Sunday 17 August, 2008

बदला बदला है सब नजारा

हमारे नेता जो कल तक खादी में नजर आते थे, आज स्टाइलिस सूट उनकी शान बन चुकी है। लग्जरी गाड़ी में शान की सवारी का अंदाज ही कुछ अलग हो चला है। हमारे देश के ज्यादातर नेता राजनीति की जानकारी रखे न रखे बस बैकराउंड सोलड होनी चाहिए। बरसों तरफ जुर्म की दुनिया रहने के बाद नेता की कुर्सी बहुत जल्दी हासिल हो जाती है। चाहे जीवन में कुछ अच्छा न किया हो लेकिन वोट के लिए अच्छाई का चोला पहन कर खुद को अच्छा साबित करने में जरा भी गुरेज नहीं होता। इन की पब्लिसटी देख कर हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी कुर्सी का चस्का लगने लगा है। गोबिंदा, स्मिति इरानी, हेमा मालिनी, धर्मेद्र सहित कितने अभिनेता राजनीतिक में कदम रख चुके है। अगर खुद को टिकट नहीं मिलता को पार्टी की चुनावी रैलियों का हिस्सा बन कर जनता के बीच आना उनको भा रहा है। भोली-भाली जनता भी उनकी एक्टिंग पर इतनी फिदा होती है, कि वह अपना नेता चुन कर इन को सत्ता में ले आती है। अभिनेता तो आखिर अभिनेता है रहते है, चुनावी मौसम में मंच पर चंद भावुक डायलाग सुना कर जनता के वोट पर अपना नाम दर्ज करवा लेते है। जीतने के बाद वापिस कभी अपने क्षेत्र की सुध लेना उनको भूल जाता है। जनता पूरे पांच वर्ष तक अपने चहेते नेता का इंतजार करती है, लेकिन मानसून के मैढक की तरह वह बिना चुनावी बारिश के कभी दिखाई नहीं देते। दूसरी तरफ अच्छा खासा क्रीमिनल रिकार्ड लेकर जुर्म की दुनिया में नाम कमाने वाले लोगों को भी चुनाव के दौरान टिकट आसानी से मिल रहे है। हमारी बड़े-बड़े दावे करनी वाली पार्टियां भी उनको टिकट देकर अपना सीट को कायम करना चाहती है। सत्ता में आने के बाद फिर वहीं मार-दाड़ शुरू होती है। कभी बहुमत बचाने के लिए जोड़-तोड़ तो कभी सत्ता में बैठे अनबन होने पर बहुमत वापिसी का दावा। फिर शुरू होता है कुर्सी बचाए रखने के लिए नोटतंत्र का दौर शुरू। ऐसे में कैसे कह सकते है कि हम जिन को चुन कर सत्ता में भेजते है उनके हाथों में हमारा वह देश सुरक्षित है, जिनके लिए भगतसिंह जैसे भारत मां के सपुतों ने जानें कुर्बान कर दी। चंद नोटों के अपना ईमान तक गिरवी रखने वाले हमारे नेता क्या हमारे देश को बचा पा रहे है। कभी देश में जात-पात के नाम पर मार-काट तो कभी धर्म के नाम पर प्रदर्शन। हमारे देश में सबकुछ इतना बदल गया है कि नेताओं के स्वार्थ में आम आदमी खुद ही दुश्मन बन बैठा है। चुनावी मौसम में तो जनता नेताओं के लिए भगवान बन जाती है, जो उनकी डुबती नैया को पार लगाएगी। नेता भी उन लोगों के बीच जाकर खुद को कभी बेटा तो कभी भाई के रूप में साबित करने में लग जाते है, तांकि उनकी भावनाओं को जगा कर खुद के लिए वोट पक्की कर ली जाए। लेकिन उन नेताओं के जीत के बाद उन लोगो के बीच आने के लिए दस बार सोचना पड़ता है।

1 comment:

Nitish Raj said...

सही कहा है आपने। मैं अभी पिछले दिनों ही देख रहा था कि आंकड़े ये बताते हैं कि गोविंदा जी ने तो अपने चुनावक्षेत्र का रुख १-२ बार ही किया है और लोकसभा में हाजरी सबसे कम उनकी ही है। लेकिन सुनील दत्त साहब ऐसे नहीं थे। पर अफसोस हर अभिनेता एक सा नहीं होता।