Thursday 3 June, 2010

हिंदी में इतने कहानी लेखक और पाठक नहीं

कथा देश का मार्च अंक खास रहा। इसमें पत्रिका ने उन कहानियों को प्रकाशित किया है जिन्हें उसने एक अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता के माध्यम से पुरस्कार देने के लिए चुना है। संपादक का दावा है कि इस प्रतियोगिता के लिए उसे दो सौ से अधिक कहानियां मिली थीं। जिसे कई दिग्गजों के माध्यम से छांटा गया। छांटी गई कहानियों में फिर पत्रिका के निर्णय मंडल ने कहानियों को पुरस्कार के लिए चयनित किया गया। तीन कहानियों को पहला और दूसरा पुरस्कार दिया गया है। तीन को संत्वना पुरस्कार से नवाजा गया है। पहला स्थान प्राप्त करने वाले लेखक को दस हजार रुपये से सम्मानित किया है। दूसरे को सात और तीसरे को पांच हजार रुपये। सांत्वना पुरस्कार के तौर पर शायद दो-दो हजार रुपये दिए गए हैं। लेखकों को पुरस्कार की आधी राशि नकद और आधी की राशि के बराबर मूल्य की किताबें देने की घोषणा की गई है।

चौकाने वाली बात है कि पत्रिका को इस प्रतियोगिता के लिए दो सौ कहानियां मिल गईं। इसका तात्पर्य यह है कि हिंदी में दो सौ कहानी लेखक सक्रिय हैं। यह तो प्रतियोगिता में शामिल लेखकों की संख्या है, कितने तो शामिल ही नहीं हुए होंगे। मेरा अपना अनुमान है कि न शामिल होने वाले लेखकों की संख्या भी पचास से कम तो नहीं होगी। इस तरह एक जानकारी यह मिली कि हिंदी में ढाई सौ से अधिक लेखक कहानियां लिख रहे हैं।
इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हिंदी का कहानी लेखक ही एक दूसरे को न जानता हो। इसकी वजह यह है कि हिंदी का लेखक एक दूसरे को पढ़ता ही नहीं है। उसका पक्का मानना होता है कि उसके और उसकी जुंडली केअलावा कोई बढिय़ा नहींं लिखता। इसलिए हिंदी में अपनी और अपनी जुंडली की रचनाएं ही पढऩे की रवायत है। कुछ ही लेखक होंगे जो जुंडलीबाजी से परे होंगे और जिन्हें सभी पढ़ते होंगे।
यह भी आश्चर्य की बात है कि जिस हिंदी समाज में करीब तीन सौ कहानी लेखक हैं वहां किसी एक लेखक को सौ लोग भी नहीं पढ़ते। यानी हिंदी समाज एक ऐसा समाज है जहां रचा तो खूब जाता है लेकिन रचना को पढ़ा नहीं जाता। एक लेखक मित्र कहते हैं कि यहां लिखने वाले ही एक दूसरे को पढ़ लें तो बहुत है।
कहा भी जाता है कि हिंदी में लेखक ही पाठक होते हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है जब लेखकों की जुंडली है तो पाठकोंं की भी होगी ही। यानी पाठक भी अपनी जुंडली के रचनाकारों को ही पढऩा पसंद करते हैं। वैसे भी हिंदी केअधिकतर लेखक पढ़ते अंग्रेजी हैं और लिखते हिंदी हैं। वह इस भाव से लिखते हैं कि हिंदी के पाठक मूर्ख हैं। उनके लिए तो कुछ भी लिखा जा सकता है। यही कारण है कि कई लेखक तो हिंदी के फिल्मकारों की तरह अंग्रेजी रचनाओं को ही उड़ा देते हैं। कुछ इस मासूम भाव से कि हिंदी के पाठक को क्या पता। उड़ाने वाले मासूम लेखक को शायद यह भान नहीं होता कि हिंदी का लेखक यदि लिखने के लिए अंग्रेजी पढ़ता है तो हिंदी का पाठक भी पढऩे के लिए अंग्रेजी की रचनाएं पढ़ लेता है। अधिकतर हिंदी के लेखकों की भाषा-शैली और विषयवस्तु से ही समझा जा सकता हैकि उन्होंने कहां से टीपा है। पढ़ाई के दौरान से ही टीपने की आदत मरते दम तक बनी रहती है।
(नोट : इस संदर्भ में आज इतना ही अगली पोस्ट में कुछ और बातें होंगी। )

2 comments:

संगीता पुरी said...

मन के भावों और विचारों को अभिव्‍यक्ति देने में भाषा का कोई बंधन नहीं होता !!

पद्म सिंह said...

सटीक बातें बताई आपने ...