Sunday 20 April, 2008

यह बमबम बिहारी की दूसरी पोस्ट

जब पत्रकार ने मालिक को पीटा

एक साथी का मेल मिला। पत्रकारों की हालत को लेकर उद्वेलित थे। उनको जो जवाब लिखा लगा, और साथियों से भी सांझा किया जा सकता है।
दूसरों की आवाज उठाने वाला पत्रकार ख़ुद क्यों शोषित होता है? क्यों खाता है नौकरी में गालियाँ ? दरअसल सबकी अपनी मजबूरी है। व्यि तगत और पेशागत भी। अगर आप और आपकी फैमिली एक निर्धारित जीवन स्तर या माहौल की आदी हो गई है तो उसे अचानक बदलना संभव नहीं है। कई तरह की दि कतें सामने आती हैं और यह न्यायोचित भी नहीं है कि आप अपने वैचारिक विरोधों की वजह से परिवार को कष्ट में डाल दें।
मैं अकेला था और शुरू से ही ऐसे लोगों की संगत में पड़ गया जो कथित तौर पर अराजक थे। करीब दस साल पहले मैं दिल्ली की एक अति चिरकुट टाईप मैगजीन में काम कर रहा था। वहां एक साथी थे मृत्युंजय कुमार। संभवत: आजकल जालंधर अमर उजाला में न्यूज एडीटर हैं। हम लोगों ने पूरी मेहनत से काम किया। पर जब वेतन का समय आया तो मालिक बहाने बनाने लगा। कहने लगा कि हमारी स्थिति ठीक नहीं है। वह तय वेतन से काफी कम देने की बात करने लगा। आफिस में छह सात लोग थे। पर विरोध करनेवालों में हम और मृत्युंजय ही थे। मालिक सोच रहा था कि इन बिहारियों को ऐसे ही हड़का के भगा दूंगा। वह बदतमीजी पर उतर आया। मैं मामले को निपटाने की सोच रहा था कि मृत्युंजय ने उसे तमाचा जड़ दिया। सब सन्न रह गए। बाद में खूब हंगामा हुआ। बाकी स्टाफ उसके साथ खड़ा होने लगा तो हमने भी गाली गलौज करते हुए पीसीआर बुला ली। फिर उस मैगजीन का दूसरा अंक कभी नहीं आया। इसका असर यह भी हुआ कि पास में एक और मैगजीन का आफिस था उसने भी हमसे कुछ काम कराया था वहां मारपीट की बात सुनकर पेमेंट तुरंत भिजवा दिया। इसी तरह से काम चल रहा था। लेकिन हर जगह थोड़ा कम अधिक यही स्थिति थी। या करता? नौकरी के ठिकाने ही कितने हैं? भास्कर, जागरण जैसे बड़े अखबारों में भी यही स्थिति है। चप्पू हर जगह चकाचक रहते हैं। चार साल पहले यूएनआई के एक पत्रकार ने बताया था कि उन्होंने ओम थानवी की भरे आफिस में इसलिए छीछालेदर की थी कि उन्होंने जनसत्ता में कई महीने काम करवाने के बाद भी एक पैसा नहीं दिया था। भास्कर पानीपत में जब जगदीश शर्मा जीएम थे तो संपादक मुकेश भूषण को लीड और खबरों का प्लेसमेंट समझाते थे और गीत चतुर्वेदी समेत अधिकतर पत्रकार उसकी हां में हां मिलाकर खुद को धन्य समझते थे। इसे क्या कहेंगे? शायद यह उनकी जरूरतें थी जिसके कारण वे ऐसा करने को मजबूर थे। जो मजबूर नहीं थे वे विरोध करते थे और फिर नौकरी छोड़कर चले जाते थे।
लेकिन सवाल फिर भी वही है कि आखिर कब तक?
मेरी तरह चाय की दुकान खोल लेना भी कोई सही स्थिति नहीं है। यह भी ऐसी व्यवस्था के प्रति भड़ास निकालने का सिर्फ माध्यम है।

2 comments:

seth said...

aapne kya khoob likhi
bambm bihari ji
mirtanjai ji amar ujala me mere boss rahe hain. mai unke tewar & nishpachchta se bahut jyada parbhabit hun. kisi karanwash maine amar ujala chodkar dainik bhaskar join kar liya hai. lekin mirtanjai ji jaise boss nahi mil sake.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

बिहारी भाईसाहब,क्या मान लिया जाए कि हर उस आदमी को जो इज्जत से जीना चाहता है कुछ निजी व्यवसाय चला लेना चाहिये साइड में ताकि आड़े वक्त में सम्मान से समझौता न करना पड़े।

2 comments:

अबरार अहमद said...

मैंने करीब ढाई साल मृत्युंजय सर के साथ काम किया। इस दौरान कभी भी उनको इतने गुस्से में नहीं देखा कि वह अपने आपे से बाहर हुए हों। काफी गंभीर और चीजों की समझने रखने वाला व्यक्तित्व है उनका। बमबम जी ने जो बात कही है वह निश्चय रूप से काफी पहले कि है। हो सकता है इतने सालों में उनके अंदर यह बदलाव आया हो। लेकिन यह बात तय है कि मृत्युंजय सर एक बडे आब्जर्वर है। सामने वाला क्या सोच रहा है यह वह बाखूबी जानते हैं। यह बात कई बार उनसे कहने की इच्छा हुई पर सम्मानवश कह नहीं पाया। क्योंकि हमारे और उनके बीच का गैप ज्यादा था हालांकि उन्होंने इस गैप को कभी सार्वजनिक नहीं किया।

मृत्युंजय कुमार said...

abu....
tum kahan lapata the. Bambam jo likh rahe hai wo 10 sal pahale ki bat hai. ab bahut kuchh badal gaya hai.