Sunday 18 April, 2010

कुंभ से साक्षात्कार

इन दृश्यों की शब्दों में अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती है। यह अद्ïभुत हैं, अलौकिक हैं। आंखों को तृप्त कर देने वाले। संसार में ऐसा समागम शायद ही कहीं और देखने को मिले। इसके बाद आप नास्तिक होते हुए भी अपने को उस भीड़ से जुड़ा पाते हैं, जो आस्था के भवसागर में तरने आई है।
बहुत लोगों को इस बात पर बहस करते सुना है, यह कुंभ नहीं महाकुंभ है। जो बारह साल बाद आया है और बारह साल बाद फिर आएगा। लेकिन कुछ भी हो, यह बे-मिशाल है। तमाम संस्कृतियों को ऐसा भवसागर, जिसमें हर कोई तरने आया है। होश संभालने के बाद यह दूसरा मौका है, जब कुंभ से मेरा साक्षात्कार हुआ।

विनोद के मुसान

पहला साक्षात्कार
1998 में जब मैं बी.एससी द्वितीय वर्ष का छात्र था। उस वक्त मेरी उम्र महज 17-18 साल थी। शौक के लिए फोटाग्राफी सीख रहा था। मेरे जीजा जी के एक मित्र हैं, रविंद्र पाल ग्रोवर, जिन्हें लोग बंटी भईया के नाम से जानते हैं। उन्हीं दिनों कुंभ मेला प्रशासन की ओर से उन्हें पूरे कुंभ की फोटोग्राफी और विडियो कवरेज का काम मिला था। जिसमें करीब 15 लोगों की टीम बनी। 'त्रिवेणी कंप्यूनिकेशन ’ की इस कंपनी में कई जाने-माने फोटोग्राफरों को शामिल किया गया। सभी लोग पेशेवर और मझे हुए थे, जबकि मेरी सिर्फ शुरुआत थी। हरिद्वार में शिव चौक स्थित मोती महल धर्मशाला में हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी।
इधर, कुंभ में पहले ही दिन मेरी ड्ïयूटी तात्कालिक मेला अधिकारी जेपी शर्मा के साथ लग गई। 'जैनित ’ का पुरना स्टील कैमरा मेरे पास था, जो मेरा खुद का नहीं था। कुंभ के विकास कार्यों को देखने निकला मेलाधिकारी का काफिला आधे दिन तक भ्रमण पर रहा। इसके बाद डाम कोठी में मीटिंग थी, (तब मेला नियंत्रण भवन नहीं बना था।) जो देर शाम तक चली।
सुबह से लेकर शाम तक मैंने पूरे दिन में रिकार्ड 450 फोटो खींचे थे। इसकी एवज में प्रति प्रिंट हमें 3 रुपए मिलते थे। यानी कुंभ में मैंने पहले ही दिन 1350 रुपए की कमाई की थी। इसके बाद तो जैसे मेरी निकल पड़ी। तय कार्यक्रम के मुताबित हमें एक दिन पहले बता दिया जाता कि फलां व्यक्ति की ड्ïयूटी कहां और किस अधिकारी के साथ रहेगी।
कब कितनी फोटो खींची जाएं, इसकी कोई बाध्यता नहीं थी। विकास कार्यों के भ्रमण के दौरान किसी निर्माण कार्य की तरफ अधिकारी का हाथ उठा और नीचे आते-आते मैंने पांच क्लिक कर दिए। कुल जमा 15 दिन के भीतर मैंने इतने पैसे जमा कर लिए कि अब मैं अपनी कामचलाऊ किट (कैमरा, फ्लैश, लांग जूम, वाइड लैंस, कुछ विल्टर, बैटरी, चार्जर और एक बैग) खरीदने के बारे में सोच सकता था।
तब शायद पूरे भारत में ही व्यवसायिक डिजिटल कैमरों का चलन नहीं था। फोटाग्राफी मैनवल कैमरों और विडियोग्राफी साधारण या बीटाकैन से होती थी। इसके बाद मैंने अपनी मां से कुछ पैसे उधार लिए और दिल्ली के चांदनी चौक स्थित फोटो मार्केट से एक खुद कीकिट खरीद लाया। जो उस वक्त मुझे कुल 25 हजार रुपए में पड़ी थी।
दिन भर फोटो खिंचना और शाम को धर्मशाला में निढाल होकर सो जाना। यह क्रम करीब दो महीने चला। इस बीच मुझे अपनी पढ़ाई के मद्ïदेनजर वापस लौटना पड़ा। जो मेरा पहला उद्ïदेश्य था। प्रोफेशनल फोटाग्राफरों के साथ रहते हुए इस बीच में फोटाग्राफी की कई बारीकियां सीख चुका था।
इस पूरे दौरान न तो मुझे कुंभ की महत्ता की जानकारी थी न ही में कभी इतनी धार्मिक प्रवृत्ति का रहा हूं। एक मात्र उद्ïदेश्य था फोटाग्राफी सीखना और कुछ पैसे कमाना। जो मैंने पूरा किया।
दुनिया के कोने-कोने से आकार लोग मोक्ष प्राप्ति को गंगा स्नान कर गए। लेकिन मैं पूरे दो माह हरिद्वार में रहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाया। न ही हमारे फोटोग्राफर साथियों के बीच कभी इस बात को लेकर चर्चा हुई। गंगा के प्रति हमेशा से मेरी अपार आस्था रही है, लेकिन यह प्रश्न आज भी जब मैं अपने-आप से पूछता हूं कि क्यों मैं ऐसा नहींं कर पाया तो उसका जवाब नहीं मिलता।
रात को जब तमाम घाट सुनसान हो जाते। दूसरे साथी इन घाटों पर बैठकर ही गंगाजी में आधे पांव डुबोकर मदिरापान करते और अपनी थकान उतारते। कई बार बियर का दौर चलता तो फ्रिज का काम भी गंगा के निर्मल जल से ही लिया जाता। इस पूरे आयोजन में मैं भी मदिरा पीने के अलावा बराबर का भागीदार बनता और माहौल का लुत्फ उठाता।
आज भी सोचता हूं तो बस सोचता ही रह जाता हूं-क्यों नहीं मैं भी उस भवसागर का तिल बन पाया, जिसमें सब तरने आए थे।

दूसरा साक्षात्कार
12 जनवरी 2010, दिन मंगलवार। मैं सीट पर बैठा खबरों का संपादन (अमर उजाला, देहरादून) कर रहा था। उसी वक्त संपादक आदरणीय निशीथ जोशी जी ने मुझे अगले दिन कवरेज के लिए हरिद्वार जाने का आदेश दिया। हालांकि अगले दिन मेरी छुट्ïटी थी और पहले से कुछ कार्यक्रम तय थे, लेकिन यह मेरे लिए शुअवसर था।
चूंकि अगले दिन 14 फरवरी यानी मकर संक्रांति को सदी के पहले कुंभ का पहला स्नान होने जा रहा था। मैं फोटोग्राफर नवीन कुमार सहित भारी बारिश के बीच 13 फरवरी की सुबह नौ बजे हरकी पैडी पर था। बारिश के बावजूद लोगों की भीड़ भोर से स्नान के लिए ब्रह्मïकुंड की ओर टूट रही थी। मैंने नवीन ने कहा काम शुरू करने से पहले गंगा जी को प्रणाम कर लिया जाए। इसके बाद हमने श्रद्धा केसाथ आचमन किया और दो मिनट गंगा के शीतल जल में खड़े होकर उसके स्पर्श का आनंद लिया।
पूरा दिन काम करने के बाद हमने हरिद्वार कार्यालय से स्टोरी फाइल की और फिर हम वापस आ गए। इस आपाधापी के बीच उस दिन हमें खाने का भी समय नहीं मिला। गंगा में स्नान करने की बात उस दिन भी दिमाग में नहीं आई। सुखद था तो इतना दिन भर की मेहनत अगले दिन पहले पन्ने पर बॉटम के रूप में नजर आई।

Saturday 3 April, 2010

एक आंदोलन जो विश्वव्यापी मुहिम बन गया



'चिपको आंदोलन ’ के 36 साल पूरे होने पर विशेष
विनोद के मुसान
एक आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचाई। पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना। विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चरचा, गोष्ठिïयां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। हम बात कर रहे हैं विश्वविख्यात 'चिपको आंदोलन ’ की। 'पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। लेकिन आज सवाल यह खड़ा होता है, क्या अब सब कुछ सुधर गया है? क्या हमें अब पेड़ों की जरूरत नहीं? या एक बार आंदोलित होने के बाद हम चैन की बंशी बजा रहे हैं।
यह आंदोलन उस वक्त इसी पर्वतीय क्षेत्र में शुरू हुआ था, लेकिन आज जब विकास के नाम पर पर्वतीय राज्य की रूपरेखा को एक आयाम देकर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया गया, तब यहीं के लोग इसे भूल गए। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो न ही आम आदमी को इसकी जानकारी थी और न ही सरकार के नुमाइंदों को। राज्य के राजनेताओं का तो कहना ही क्या। 26 मार्च को सत्तारूढ़ दल के नेता सत्र के दौरान विधायकों की संख्या गिनने में जुटे थे तो विपक्षी दल के नेता सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पटल पर रखने की तैयारी। ऐसे में भला उन्हें कहां याद रहता की आज चिपको आंदोलन की सालगिरह है।
आइए आपको इसकी पृष्ठïभूमि में ले चलते है, जहां से शुरू हुई थी एक मुहिम, जिसने देखते ही देखते न सिर्फ विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया बल्कि राष्टï्रीय राजनीति में एक तूफान खड़ा कर दिया। हमेशा नमन की हकदार रहेगी वह महिला गौरा देवी जिसने इस मुहिम को न सिर्फ शुरू किया, बल्कि इसे इसके मुकाम तक पहुंचाया। 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है। 12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है। गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा।
70 के दशक में जब सरकार पर्वतीय वनों को काटकर मोटा मुनाफा कमाना चाहती थी, उस वक्त मंडल-फाटा के जंगलों को बचाने से शुरू हुई मुहिम पैनखंडा ब्लाक के नीती घाटी के रैंणी के जंगलों तक फैल गई। गौरा देवी के साथ ऊमा देवी, अखा देवी, बारी देवी, मूसी देवी, रूपसा देवी पुसुली देवी, नोरती देवी नागी देवी जैसी सैकड़ों औरतों ने जैसे चंडी का रूप धारण कर लिया। उन्होंने समेट लिया उन पेड़ों का अपने आंचल में, जिन्हें वह अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं।
धीरे-धीरे यह मुहिम पूरे गढ़वाल से लेकर कुमाऊं मंडल तक फैलने लगी। लोग जुड़ते गए और कारवां बनता चला गया। 'पेड़ों पर हथियार उठेंगे, हम भी उनके साथ मरेंगे ’, 'लाठी-गोली खाएंगे, अपने पेड़ बचाएंगे ’ जैसे नारे पूरे पहाड़ की फिजा में गूंजने लगे। 1977 में जंगलों के कटान से उपजे जनाक्रोश का ही परिणाम नैनीताल क्लब को झेलना पड़ा। जनता ने उसे आग के हवाले कर प्रतिकार किया। इसके बाद सैकड़ों गिरफ्तारियां हुई, कई लोग जेल गए, लेकिन आंदोलन थमा नहीं। यह लोगों के हक-हकूक की ही लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ऐसी मुहिम थी, जिसमें विश्व कल्याण की भावना निहित थी।
चिपको की मुहिम के साथ और भी कई ऐसे नाम जुड़े हैं, जो विश्व पटल में इस आंदोलन से विख्यात हुए। पर्यावरणविद्ï सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ïट, धूम सिंह नेगी, विजय जड़धारी, कुंवर प्रसून, बचना देवी और कई लोग जो आज भी चाहते हैं कि फिर से एक चिपको आंदोलन शुरू किए जाने की जरूरत है। इन्हीं लोगों ने पेड़ों पर 'रक्षा सूत्र ’ बांधकर एक नए आंदोलन को जन्म दिया था। जिसमें टिहरी जिले की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
उस वक्त अगर सरकार अपनी मंशा में कामयाब हो जाती तो पर्वतीय क्षेत्रों में देवदार, कैल, बांज, रुई, मुटिंडा, अखरोट, पांगर, मशरूम, चंद्रा मोतिया और न जाने कितने औषधीय महत्व के पेड़ नष्टï हो चुके होते। हरियाली से लबालब आज के कई पहाड़ हमें किसी विधवा की सूनी मांग से प्रतीत होते।
आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहा है। भविष्य में इसके खतरे पूरी पृथ्वी को लील लेना चाहते हैंं, ऐसे में हमें जरूरत है फिर से एक चिपको आंदोलन की। सामाजिक आंदोलनकारी चंडी प्रसाद भट्ïट, माटू जनकल्याण संगठन के संयोजक विमल भाई, गौरा देवी की प्रमुख साथी रही बाली देवी कहती हैं-आज के समय में जब विभिन्न परियोजनाओं खासकर बड़ी विद्युत परियोजनाओं से जल, जंगल और जमीन को हो रही क्षति के दुष्परिणाम बहुत ही घातक होंगे। हम अल्प समय के लिए मिलने वाली सुविधाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल हमें इसके भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अगर हम आज नहीं चेते तो कल इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।