Sunday 27 July, 2008

झूलो को तरसता सावन


सावन के झूले पड़े तुम चले आयो...,। गीतों के जरिए जिंदा सावन की मस्ती का माहौल अब सिर्फ जहन का हिस्सा बन कर रह गया है। अब न तो मस्ती का वो माहौल नजर आता है और न ही अब वह युवाओं में उत्साह। तेज रफ्तार जीवन में लोग खुद में खोए हुए है? कब सावन आया,, कब चला गया। इसकी चिंता करने का समय ही किस के पास है। गांव के वह नजारे आज भी खुद को तरोताजा कर जाते है कि कम से कम किसी बहाने के सभी मिलकर आपस में कुछ समय साथ मिलकर वक्त बीताते थे। सावन के झूलों के नजारों को देखने और उनका आनंद उठाने से वंचित होते हम लोग खुद इसका सबसे बड़ा कारण बन चुके है। अब तो पेड़ नजर नहीं आते, झूलों डाले भी तो कहां। कल अचानक मेरी नजर उन बच्चों पर गई तो सड़क के किनारे लगे उस पेड़ पर टायर का झूला बना कर झूलने पर मस्त थे। उनकी मस्ती को देख कर सावन का ख्याल आ गया । अचानक मन वहीं तस्वीर उभरने लगी। जब हम छुट्टियां बीताने के लिए अपनी दादा-दादी के पास गांव मे जाते थे। पेड़ों पर मोटी रस्सी से झूला डाल कर दिन भर सब ने मिल कर मस्ती करनी। फिर दादी से बताना कि सावन में किस तरह सभी मिलकर पेड़ों के नीचे बैठ कर ञिंजन सजाते थे। कभी-कभी बारिश ही रिमझिम के बीच मिल कर गिद्दा डालती थी। आज लगता है कि दादा-दादी का दौर के साथ ही सावन भी खत्म हो रहा है। मन में एक सवाल बार-बार उभर रहा है कि क्या सावन में झूलों का मजा लेने के लिए हम इसी तरह तरसते रहेंगे। कभी-कभी लगता है कि दादा-दादी के जमाने से हग अब इतना तो जानते है कि सावन में झूला झूलने का क्या महत्व है, लेकिन अगर व्यस्त जीवन की रफ्तार में हम इसी तरह भागते रहे तो आने वाली पीढी़ शायद इससे भी वंचित हो जाएगी। खत्म होती हरियाली के चलते ही आज हम सावन की बारिश का मजा लेने के लिए भी खुद को लाचार मानते है। शहरो में तो पेड़ इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे है, पर अब गांव भी पेड़ों को तेजी से कटा जा रहा है। साइंसटिस्ट चाहे इसे ग्लोबल वार्मिंग कहते है, लेकिन हम सब भली भांति जानते है कि खत्म होते जंगल और हरे भरे पेड़ों की बलि देने का नतीजा क्या हो रहा है। भारतीय परंपरा का हिस्सा हमेशा से मौसम बना रहा है। चाहे फागुन का स्वागत हो या फिर सर्द ऋतु की विदाई। सावन का स्वागत तो हर राज्य में अपने तरीके से होता रहा है। पर अब मौसम का स्वागत करनेका समय तो नहीं उसका आनंद भी लेना नहीं चाहते लोग।

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