Sunday 7 March, 2010

बाजार में बिकती 'भीड़ ’

विनोद के मुसान

भौतिकवाद और बाजारीकरण के इस युग में बाजार में बिकने लगी भीड़! क्या बात कर रहे हो भाई? आलू-प्याज समझा है क्या? माना कि बाजार में बहुतायत मिलती है यह भीड़, लेकिन बिकती भी है भीड़! कहां? क्या कहा! बाजार में! इनकी मंडी कहां लगती है? सरेआम, सरेराह, यहां-वहां, जहां-तहां, हर जगह, गली-मुहल्लों में, गांवों में, शहरों में जहां चाहोगे उपलब्ध हो जाएगी। लेकिन इसे इतनी भी 'आम ’ मत समझना। 'आम ’ को 'खास ’ बनाने वाली ये नाचीज सी 'चीज ’, है बहुत ही खास। जिस तरफ ढल जाए, उसका बेड़ापार कर देती है। बस दाम चुकाने के साथ मौका भुनाने वाला चाहिए। हर मौके पर उपलब्ध हो जाएगी यह भीड़।
कहते हैं, पहले ऐसी नहीं थी ये भीड़। जनम-मरण, खुशी-गम में यूं ही शामिल हो जाती थी ये भीड़। बड़े-बड़े किलों को फतह कर जाती थी यह भीड़। एकजुट होकर किसी को गद्ïदी पर बिठा और किसी को गद्ïदी से उतार देती थी ये भीड़। एकता की ऐसी मशाल जलाई की देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद करा गई ये भीड़।
वक्त बदला, जरूरतें बदली और बदल गई सोच। इसके बाद धीरे-धीरे बहुत नकचढ़ी सी हो गई ये भीड़। आलम यह है कि आज बिना दाम किसी को घास ही नहीं डालती यह भीड़।
अब तो कुछ लोगों ने इसके अच्छे-खासे दफ्तर भी खोल लिए हैं। इसके बिजनेस में सेल्समैन ही नहीं कांट्रेक्टर से लेकर सप्लायर तक की पोस्ट ईजाद हो गई हैं। आज किसी के परिणय सूत्र में बंधने से लेकर देश की संसद तक को प्रभावित करती है यह भीड़।
राज्य की राजधानी में बैठा 'मैं ’, उस दिन देखता ही रह गया भीड़। क्या नजारा था, रेलम-पैला था, एक के पीछे एक, दूर तलक बस दिखाई दे रही थी भीड़। पूछा, तो पता चला एक 'असामी ’ पार्टी ने जुटाई है आज यह भीड़। विस में सत्र शुरू हो चुका है। विपक्षी पार्टी ने परंपरा का निर्वाहन पूरा करने के लिए घिराव की तैयारी के लिए जुटाई है यह भीड़।
दूर से बहुत खुबसूरत सी नजर आ रही थी यह भीड़। मुखाने पर चमकते चेहरे थे, चटक सफेद कुर्ते-पजामे और सिर पर बेदाग सी दिखाई दे रही वही सफेद टोपी थी। गिले-शिकवे से भरे नारे भी थे। इसी भीड़ को पीछे छोड़ आगे जाने का जोश था। लेकिन पीछे और पीछे... दूर तलक मुरझाई हुई सी नजर आ रही थी यह भीड़। हाथों में झंडे-डंडे लिए सुस्ताई हुई सी थी यह भीड़। थोड़ा करीब जाकर देखा तो पता चला 'बिकी ’ हुई थी यह भीड़।
'पैसा फेंकों-तमाशा देखो ’ आज कुछ ऐसी हो गई है यह भीड़। 'वक्तिया प्रारूप ’ में ढलकर अपना 'स्व-स्वरूप ’ खो गई है यह भीड़। अपनी ताकत का एहसास होने के बाद भी असहाय सी हो गई है यह भीड़। नजरों का फेर नहीं हकीकत में कहीं अपने में ही खो गई यह भीड़।

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