2009

मुद् दों का सौदागर

विनोद के मुसान
नेता जी के आराम में खलल डालते हुए उनके सेके्रटरी चमच्च लाल ने तेजी से कमरे में प्रवेश किया और बोले, 'सर हमारी कान्सीटेंसी में 'मुद् दों` का सौदागर घूम रहा है।` 'कहो, तो बुला लाऊं।` 'पिछले चुनाव के बाद अबकी बड़ी मुद् दत के बाद दिखाई दिया है। कहीं ऐसा न हो, पिछली बार की तरह इस बार भी विपक्षी दल के लोग उसे लपक ले जाएं और हमारे हाथ इस बार भी खाली रह जाएं।` 'वैसे पिछली बार तो जुगाड़ से काम चल गया था, लेकिन इस बार या होगा।` नेता जी ने बड़ी सी जमाही ली और बोले, 'कौन-कौन से मुद् दे हैं इस बार सौदागर की झोली में।` 'महाराज, वो तो उसे बुलाने पर ही पता चलेगा।` 
'कहो तो, बुला लाऊं`। 'हां,` 'लेकिन रूको।` 'पहले इस बात की तफ्तीश कर लो, या इस बार मुद् दों की जरूरत है भी या नहीं।` 'जहां तक मेरी जानकारी है इस बार बड़ी-बड़ी पार्टियां भी बिन मुद् दई चुनाव लड़ रही हैं।` 'कहीं ऐसा न हो उसे बुलाकर हम बेकार का खर्च सिर मोल ले लें।` 'चुनाव आयोग का या भरोसा इसे भी हमारे चुनाव खर्च में ही जाे़ड लेगा।` 'फिर भला उसके पास इस बार कौन से नए मुद् दे होंगे। दशकों पहले हमने जो मुद् दे चुनाव के व त जनता के बीच रखे थे, वह आज भी वैसे ही हैं।` 'हर बार गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद और जनता को बरगलाने वाली कुछ नई योजनाएं इस बार भी चला देंगे। वैसे भी जनता के बीच अब ये मुद् दे बाजार में खोटा सि का चलाने जैसी बात है।`
 'जनता के पास ही इन बातों के लिए समय नहीं, तो भला हम यों मथापच्ची करें।` 
 'लोकतंत्र का यह महापर्व अब रस्मी अनुष्ठ ान बन गया है। जिसे पूरा करने के लिए अगर मुद् दों के सौदागर के पास कोई बूटी हो तो जरूर उसे बुला भेजो।` 'वैसे भी आतंकवाद पर एक पार्टी का कब्जा है, दूसरी परमाणु करार को लेकर चिंतित है, तीसरे हॉट मुद् दे का मुद् दा भी तीसरे र्मोचे ने लपक लिया है।` 
'मंदी को लेकर हम जनता के बीच जाना नहीं चाहते, योंकि यही असली मुद् दा है।` 'अगर गए तो कल जवाब देना पड़ेगा। इसलिए मुद् दों की बात न ही करो, तो ज्यादा अच्छा है। वैसे तो जनता की याददाशत बहुत कमजोर होती है, लेकिन बात जब सतही मुद् दों की आती है तो कोई भी 'जवाब हाजिर` हो सकता है।`
'जनता को मुद् दों की याद दिलाकर, अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात होगी। इसलिए अच्छा यही होगा, मुद् दों केसौदागर को न ही बुलाओ।` 'आगे काम की बात सोचो।` 'चुनाव जीतने के बाद किस पार्टी की गोद में बैठें और अभी किस की यारी प्यारी है।` 
नेता जी के तर्क सुनकर सके्रटी भी सोचने लगा, जब मुदई ही मुस्तैद नहीं है, तो भला चम्मच लाल यों अपनी चम्मची चमकाए। 

Saturday 28 March, 2009

टीवी पर न्यूज का टोटा

विनोद के मुसान
टीवी न्यूज चैनल की स्क्रीन से खबरें सिरे से गायब हैं। अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने वाले तमाम न्यूज चैनलों के पास खबरों का ऐसा टोटा है कि वे हांफते फिर रहे हैं। फिर भी प्रतिस्प्रर्धा की अंधी दाै़ड में बेशर्म होकर अपने को सर्वश्रेष्ठ कहलाने से नहीं हिचकते हैं।  
लोग सुबह उठते हैं, ताजातरीन होकर। टीवी का स्विच ऑन करते हैं, यह सोचकर की देश दुनिया की खबरों से रू-ब-रू हो सकें। लेकिन, इससे इतर उन्हें जानकारी मिलती है, बीती रात कौन से सीरियल में या घटित हुआ। नच बलिए में किस ने कौन से लटके-झटके दिखाए और हंसी के फूहड़ शो में पूरा शो खत्म हो जाने केबाद भी किसी को हंसी नहीं आई। छोटे उस्ताद में गंगू बाई ने किसके घर में झाड़ू लगाई। कौन से हिरो-हिरोइन ने इन दिनों किस कंपनी का प्रोड ट लांच किया। और इस सबकेबाद भी टाइम बचा तो आपको इसी लोक में पाताल लोक की सैर भी करा दी जाती है। जब दिखाने को कुछ न हो तो सदाबहार 'आतंकवाद` तो है ही। यह ऐसा विषय है, जिसके कभी भी चला दो। एजेंसी से उठाई हुई ि लप को मिर्च-मसाला लगाकर ऐसे पेश किया जाता है, जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खबर आज चैनल के हाथ लग गई हो। खबरों के नाम पर जो भाै़ंडा खेल चैनल वाले खेल रहे हैं, इसने रही-सही पत्रकारिता का भी सत्यानाश कर दिया है। चैलनों पर चलने वाली खबरों को देखकर कोफ्त होती है, सिर दर्द करने लगता है। आम शख्स आज न्यूज चैनलों केबारे में अपनी बेबाक रखता है तो उसकेमुख से कभी अच्छी बात नहींं निकलती। वैसे भी पत्रकारिता के इस पवित्र पेशे में कैसे-कैसे लोगों की गुसपैठ हो चुकी है, यह बात किसी से छुपी नहीं है। 
ईमानदारी से सोचो सौ कराे़ड से ज्यादा आबादी वाले इस देश में या बारह घंटे की खबरें नहीं जुटाई जा सकती। चलो मान लिया आप चौबीस घंटे केन्यूज चैनल हैं, आपको हर व त कुछ न कुछ दिखाना है। लेकिन खबरों केनाम पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, या वह उचित है। बासी ही सही लेकिन खबरें तो दिखाओ। चैनल वालों को लग रहा है, लोगों को फूहड़ हंसी वाले शो दिखाकर वे भी वे अपनी टीआरपी बढ़ा रहे, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा।  

Thursday 26 March, 2009

दिल्‍ली मेट्रो का सच: मेटो के कर्मचारियों ने किया मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन

दिल्‍ली मेट्रो केवल दिल्‍ली ही नहीं बल्कि पूरे देश की शान है। उसकी चमकती ट्रेन, दमकते प्‍लेटफॉर्म और टिकट वितरण आदि की व्‍यवस्‍था सभी को पसंद है। लेकिन इस चमक-दमक के तले काम करने वालों की स्थिति के अंधेरे पक्ष के बारे में शायद बहुत कम लोगों को पता है, क्‍योंकि मेट्रो का प्रबंधन मीडिया को इस तरह मैनेज करता है कि केवल उसका उजला पक्ष ही लोगों के सामने आता है। अब, मेट्रो के कर्मचारी अपने साथ हो रहे अन्‍याय के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे हैं, जिसका समर्थन लोकतांत्रिक मूल्‍यों में यकीन करने वाले हर व्‍यक्ति को चाहिए।
कल, यानी 25 मार्च को मेट्रो के कर्मचारियों ने अपनी मांगों को लेकर मेट्रो भवन के सामने विरोध-प्रदर्शन किया और नारे लगाए। जनसत्‍ता में छपी खबर के अनुसार मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के बैनर तले मेट्रो के कामगार और मजदूरों ने न्‍यूनतम वेतन, साप्‍ताहिक छुट्टी और चिकित्‍सा सुविधा आदि की मांग को लेकर मेट्रो भवन के सामने प्रदर्शन किया। मजदूरों का कहना है कि उनसे 12-12 घंटे तक काम लिया जाता है और न्‍यूनतम मजदूरी 186 रुपये की जगह 90-100 रुपये ही दिये जाते हैं। द ट्रिब्‍यून की खबर के अनुसार न मजदूरों को कहना है कि उन्‍हें न तो पहचान पत्र दिए गए हैं और न ही प्रॉविडेंट फंड का अकाउंट खोला गया है। उनका आरोप है कि ठेकेदार मजदूरों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं और उन्‍हें कभी-कभी सप्‍ताह में बिना छुट्टी के सातों दिन काम करना पड़ता है। इंडोपिया डॉट इन के अनुसार अपनी मांगे उठाने पर मजदूरों के साथ गाली-गलौज की जाती है और उन्‍हें धमकी दी जाती और यहां तक नौकरी से भी निकाल दिया जाता है।

Monday 16 March, 2009

राजनीति में एंट्री


विनोद के मुसान
रामजी भाई गांव वाले इन दिनों काफी परेशान हैं। यूं तो उनकी परेशानी की वजह कुछ खास नहीं, लेकिन समस्या देशहित के साथ उनके कैरियर से जुडी है। व्यवस्था में रामजी भाई का योगदान मात्र इतना है कि वर्ष दर वर्ष किसी न किसी चुनाव में वे अपना कीमती मत 'दान` कर देते हैं। यूं तो उनका यह दान बहुत बड़ा है, लेकिन उन्हें लगता है मात्र दान कर लेने भर से उनकी और देश की समस्याएं हल होने वाली नहीं हैं। इसलिए पिछले दिनों उन्हें कुछ नया करने की सुझी और उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाने का निर्णय ले लिया। 
आम आदमी का लेबल लिए रामजी भाई भले ही 'आम` हों, लेकिन उनमें वह सारी काबिलियत मौजूद हैं, जो उन्हें आम से खास बना सकती हैं। लेकिन व्यवस्था से अपरिचित जब उनका सामना सच्चाई से हुआ तो सारी की सारी योजनाएं धरी रह गइंर्।
रामजी भाई चाहते थे कि वे जनता की बीच जाकर देश की सर्वोच्च संस्था से जुड देशहित में योगदान दें। लेकिन, यहां पर आकार वे फंस जाते हैं। 
उनके पास राजनीति में आने के लिए न तो किसी फिल्मीस्तान यूनिर्वसिटी की डिग्री है और न वे गुल्ली-डंडा केअलावा कभी क्रिकेटिया रंग में रंग पाए। गांव में रहते हुए उन्हें भाईगिरी करने का भी मौका नहीं मिला। बस नाम के ही 'रामजी भाई` बनकर रह गए। अब भला देश की समस्याएं हल कैसे हों, यही चिंता उन्हें आजकल दिन रात खाए जा रही है। इन दिनों रामजी भाई अपने गैर राजनीतिक खानदान को कोसने से भी बाज नहीं आते। दादा-नाना, चाचा-ताऊ, मामा-फूफा कोई तो होता, जो भवंर फंसी उनकी नैया का इस व त खेवनहार बनता। राजनीति केमैदान में उनका खानदान हमेशा से 'सफाच्चट` ही रहा। जिसका उन्हें इस दिनों खासा दुख है। 
आर्थिक तंगी से जूझ रहे रामजी भाई की बीते दिनों की गई समाज सेवा भी काम नहीं आ रही। बुरे कर्मों की बाढ़ में लोग अच्छे काम करने वाले को किस कदर भूल जाते है, इसका अहसास रामजी भाई को इन दिनों खूब हो रहा है। वोट बैंक की राजनीति का आधुनिक 'विकृत` चेहरा देख वे हैरान हैं। टिकट से पहले नोट, जातिगत समीकरण और सेलिब्रिटी लेबल के अलावा तमाम दूसरे दाव-पेचों से उनकी झोली बिल्कुल खाली है। आमोखास बनने का कोई भी रास्ता उन्हें दिखाई नहीं दे रहा। ऐसे में उनकी चिंता लाजिमी है। 
आखिर उनकी जुगत उनके साथ देशहित से जु़डी है। रामजी भाई बड़ा सोचते लेकिन बौनी व्यवस्था के आगे उनके कदम लड़खड़ाने लगते हैं। आखिर, हैं तो वह आम आदमी ही। जिसका कोई पूछनहार नहीं होता। कई तरह की जुगत लगाने के बाद भी जब रामजी भाई को कोई प्लेटफार्म नहीं मिल रहा तो वे अब इस क्षेत्र में आने से पूर्व अलविदा कहने की तैयारी कर रहे हैं।

Wednesday 18 February, 2009

कश्मीर में भुखमरी है क्या ?

मैं रोज की तरह आज भी नगर निगम से लौट रहा था, की शास्त्री मार्किट में एक २४ साल का हट्टा - कट्टा कश्मीरी नौजवान मेरे सामने खड़ा हो गया । मैं एक अख़बार लेने पास की दुकान में जा रहा था । कश्मीरी नौजवान के कंधे पर कुल्हाडी थी, हाथ में एक झोला था । मेरे सामने आकर १० रुपए मांगने लगा । बोला, भूखा हूँ । चाय पिला दो । दो दिन से दिहाडी नही की है, मेरे पास एक भी रुपया नही है । मैं हैरान था, मेहनत करने वाले इस युवक पर जो मुझसे पैसे मांग रहा था । मेरे पास १०० रूपये का एक ही नोट था, मैं देना नही चाहता था । और यही हुआ, मैंने उसे आगे टरका दिया ।अचानक मुझे एक फ़ोन का ख्याल आप गया । एक दिन एक महिला का मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया की शहर में झुंड के झुंड कश्मीरी लोग घूम रहे हैं, यह उस समय की बात है जब देश में एक के बाद एक बम धमाके हुए थे । महिला ने फ़ोन पर कहा था की ये लोग आतंकवादी हो सकते हैं । मुझसे इन लोगों के बारे में अख़बार में ख़बर लिखवाना चाह रही थी । मुझे यह बात कतई नही जांची । मेहनत मजदूरी करने वाले लोग ऐसा क्यूँ करेंगे ? उसके बाद आज कश्मीरी युवक द्वारा १० रूपये मांगने की घटना ने मुझे एक चीज सोचने पर मजबूर कर दिया । वह यह की क्या कश्मीर में भुखमरी है ? मुझे कश्मीर जाने का कभी मौका नही मिला है , लेकिन इतना जरुर सुना है, पढ़ा है, कि अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वह कश्मीर है । क्या स्वर्ग जैसे जगह का यह हल है ? इस पर जम्मू - कश्मीर कि सरकार के साथ केन्द्र सरकार को भी सोचना चाहिए । आंतक का संताप झेल रहे स्वर्ग को बचाने और कश्मीर के लोगों को रोजगार देने कि पहल करनी चाहिए । कश्मीर का नौजवान जब कुल्हाडी उठा कर लकड़ी कट सकता है , पेट और परिवार चलाने के लिए वह कुछ भी कर सकता है ।सरकारें अगर कुछ करना चाह रही हैं रोजगार मुहैया करवाए, आतंकवाद अपने आप ख़तम हो जाएगा ।
महाबीर सेठ

Sunday 18 January, 2009

जय हो रहमान


राष्ट्रवादी मिलियनेयर भारतीय फिल्म को बहुप्रतिष्ठत हालीवुड पुरुस्कार 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' भले ही सर्वश्रेष्ठ सक्रीन प्ले,निर्देशन तथा संगीत के संयुक्त आधार पर मिला हो लेकिन संगीतकार ए.आर.रहमान को मिले इस पुरुस्कार में भारतीयता की जीत है । संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के बावजूद जब देश में सबकुछ धर्म -जाति और क्षेत्र के आधार पर बांटा जा रहा हो, एसे में रहमान की इस उपलब्धि को राष्ट्र के नाम समर्पित करना कइयों के लिए सबक या प्रेरणास्रोत बन जाना चाहिए । गौर है कि उक्त फिल्म का गुलजार लिखित रहमान का संगीतबद्ध गीत 'जय हो' गाना सर्वश्रेष्ठ मौलिक संगीत रचना के खिताब से नवाजा गया है । निश्चित रूप से रहमान का रचा यह इतिहास उनके भारतीयता में डूब जाने या राष्ट्रयिता से ओत-प्रोत हो जाने का ही परिणाम है । इस दृष्टि से अल्लाह रखा रहमान 'गोल्डन ग्लोब अवार्ड ' जीतने वाले पहले भारतीए हैं । संगीत की रचना के समय भी भारतीयता की कल्पना में खोए रहने वाले रहमान की रचनाएं उनके समर्पण को कई बार प्रकट कर चुकी है । संगीत के इस साधक में भारतीयता को समझने, भारतीयता में डूबने का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपने संगीत के लिए कभी छत्तीसगढ़ को जानना चाहते हैं तो कभी गुजरात के गांवों को । कभी वह कश्मीर की वादियों में गुनगुनाया है तो कभी त्रिपुरा की तराइयों में उसकी कल्पनी पहुंची । जय हो रहमान, जय हो हिंद ....