ओमप्रकाश तिवारी
-----------------
आजकल बहस हो रही है कि या फिल्मी लेखक और गीतकार-साहित्यकार नहीं हैं? वैसे तो यह बहस के लिए कोई मुद्दा ही नहीं है। लेकिन यह बाजारवाद है, जैसे बाजार में कुछ भी बिक सकता है और बहुत अच्छा नहीं बिकता, वैसे ही बाजारवाद में किसी भी मुद्दे े पर बहस की जा सकती है। चाहे वह देश व समाज के लिए जरूरी हो या न हो। ऐसी बहसों को बल मिला है जब से ब्लॉग लेखक पैदा हुए हैं। तकनीक की यह नई विधा बहसों और सूचनाआें के विस्फोट के साथ सामने आई है और विकसित हो रही है। इस विधा में कोई संपादक नहीं है। लिखने वाला ही संपादक है। इस कारण कभी-कभी यह अभिव्यि त की स्वतंत्रा का दायरा ताे़डकर स्वच्छंद हो जाती है।
कहा जा रहा है कि बहस पुरानी है, लेकिन टीवी पत्रकार रवीश कुमार अपने ब्लॉग कस्बा पर इसे फिर से हवा दी है। वह पूछते हैं कि लोकप्रिय गीतकारों, खासकरके फिल्मी गीतकारों को कवि यों नहीं माना जाता? प्रसून जोशी जैसे गीतकारों पर नामवर सिंह जैसे आलोचक यों नहीं लिखते? यों उन्हें साहित्य अकादमी वगैरह पुरस्कार नहीं दिए जाते? और तो और दावा यह भी किया जा रहा है कि बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील व त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। या मासूम दावा है, पतनशील व त में प्रगतिशील रचना। जिन लोगों का नाम लेकर यह दावा किया गया है उन्हें यदि प्रगतिशील मान लिया जाए तो शायद प्रगतिशील शब्द के नए अर्थ गढ़ने पड़ेंगे। प्रगतिशीलता को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
रवीश कुमार अच्छे फीचर राइटर हैं। उन्हें अपनी स्टोरी को इस पतनशील व त में बेचना आता है। जी हां, बेचना ही कहेंगे इसे, योंकि यदि उनकी स्टोरी को टीआरपी न मिले तो उसकी कोई बाजार वैल्यू नहीं रह जाती। फिर वही लोकप्रिय स्टोरियां रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं। जो लोकप्रिय है वह अच्छा हो, प्रगतिशील हो यह जरूरी नहीं है। लोकप्रियता को प्रगतिशीलता का जामा पहनाना नदानी होगी। रवीश कुमार खुद कोई प्रगतिशील फीचर स्टोरी तैयार करें और यदि वह बाजार के मानकों को नहीं पूरा करेगी तो उसका प्रसारण नहीं किया जाएगा। अपने अब तक केकैरियर में वह इस बात को कई बार महसूस भी कर चुके होंगे। यदि अपनी सभी भावनाआें और संवेदनाआें को वह लोकप्रिय बनाकर टीवी पर बेच पाते तो शायद उन्हंे ब्लॉग लेखक न बनना पड़ता। जाहिर है कि रवीश कुमार ने एक अलग दुनिया को एक दूसरी दुनिया में घुसे़डने का प्रयास किया है। बताने की जरूरत नहीं है कि फिल्मी दुनिया एक अलग दुनिया है तो साहित्य की दुनिया उससे बिल्कुल अलग है। फिल्मी दुनिया के लोग स्टार कहे जाते हैं और लाखों-कराे़डों रुपयों में खेलते हैं। जबकि साहित्य जगत के लोग खास करके हिंदी साहित्य के किसी लेखक के लिए तो हजारों रुपये मिलना भी किसी सपने के समान होता है। फिल्मी दुनिया में ग्लैमर है, पैसा है और स्टारडम है। यह लोग इंसान की भावनाआें और संवेदनाआें का धंधा करते हैं। अ सर इनका कोई सामाजिक सरोकार भी नहीं होता। समाज, देश, भावना और संवेदना का इस्तेमाल यह लोग पैसा कमाने के लिए करते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि हिंदी की रोटी खाने वाले अभिनेता, अभिनेत्रियां और फिल्मी दुनिया के अन्य लोग अंग्रेजी में ही गिटिर-पिटिर करते हैं।
साहित्यकार का सरोकार समाज, इंसान, देश-दुनिया से जु़डा होता है, बाजार से नहीं। साहित्यकार मूल्यों की रचना समाज और देश को ध्यान में रखकर करता है। जबकि फिल्मी लेखक की रचाना बाजार आधारित होती है। वह अपनी रचना का मूल्य बाजार से वसूल लेता है। जो फिल्मी राइटर ऐसा नहीं कर पाता वह फ्लाप घोषित कर दिया जाता है और उसका कैरियर चौपट हो जाता है।
प्रसून जोशी लोकप्रिय फिल्मी गीतकार हैं तो उन पर नामवर सिंह यों लिखें? उन पर लिखने के लिए रवीश कुमार तो हैं! प्रसून जोशी जब मनोहर श्याम जोशी जैसा कुछ करेंगे, रचेंगे तब उन पर नामवर सिंह लिखेंगे। वैेसे भी लोकप्रियता को यदि प्रतिशीलता का पैमाना माना जाए तो सुरेंद्र मोहन पाठक, ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखकों को पहले प्रगतिशील मानना पड़ेगा और नामववार सिंह को पहले उन पर लिखना पड़ेगा। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ तथा अन्य पुरस्कारों के लिए इनकी दावेदारी प्रसून जोशी व अन्य फिल्मी लेखकों से शायद अधिक मजबूत होगी।
जिस तरह फिल्म फेयर पुरस्कार किसी साहित्यकार को नहीं मिल सकता, उसी तरह किसी फिल्मी लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिल सकता और मिलना भी नहीं चाहिए। मूल्यों का सृजन करने वाले और सृजित मूल्यों को बेचने वालों की तुलना कैसे की जा सकती है? एक सृजनकर्ता है और एक सेल्समैन।
Showing posts with label बहस. Show all posts
Showing posts with label बहस. Show all posts
Tuesday, 12 February 2008
Saturday, 2 February 2008
हर कामकाजी महिला पुरुष के लिए चालू
धर्मवीर
--------
आपने आज के समय का एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। मगर सवाल मीडिया का ही नही है। पुरूष ने तमाम उत्पादक क्षेत्रों में महिलाआें के कदम रखने पर इसी अस्त्र का प्रयोग किया है। पुरूष के लिए हर कामकाजी महिला 'चालू`है। इंर्ट भट्ठ े पर काम करने वाली मजदूर से लेकर इलेे ट्रोनिक चैनल की एंकर तक सब को एक ही लाठी से हांका जाता है।यही कारण है कि लंबे समय तक महिलाएं ऐसे किसी क्षेत्र में उतरने का साहस ही नही कर पाई।अब जब उसने कुछ खतरे उठाने की सोच ही ली तो पुरूष अपनी मर्दानगी पर उतर आया है।अपने एकाधिकार को बचाए रखने का अच्छा तरीका निकाला है हम पुरूषों ने। पहले से ही समाजिक इज्जत और खानदान की नाक का सवाल बना कर महिलाआें के लिए अवसर सीमित कर दिए जाने के बाद उन्हे मुख्यधारा से बिल्कुल बेदखल करने का यह निहायत ही छिछोरा काम हैं। आखिर हम महिला को एक शरीर की बजाय इंसान यों नही मान पा रहे। इसके साथ ही यह भी उतना ही कड़वा सच है कि बालीवुड की तरह साहित्य या फिर मीडिया के हंस भी मोती चुगने का मौका नही छाे़डते। मीडिया के परमेश्वर ही आज इस बहस को छे़ड कर अपनी नंगई पर उतर आए हैं। शायद यही कारण है कि महिलाआें के संदर्भ में बौदि्घकता अ सर मात खा जाती है। मीडिया में जेंडर सेंसटिव वातावरण को कायम करना हमारी पहली जिम्मेवारी है। तभी महिलाएं भी देह द्वार की बजाय दुर्ग द्वार पर दस्तक दे पाएगी।
--------
आपने आज के समय का एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। मगर सवाल मीडिया का ही नही है। पुरूष ने तमाम उत्पादक क्षेत्रों में महिलाआें के कदम रखने पर इसी अस्त्र का प्रयोग किया है। पुरूष के लिए हर कामकाजी महिला 'चालू`है। इंर्ट भट्ठ े पर काम करने वाली मजदूर से लेकर इलेे ट्रोनिक चैनल की एंकर तक सब को एक ही लाठी से हांका जाता है।यही कारण है कि लंबे समय तक महिलाएं ऐसे किसी क्षेत्र में उतरने का साहस ही नही कर पाई।अब जब उसने कुछ खतरे उठाने की सोच ही ली तो पुरूष अपनी मर्दानगी पर उतर आया है।अपने एकाधिकार को बचाए रखने का अच्छा तरीका निकाला है हम पुरूषों ने। पहले से ही समाजिक इज्जत और खानदान की नाक का सवाल बना कर महिलाआें के लिए अवसर सीमित कर दिए जाने के बाद उन्हे मुख्यधारा से बिल्कुल बेदखल करने का यह निहायत ही छिछोरा काम हैं। आखिर हम महिला को एक शरीर की बजाय इंसान यों नही मान पा रहे। इसके साथ ही यह भी उतना ही कड़वा सच है कि बालीवुड की तरह साहित्य या फिर मीडिया के हंस भी मोती चुगने का मौका नही छाे़डते। मीडिया के परमेश्वर ही आज इस बहस को छे़ड कर अपनी नंगई पर उतर आए हैं। शायद यही कारण है कि महिलाआें के संदर्भ में बौदि्घकता अ सर मात खा जाती है। मीडिया में जेंडर सेंसटिव वातावरण को कायम करना हमारी पहली जिम्मेवारी है। तभी महिलाएं भी देह द्वार की बजाय दुर्ग द्वार पर दस्तक दे पाएगी।
यह सच नहीं है जनाब!

मीडिया में महिलाओं की स्थिति पर बहस में स्थिति बड़ी अजीब सी दिख रही है। ढेर सारे मीडियाकर्मी साथियों के फोन आए पर इस पर सच लिखने का साहस कम ही लोग दिखा पा रहे हैं। इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार संजय मिश्रा की बेबाक टिप्पणी-संजय मिश्रा
-------------
मीडिया नारद ने बहुत ही गैर जरूरी सा लगने वाला बहुत ही जरूरी सवाल उठाया है, क्या मीडिया में महिलाओं की सफलता देह से होकर गुजरती है? पहले तो इस सवाल से कन्नी काट जाने का मन हुआ। सोचा क्या बेकार सवाल है। अपनी गलतफहमी को हम मीडिया वाले सच बनाने के लिए क्या-क्या न बवाल काटते रहते हैं। मगर, मेरे मगज में यह सवाल कुछ उस तरह की कीड़े की तरह घुस गया, तो रेंगता है, तो ऐसी खुजली होती कि दिमाग भन्नाए जा रहा है।
मीडिया में महिलाओं की सफलता देह से होकर गुजरती है, यह वाक्य उतना ही झूठ है, जितना कभी यह माना जाता था कि पृथ्वी चपटी है। लेकिन इस सवाल के पीछे जो सच है, वह उतनी ही कडुवा। मीडिया की जमात में ऐसे भी शामिल है, जो आंखों ही आंखों से अपनी किसी महिला सहकर्मी का बलात्कार कर सकते है। मतलब वे ब्लाऊज के अंदर ब्रा का रंग अपने साथियों को खींसे निपोर कर बताते हैं। वे यह बताते हैं कि ब्लाऊज के पीछे तीसरे नंबर का बटन टूटा हुआ है। वे स्तनों की गोलाई पर भी चर्चा करते हैं। जब इससे भी मन नहीं भरता, तो महिला सहकर्मी की देह की चर्चा कथित तौर पर अपने साहित्य में करते हैं। इसका नमूना है हंस का मीडिया अंक, जिसकी तमाम कहानियों महिला सहकर्मियों की देह से शुरू होती है और देह पर ही खत्म हो जाती है। इस मीडिया अंक को हमारे साथी रूदाली अंक के नाम से भी याद करते हैं।
मीडिया में रिलेशनशिप को सेक्स का एंगल उन भुख्खकड़ों के कारण, उन कुंठित लोगों के कारण मिल जाता है, जो हर सफलता में सेक्स का राज तलाशते हैं। कास्टिंग काउज का स्टिंग आपरेशन मीडिया मे होता नहीं है लेकिन हर दिन इस पर चटकारे जरुर लिए जाते हैं। मुझे तो भविष्य का एक सवाल अभी से दिख रहा है-क्या चिकने लौंडे टाइप पुरूष पत्रकारों की सफलता भी देह से होकर गुजरती है। जरा मेरे सवाल पर भी गौर फरमाइएगा।
Subscribe to:
Comments (Atom)
