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Saturday, 2 February 2008

हर कामकाजी महिला पुरुष के लिए चालू

धर्मवीर
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आपने आज के समय का एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। मगर सवाल मीडिया का ही नही है। पुरूष ने तमाम उत्पादक क्षेत्रों में महिलाआें के कदम रखने पर इसी अस्त्र का प्रयोग किया है। पुरूष के लिए हर कामकाजी महिला 'चालू`है। इंर्ट भट्ठ े पर काम करने वाली मजदूर से लेकर इलेे ट्रोनिक चैनल की एंकर तक सब को एक ही लाठी से हांका जाता है।यही कारण है कि लंबे समय तक महिलाएं ऐसे किसी क्षेत्र में उतरने का साहस ही नही कर पाई।अब जब उसने कुछ खतरे उठाने की सोच ही ली तो पुरूष अपनी मर्दानगी पर उतर आया है।अपने एकाधिकार को बचाए रखने का अच्छा तरीका निकाला है हम पुरूषों ने। पहले से ही समाजिक इज्जत और खानदान की नाक का सवाल बना कर महिलाआें के लिए अवसर सीमित कर दिए जाने के बाद उन्हे मुख्यधारा से बिल्कुल बेदखल करने का यह निहायत ही छिछोरा काम हैं। आखिर हम महिला को एक शरीर की बजाय इंसान यों नही मान पा रहे। इसके साथ ही यह भी उतना ही कड़वा सच है कि बालीवुड की तरह साहित्य या फिर मीडिया के हंस भी मोती चुगने का मौका नही छाे़डते। मीडिया के परमेश्वर ही आज इस बहस को छे़ड कर अपनी नंगई पर उतर आए हैं। शायद यही कारण है कि महिलाआें के संदर्भ में बौदि्घकता अ सर मात खा जाती है। मीडिया में जेंडर सेंसटिव वातावरण को कायम करना हमारी पहली जिम्मेवारी है। तभी महिलाएं भी देह द्वार की बजाय दुर्ग द्वार पर दस्तक दे पाएगी।

यह सच नहीं है जनाब!


मीडिया में महिलाओं की स्थिति पर बहस में स्थिति बड़ी अजीब सी दिख रही है। ढेर सारे मीडियाकर्मी साथियों के फोन आए पर इस पर सच लिखने का साहस कम ही लोग दिखा पा रहे हैं। इस कड़ी में वरिष्ठ पत्रकार संजय मिश्रा की बेबाक टिप्पणी-

संजय
मिश्रा
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मीडिया नारद ने बहुत ही गैर जरूरी सा लगने वाला बहुत ही जरूरी सवाल उठाया है, क्या मीडिया में महिलाओं की सफलता देह से होकर गुजरती है? पहले तो इस सवाल से कन्नी काट जाने का मन हुआ। सोचा क्या बेकार सवाल है। अपनी गलतफहमी को हम मीडिया वाले सच बनाने के लिए क्या-क्या न बवाल काटते रहते हैं। मगर, मेरे मगज में यह सवाल कुछ उस तरह की कीड़े की तरह घुस गया, तो रेंगता है, तो ऐसी खुजली होती कि दिमाग भन्नाए जा रहा है।
मीडिया में महिलाओं की सफलता देह से होकर गुजरती है, यह वाक्य उतना ही झूठ है, जितना कभी यह माना जाता था कि पृथ्वी चपटी है। लेकिन इस सवाल के पीछे जो सच है, वह उतनी ही कडुवा। मीडिया की जमात में ऐसे भी शामिल है, जो आंखों ही आंखों से अपनी किसी महिला सहकर्मी का बलात्कार कर सकते है। मतलब वे ब्लाऊज के अंदर ब्रा का रंग अपने साथियों को खींसे निपोर कर बताते हैं। वे यह बताते हैं कि ब्लाऊज के पीछे तीसरे नंबर का बटन टूटा हुआ है। वे स्तनों की गोलाई पर भी चर्चा करते हैं। जब इससे भी मन नहीं भरता, तो महिला सहकर्मी की देह की चर्चा कथित तौर पर अपने साहित्य में करते हैं। इसका नमूना है हंस का मीडिया अंक, जिसकी तमाम कहानियों महिला सहकर्मियों की देह से शुरू होती है और देह पर ही खत्म हो जाती है। इस मीडिया अंक को हमारे साथी रूदाली अंक के नाम से भी याद करते हैं।
मीडिया में रिलेशनशिप को सेक्स का एंगल उन भुख्खकड़ों के कारण, उन कुंठित लोगों के कारण मिल जाता है, जो हर सफलता में सेक्स का राज तलाशते हैं। कास्टिंग काउज का स्टिंग आपरेशन मीडिया मे होता नहीं है लेकिन हर दिन इस पर चटकारे जरुर लिए जाते हैं। मुझे तो भविष्य का एक सवाल अभी से दिख रहा है-क्या चिकने लौंडे टाइप पुरूष पत्रकारों की सफलता भी देह से होकर गुजरती है। जरा मेरे सवाल पर भी गौर फरमाइएगा।