Sunday 2 March, 2008

किसान हंसे, सोनिया मुसकराइंर् लेकिन .....

केंद्र सरकार ने अपने पांचवें बजट में किसानों की सुध ली है। उसके वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पांच एकड़ वाले किसानों के मार्च २००७ तक सरकारी बैंकों, ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों से लिए कृषि ऋण को माफ कर दिया है। कहा जा रहा है कि सरकार ने ऐसा चुनाव की वजह से किया है। उसके इस कदम से आने वाले लोकसभा के चुनाव में उसे फायदा होगा। कदाचित यह सही हो लेकिन इससे खास फायदा होने वाला नहीं है। बेशक इस ऋण माफी से देश के चार कराे़ड किसानों को लाभ होने का दावा किया जा रहा है लेकिन एक हकीकत यह भी है कि अधिकत किसानों को तो बैंक कर्ज देते ही नहीं। बैंकों से कर्ज लेने में भी काफी भ्रष्ट ाचार है। निचले स्तर से लेकर बैंक प्रबंधक कर्ज देने में रिश्वत लेते हैं। इस कारण किसान बैंकों के पास कम ही फटकते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि किसान अधिकतर कर्ज साहूकारों-आढ़तियों से लेते हैं। यह लोग फसल पकते ही किसान से अपना कर्ज वसूल लेते हैं। यदि अध्ययन किया जाए तो यह बात जरूर सामने आएगी कि कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से पीड़ित रहे हैं। अब लाख टके का सवाल यह है कि साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से किसानों को कौन मुि त दिलाए। यदि इस कर्ज से किसानों को राहत नहीं मिलती है तो कांग्रेस को कर्ज माफी से अधिक लाभ नहीं मिलने वाला है।
यही हाल अन्य दलों का भी होने वाला है। कारण यह लोग भी किसानों की कर्ज माफी का श्रेय लेने की हाे़ड में लगे हैं। इनकी भी समझ में नहीं आ रहा है कि कर्ज माफी का फैसला बीमार किसानी का उचित समाधान नहींं है। इससे फौरी तौर पर कुछ किसानों को राहत मिल गई है। लेकिन मार्च २००७ के बाद के कर्ज का या होगा? सरकार को यह सीमा दिसंबर २००७ तक करनी चाहिए थी। इसके अलावा यह बात भी गौर करने वाली है कि छोटे और सीमांत किसानों के दम पर ही तो चुनाव नहीं जीता जा सकता। सरकार ने भूमिहीनों और श्रमिकों के लिए ऐसा कोई उपाय नहीं किया है।
शहरों और गांवों में कराे़डों लोग हाड़ताे़ड मेहनत करते हैं फिर भी उनका जीना मुश्किल हुआ पड़ा है। वह आत्महत्या नहींं करते योंकि वह मेहनतकश है। वह जिंदगी से लड़ते हैं भागते नहीं इसलिए उनकी नहीं सुनी जाती लेकिन वोट तो वह भी देते हैं। किसानों का कर्ज माफ कर वाहवाही लेने वाली सरकार को इस वर्ग की बिल्कुल भी याद नहीं आई। सच तो यह है कि उदारीकरण की च की में सबसे अधिक यही वर्ग पिस रहा है। बारह-बाहर घंटे श्रम और मजदूरी के नाम पर दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह। या इतने में गुजारा हो सकता है? सरकार ने शायद यह मान लिया है कि यह लोग तो वोट देते ही नहीं इस लिए चुनावी बजट में भी इनके हितों की अनदेखी की गई है। लेकिन वह यह भूल गई कि यदि यह लोग पोलिंग बूथ तक पहंुच गए तो उसकी खुशी का गुब्बारा फूट जाएगा।
सरकार ने किसानों का कर्ज माफ करके कोई तीर नहीं मारा है। विसंगतियों में घिरी किसानी का यह सही हल नहीं है। सरकार को चाहिए था कि वह कृषि में निवेश को बढ़ाने के लिए सस्ते ऋण की व्यवस्था करती। बैंकों से भ्रष्ट ाचार दूर करती। बैंकों से कर्ज लेने में नियम-कायदों को सरल बनाती। ताकि किसान साहूकारों और आढ़तियों के चंगुल में न फंसते। बेशक अभी किसान हंस रहे हैं और सोनिया गांधी मुसकरा रही हैं लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाला नहीं है।

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