Tuesday 11 March, 2008

असगऱ वजाहत ने सम्मान अस्वीकार किया

प्रति,

उपाध्यक्ष

हिन्दी अकादमी दिल्ली


प्रिय महोदय

समाचार पत्रों तथा अन्य सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि हिन्दी अकादमी दिल्ली ने मेरे कहानी संग्रह ''मैं हिन्दू हूँ`` को साहित्यिक कृति सम्मान देने की घोषणा की है। इस संदर्भ में मैं निवेदन करना चाहता हूंं कि अकादमी के इस निर्णय ने मुझे और साहित्यिक कृति सम्मान दोनों को संकट में डाल दिया है।

साहित्यिक कृति सम्मान के बारे में अपनी जानकारियो, परम्परा और साक्ष्यों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि यह प्राय: प्रतिभाशाली, युवा रचनाकारों की कृतियों को दिया जाता है। यह सम्मान एक तरह से नयी और ऊर्जावान प्रतिभा का सम्मान है।

मैं पुरस्कार समिति का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे 'युवा` स्वीकार किया। पर शायद उन्हें यह पता नहीं है कि मैं १५-२० साल पहले युवा था और तब यह पुरस्कार मुझे मिला था। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि यह सम्मान मुझ जैसे 'साठे` को न मिल कर यदि वास्तव में किसी युवा रचनाकार को मिला होता तो उसे तरंगित करता और मुझे यह न लगता कि जाने अनजाने यह सम्मान/पुरस्कार देकर हिन्दी अकादमी दिल्ली ने मेरी अवमानना का प्रयास किया है।

इस प्रसंग के अधिक तूल न देते हुए आपसे निवेदन है कि मैं साहित्यिक कृति सम्मान स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं यह सम्मान/पुरस्कार इस कारण भी अस्वीकार कर रहा हँू ताकि हिन्दी अकादमी दिल्ली की पुरस्कार समिति भविष्य में पुरस्कार देते समय अधिक सचेत रहे।

सादर।


असगऱ वजाहत
दिनंाक - ११ मार्च २००८


संपर्क : ७९, कला विहार, मयूर विहार-प्ए

दिल्ली - ११००९१

मो. ९८१८१४९०१५

Sunday 9 March, 2008

अजित पुष्कल और सत्यकेतु सम्मानित

सांस्कृतिक एवं नाट्य संस्था 'समयांतर` की ओर से वरिष्ठ नाटककार और साहित्यकार अजित पुष्कल को उनके उत्कृष्ट और सतत नाटक लेखन के लिए 'लक्ष्मीकांत वर्मा नाट्य लेखन सम्मान` और युवा कथाकार और पत्रकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को पत्रकारिता में भाषा और कथ्य के स्तर पर अलग स्वाद और दृष्टिसंपन्न नाट्य समालोचना के लिए 'लक्ष्मीकांत वर्मा सांस्कृतिक पत्रकारिता सम्मान` प्रदान किया गया। साथ ही इस वर्ष के पुरुष रंगकर्मी के रूप में सुधीर सिन्हा को पुरस्कृत किया गया। यह पुरस्कार १५ से १८ फरवरी तक इलाहाबाद में आयोजित स्व. लक्ष्मीकांत वर्मा स्मृति नाट्य समारोह-२००८ केसमापन पर दिया गया। चार दिवसीय समारोह का उद्घाटन पलोक बसु और समापन उ?ार प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के उपसभापति बाबूलाल भंवरा ने किया। पहले दिन 'समानांतर` की ओर से अनिल रंजन भौमिक के निर्देशन में सत्यजीत रे लिखित और अख्तर अली द्वारा रूपांतरित नाटक 'असमंजस बाबू` और ममता कालिया लिखित 'उनका जाना` का मंचन किया गया। दूसरे दिन 'थर्ड बेल` भोपाल की ओर से अनूप जोशी के निर्देशन में महेश एल कुंचवार लिखित 'आर त क्षण` की प्रस्तुति हुई। तीसरे दिन 'आधारशिला` इलाहाबाद की ओर से अजय केशरी के निर्देशन में डॉ. चंद्र लिखित 'लड़ाई जारी है` का मंचन किया गया। चौथे और आखिरी दिन 'समन्वय` इलाहाबाद ने सुषमा शर्मा के निर्देशन में कमलेश्वर लिखित 'राजा निरबंसिया` की प्रस्तुति की। इस दौरान 'नाट्य प्रस्तुतियों में दर्शकों की उदासीनता` विषय पर विचार गोष्ठी भी आयोजित की गई।

Sunday 2 March, 2008

किसान हंसे, सोनिया मुसकराइंर् लेकिन .....

केंद्र सरकार ने अपने पांचवें बजट में किसानों की सुध ली है। उसके वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पांच एकड़ वाले किसानों के मार्च २००७ तक सरकारी बैंकों, ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों से लिए कृषि ऋण को माफ कर दिया है। कहा जा रहा है कि सरकार ने ऐसा चुनाव की वजह से किया है। उसके इस कदम से आने वाले लोकसभा के चुनाव में उसे फायदा होगा। कदाचित यह सही हो लेकिन इससे खास फायदा होने वाला नहीं है। बेशक इस ऋण माफी से देश के चार कराे़ड किसानों को लाभ होने का दावा किया जा रहा है लेकिन एक हकीकत यह भी है कि अधिकत किसानों को तो बैंक कर्ज देते ही नहीं। बैंकों से कर्ज लेने में भी काफी भ्रष्ट ाचार है। निचले स्तर से लेकर बैंक प्रबंधक कर्ज देने में रिश्वत लेते हैं। इस कारण किसान बैंकों के पास कम ही फटकते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि किसान अधिकतर कर्ज साहूकारों-आढ़तियों से लेते हैं। यह लोग फसल पकते ही किसान से अपना कर्ज वसूल लेते हैं। यदि अध्ययन किया जाए तो यह बात जरूर सामने आएगी कि कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से पीड़ित रहे हैं। अब लाख टके का सवाल यह है कि साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से किसानों को कौन मुि त दिलाए। यदि इस कर्ज से किसानों को राहत नहीं मिलती है तो कांग्रेस को कर्ज माफी से अधिक लाभ नहीं मिलने वाला है।
यही हाल अन्य दलों का भी होने वाला है। कारण यह लोग भी किसानों की कर्ज माफी का श्रेय लेने की हाे़ड में लगे हैं। इनकी भी समझ में नहीं आ रहा है कि कर्ज माफी का फैसला बीमार किसानी का उचित समाधान नहींं है। इससे फौरी तौर पर कुछ किसानों को राहत मिल गई है। लेकिन मार्च २००७ के बाद के कर्ज का या होगा? सरकार को यह सीमा दिसंबर २००७ तक करनी चाहिए थी। इसके अलावा यह बात भी गौर करने वाली है कि छोटे और सीमांत किसानों के दम पर ही तो चुनाव नहीं जीता जा सकता। सरकार ने भूमिहीनों और श्रमिकों के लिए ऐसा कोई उपाय नहीं किया है।
शहरों और गांवों में कराे़डों लोग हाड़ताे़ड मेहनत करते हैं फिर भी उनका जीना मुश्किल हुआ पड़ा है। वह आत्महत्या नहींं करते योंकि वह मेहनतकश है। वह जिंदगी से लड़ते हैं भागते नहीं इसलिए उनकी नहीं सुनी जाती लेकिन वोट तो वह भी देते हैं। किसानों का कर्ज माफ कर वाहवाही लेने वाली सरकार को इस वर्ग की बिल्कुल भी याद नहीं आई। सच तो यह है कि उदारीकरण की च की में सबसे अधिक यही वर्ग पिस रहा है। बारह-बाहर घंटे श्रम और मजदूरी के नाम पर दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह। या इतने में गुजारा हो सकता है? सरकार ने शायद यह मान लिया है कि यह लोग तो वोट देते ही नहीं इस लिए चुनावी बजट में भी इनके हितों की अनदेखी की गई है। लेकिन वह यह भूल गई कि यदि यह लोग पोलिंग बूथ तक पहंुच गए तो उसकी खुशी का गुब्बारा फूट जाएगा।
सरकार ने किसानों का कर्ज माफ करके कोई तीर नहीं मारा है। विसंगतियों में घिरी किसानी का यह सही हल नहीं है। सरकार को चाहिए था कि वह कृषि में निवेश को बढ़ाने के लिए सस्ते ऋण की व्यवस्था करती। बैंकों से भ्रष्ट ाचार दूर करती। बैंकों से कर्ज लेने में नियम-कायदों को सरल बनाती। ताकि किसान साहूकारों और आढ़तियों के चंगुल में न फंसते। बेशक अभी किसान हंस रहे हैं और सोनिया गांधी मुसकरा रही हैं लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाला नहीं है।

Saturday 1 March, 2008

स्त्री विमर्श और शब्दों की संगीत लहरी

वरिष्ठ कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के उपन्यास देश निकाला की समालोचना की दूसरी और अंतिम किस्त।



चीनू ने एकाएक सवाल किया- मम्मा, पापा हमारे साथ यों नहीं रहते? स्तब्ध मल्लिका या जवाब दे? कैसे बताये कि गौतम की दुनिया से उन दोनों को देश निकाला मिला है। कैसे समझाये इतनी सी चीनू को कि औरत अगर अपने मन मुताबिक जीना चाहे तो उसे देश निकाला ही मिलता है। मिलता रहा है।

उ त पंि तयां हैं वरिष्ठ कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के उपान्यास देश निकाला की। यह उपन्यास रवींद्र कालिया के संपादकत्व में निकलने वाली नया ज्ञानादेय पत्रिका के फरवरी २००८ अंक में प्रकाशित है। उ त लाइनों को पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्त्री विमर्श पर आधारित है। हालांकि इसकी पृष्ठ भूमि थियेटर, मुंबई और फिल्मी दुनिया है।

कहानी आरंभ होती है लिव इन रिलेशनसिप से। मल्लिका और गौतम सिन्हा थियेटर करते हैं। और एक साथ यानी रहते हैं। लेकिन शादी नहीं की। मल्लिका का मोह धीरे-धीरे थियेटर से भंग होता है और वह अभिनय छाे़डकर किसी कालेज में पढ़ाने लगती है। अपना फ्लैट खरीद लेती है और ट्यूशन भी पढ़ाने लगती हैं। उधर, गौतम थियेटर की दुनिया में रमा है, लेकिन प्रतिबद्ध लोगों को थियेटर कुछ नहीं देता। यहां सिर्फ बौद्धिक जुगाली ही की जा सकती है। (या फिर थिएटर का इस्तेमाल करके कलाकार फिल्मी दुनिया या टीवी सीरियल की दुनिया में निकल जाए। )

गौतम की निठल्लागीरी का असर मल्लिका और गौतम के रिश्ते पर पड़ता है। एक दिन मल्लिका का घर छाे़डकर गौतम अपने फ्लैट में रहने चला जाता है। (हालांकि हिंदी फिल्मों की तरह यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आती कि जब थियेटर में पैसा नहीं है और कालेज की नौकरी में इतना पैसा नहीं मिलता कि ट्यूशन पढ़ाना पड़े तो, पहले मल्लिका और बाद में गौतम फ्लैट कैसे खरीद लेते हैं???? बैंक लोन का संकेत है, लेकिन यह एक कड़वी हकीकत है कि बैंक लोन मिलना इतना आसान नहीं होता। खासकर मल्लिका और गौतम जैसे लोगों के लिए।)
अपने फ्लैट में गौतम याद करता है कि केवल चार वर्ष में या- या बदल गया। मल्लिका चारघोप में छूट गयी। गौतम मीरा रोड के फ्लैट में आ गिरे। मल्लिका एि टंग छाे़डकर कालेज ले चरर में बदल गयी। गौतम निर्देशन और अभिनय छाे़डकर स्क्रीन रायटर बन गए।

मंच पर मिले थे। मंच पर जिये थे। नेपथ्य में फिसल गये। इन शब्दों से कहानी खुलती है। कुछ भूत ज्ञात होता है तो कुछ भविष्य का अंदाजा होता है। और शुरू होती है संगीतमय भाषा की मधुर धुन।

उपन्यास की पहली पंि त ही है। सीढ़ियों पर सन्नाटा बैठा हुआ था। (आमतौर पर सन्नाटा पसरा हुआ का उल्लेख मिलता है, लेकिन यहां सन्नाटा बैठा हुआ है!!!!) यह वा य पाठक के दिमाग पर एक झन्नाटेदार चांटे की तरह पड़ता है, जो उसके चक्षुआें को खोल देता है। पाठक सजग हो जाता है। उसकी जिज्ञासा कर पट खुल जाता है और वह कहानी रूपी सरिता में छलांग लगा देता है।

'मैं जानती हूं कि तुम्हें खुद को शहीद कहलाना अच्छा लगता है। यह भी जानती हूं कि मेरे साथ रहकर तुम अपनी शर्तों पर नहीं जी पा रहे हो। मंच पर नये लोग आ गये हैं। यह कसक भी तुम्हारे दिल में है, लेकिन इसमें परेशान होने की या बात है? मैं पूरी तरह से मंच को छाे़ड चुकी हूं। तुम चाहो तो इसी माध्यम में बने रहकर अपना रास्ता बदल सकते हो। जिंदगी का डॉयलाग बोलते रहे हो। पटकथाएं जीते रहे हो। अब पटकथाएं और डॉयलॉग लिखना शुरू कर दो। लेकिन इस घर में अब रिहर्सलें नहीं होंगी। पार्टियां नहीं चलेंगी। मुझे ट्यूशन पढ़ाने के लिए सुबह छह बजे उठना पड़ता है, रात आठ बजे तक तीन शिफ्टों में चौबीस घंटे पढ़ाती हूं। उसी से यह घर चलता है।` उ त बातें मल्लिका गौतम से कहती है। इन शब्दों में मल्लिका एक मजबूत, दृढ निश्चयी, और आत्मनिर्भर चरित्र वाली महिला के रूप में सामने आती है। यह ऐसी औरत का चरित्र है जो हमारे समाज मंे बहुत कम मिलता है, लेकिन जिसकी संख्या बढ़ रही है। हालांकि आश्चर्य होता है कि जो मल्लिका गौतम को थियेटर के बाद फिल्मी दुनिया से जु़डने की बात कहती है। वही मल्लिका बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने में अपनी जिंदगी खपा रही होती है। वह फिल्मी दुनिया की तरफ यों नहीं जाती? अधिकतर थियेटर को लोग फिल्म और टीवी सीरियल में जाने का साधन मानते हैं। इसी ध्येय से वह थियेटर की दुनिया में आते हैं और मौका मिलते ही थियेटर को नमस्कार कर देते हैं।

रंगकर्म से जुडे बड़े-बड़े प्रतिबद्ध लोग ऐसा करते रहे हैं और कर रहे हैं। बहुत कम लोगों के लिए थिएटर साधन नहीं साध्य है। मल्लिका जो सलाह गौतम को देती है वही वह यों नहीं करती? यह बात साफ नहीं हो पाती, जो खटकती है। यही नहीं मल्लिका जब गौतम से शादी कर लेती है तो उसे अचानक एक बड़े रोल के लिए एक बड़े फिल्मी बैनर से आफर आता है। इस आफर को स्वीकर करने से पहले वह गौतम से बात करती है। उसके हां कहने के बाद ही आगे हां कहती है। पत्नी बनने के बाद मल्लिका का यह कमजोर चरित्र खटकता है। यहां आकर वह एक हिंदुस्तानी पत्नी बन जाती है, जो पति के ही निर्णय को सर्वोपरि मानते हुए ही जिंदगी गुजार देती है। यहां यह सवाल उठता है कि आत्मनिर्भर औरतें भी पति से बिना पूछे कोई निर्णय नहीं ले पातीं? जबकि यह सही नहीं है। अपने विवेक से निर्णय लेने वाली औरतें अधिक सफल होती हैं।

उपन्यास में मल्लिका का चरित्र बार-बार चौंकाता है। वह लिव इन रिलेशनसिप को स्वीकार करती है। वह गौतम को छाे़ड सकती है। वह थियेटर करती है, लेकिन पढ़ाने लग जाती है। अचानक उसे फिल्म का रोल मिलता है और वह सुपर स्टार अभिनेत्री बन जाती है। वह गर्भवती होती है, तो कैरियर के लिए गर्भपात नहीं कराती। वह बच्चा पैदा करती है और फिर जब उसका कैरियर शुरू होते ही पीक पर होता है तो वह फिल्मों में काम करने से मना कर देती है। मल्लिका कब या करेगी, पाठक समझ नहीं पाता। मानोवैज्ञानिक रूप से यह एक स्वाभाविक चरित्र लगता है। कहा जा सकता है कि हर चरित्र की कुछ खासियत होती है, लेकिन मल्लिका जैसे चरित्र जल्दी नहीं मिलते। इस कारण यह चरित्र स्वाभाविक भी नहीं लगता। कई बार लगता है कि लेखक ने इस चरित्र को मनचाहा गढ़ा है। गौतम का चरित्र बड़ा स्वाभाविक लगता है। वह पूरी तरह पुरुषवादी है। उसके जैसा चरित्र अपनी पत्नी से कैरियर के लिए मां बनने से वंचित रहने की सलाह दे सकता है। यह और बात है कि जब उसकी सलाह नहीं मानी जाती तो वह उसे स्वीकार भी कर लेता है। लेकिन जब मल्लिका बच्ची को पालने के लिए फिल्मों में काम करना बंद कर देती है तो वह झल्ला जाता है। वह मल्लिका को बहुत समझाता है। नाराज होता है। यह नाराजगी इतनी बढ़ जाती है कि वह मल्लिका को अपनी दुनिया से ही निकाल देता है।

हालांकि उपन्यास के बारे में पत्रिका के संपादक का दावा था कि यह फिल्मी दुनिया के अंधेरे को सामने लाएगा। लेकिन उपन्यास ऐसा करने में पूरी तरह से विफल रहा है। इसकी कहानी फिल्मी पृष्ठ भूमि पर है, लेकिन उस दुनिया के बारे में यह एक सतही जानकारी ही दे पाता हैं, जबकि वहां बहुत कुछ हो रहा है और होता रहता है। फिल्मी दुनिया में एक स्ट्रगलर की या हालत होती है राहुल के बहाने इसका थाे़डा जिक्र हो जाता है, लेकिन फिल्मी दुनिया के जादू को यह तार-तार नहीं कर पाता।

यह थियेटर से जु़डे एक कुंठित व्यि त की कहानी है, जो अधे़ड उम्र तक थियेटर करता है और बाद में स्क्रीन प्ले राइटर बन जाता है। वह थियेटर का अभिनेता होता है लेकिन कैरियर राइटर का बन जाता है। फिल्मी लेखक बनकर वह पैसे कमाता है, लेकिन चूंकि उसके लिखे संवाद बोलने वालों को कराे़डों मिलते हैं और उसे लाखों मिलता है तो उसकी कुंठा बढ़ती जाती है। इस कुंठा में वह अपने भविष्य को असुरक्षित सा महसूस करने लगता है। हां, गौतम के चरित्र से यह सच सामने आता है कि फिल्मी लेखक एक बेचारा व्यि त होता है। उसकी कोई औकात नहीं होती है। वहां अभिनेताआें और अभिनेत्रियों की ही चलती है। वही स्टार हैं। यही कहानी बदलवा सकते हैं। संवाद बदलवा देते हैं। उनके सुझाव पर लेखक वैसा करने को मजबूर होता है। हालांकि यह भी जगजाहिर बात हो चुकी है। यही कारण है कि गंभीर लेखन करने वाला लेखक फिल्मी दुनिया से नहीं जु़ड पाता। मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर जैसे कितने लोग हैं जो फिल्मी दुनिया और साहित्य में बराबर की पकड़ रखते हों?

यह भी उतना ही सच है कि कितने लोग स्टार बनने का सपना लेकर मुंबई जाते हैं और या बन जाते हैं। फिल्मी दुनिया में ऐसे लोगों की भरमार है जो स्टार बनने गए और स्पाट ब्वाय बनकर रह गये। यह सब ऐसी बातें हैं जो उपन्यास में नहीं आती हैं। यदि उपन्यास को स्त्री विमर्श पर आधरित मान लिया जाए तो इस मु े पर भी पर्याप्प्त फोकस नहीं हो पाया है।

लेखक ने जुलाई २००६ में हुई मुंबई की बारिश की तबाही पर बड़े ही मनोयाग से लिखा है। जो किसी रिपोरर्ताज जैसा लगता है। जहां-जहां बारिश का जिक्र है वहां-वहां भाषा की रवानगी काबिले तारीफ हो जाती है। आंखों के सामने एक चित्र सा चलने लगता है। हालांकि उस समय टीवी चैनलों ने बारिश को लाइव दिखाया था, लेकिन अपनी भाषा से जो दृश्य अस्थाना जी दिखाते हैं वह कैमरे से अधिक जीवंत और लाइव हो जाता है।
- ओमप्रकाश तिवारी