Sunday, 20 April 2008

यह बमबम बिहारी की दूसरी पोस्ट

जब पत्रकार ने मालिक को पीटा

एक साथी का मेल मिला। पत्रकारों की हालत को लेकर उद्वेलित थे। उनको जो जवाब लिखा लगा, और साथियों से भी सांझा किया जा सकता है।
दूसरों की आवाज उठाने वाला पत्रकार ख़ुद क्यों शोषित होता है? क्यों खाता है नौकरी में गालियाँ ? दरअसल सबकी अपनी मजबूरी है। व्यि तगत और पेशागत भी। अगर आप और आपकी फैमिली एक निर्धारित जीवन स्तर या माहौल की आदी हो गई है तो उसे अचानक बदलना संभव नहीं है। कई तरह की दि कतें सामने आती हैं और यह न्यायोचित भी नहीं है कि आप अपने वैचारिक विरोधों की वजह से परिवार को कष्ट में डाल दें।
मैं अकेला था और शुरू से ही ऐसे लोगों की संगत में पड़ गया जो कथित तौर पर अराजक थे। करीब दस साल पहले मैं दिल्ली की एक अति चिरकुट टाईप मैगजीन में काम कर रहा था। वहां एक साथी थे मृत्युंजय कुमार। संभवत: आजकल जालंधर अमर उजाला में न्यूज एडीटर हैं। हम लोगों ने पूरी मेहनत से काम किया। पर जब वेतन का समय आया तो मालिक बहाने बनाने लगा। कहने लगा कि हमारी स्थिति ठीक नहीं है। वह तय वेतन से काफी कम देने की बात करने लगा। आफिस में छह सात लोग थे। पर विरोध करनेवालों में हम और मृत्युंजय ही थे। मालिक सोच रहा था कि इन बिहारियों को ऐसे ही हड़का के भगा दूंगा। वह बदतमीजी पर उतर आया। मैं मामले को निपटाने की सोच रहा था कि मृत्युंजय ने उसे तमाचा जड़ दिया। सब सन्न रह गए। बाद में खूब हंगामा हुआ। बाकी स्टाफ उसके साथ खड़ा होने लगा तो हमने भी गाली गलौज करते हुए पीसीआर बुला ली। फिर उस मैगजीन का दूसरा अंक कभी नहीं आया। इसका असर यह भी हुआ कि पास में एक और मैगजीन का आफिस था उसने भी हमसे कुछ काम कराया था वहां मारपीट की बात सुनकर पेमेंट तुरंत भिजवा दिया। इसी तरह से काम चल रहा था। लेकिन हर जगह थोड़ा कम अधिक यही स्थिति थी। या करता? नौकरी के ठिकाने ही कितने हैं? भास्कर, जागरण जैसे बड़े अखबारों में भी यही स्थिति है। चप्पू हर जगह चकाचक रहते हैं। चार साल पहले यूएनआई के एक पत्रकार ने बताया था कि उन्होंने ओम थानवी की भरे आफिस में इसलिए छीछालेदर की थी कि उन्होंने जनसत्ता में कई महीने काम करवाने के बाद भी एक पैसा नहीं दिया था। भास्कर पानीपत में जब जगदीश शर्मा जीएम थे तो संपादक मुकेश भूषण को लीड और खबरों का प्लेसमेंट समझाते थे और गीत चतुर्वेदी समेत अधिकतर पत्रकार उसकी हां में हां मिलाकर खुद को धन्य समझते थे। इसे क्या कहेंगे? शायद यह उनकी जरूरतें थी जिसके कारण वे ऐसा करने को मजबूर थे। जो मजबूर नहीं थे वे विरोध करते थे और फिर नौकरी छोड़कर चले जाते थे।
लेकिन सवाल फिर भी वही है कि आखिर कब तक?
मेरी तरह चाय की दुकान खोल लेना भी कोई सही स्थिति नहीं है। यह भी ऐसी व्यवस्था के प्रति भड़ास निकालने का सिर्फ माध्यम है।

2 comments:

seth said...

aapne kya khoob likhi
bambm bihari ji
mirtanjai ji amar ujala me mere boss rahe hain. mai unke tewar & nishpachchta se bahut jyada parbhabit hun. kisi karanwash maine amar ujala chodkar dainik bhaskar join kar liya hai. lekin mirtanjai ji jaise boss nahi mil sake.

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

बिहारी भाईसाहब,क्या मान लिया जाए कि हर उस आदमी को जो इज्जत से जीना चाहता है कुछ निजी व्यवसाय चला लेना चाहिये साइड में ताकि आड़े वक्त में सम्मान से समझौता न करना पड़े।

यहाँ मिले बमबम बिहारी

बमबम बिहारी गायब थे। ये ब्लॉग उन्होंने ही बनवाया था। कई महीनों के बाद भड़ास पर कईयों की पोल पट्टी खोलते दिखे। पता चला कि चाय की दुकान खोल ली है। पेश है उनके विचार भड़ास से साभार ---

मालिक-संपादकों के पिछवाड़े पर लात मारकर पेशे से ही बाहर हो गया, आजकल चाय बेचता हूं....

परीचय देने लायक बहुत कुछ नहीं है फिर भी नियमानुसार देने की कोशिश करता हूं। मैं साहित्य के चस्के से दिल्ली आया और पेट चलाने के लिए पत्रकार बन गया।
नौकरी का संकट था इसलिए फ्रीलांसिंग करने लगा। बाद में कुछ चिरकुट टाइप अखबारों में काम किया। यहां काम तो ...... फाड़कर लिया जाता था पर पैसे देने में फटने लगती थी। हर जगह अलग-अलग गलीजखाने थे। लिखने बैठो तो पूरा रंडीरोना हो जाएगा। ऐसे में दो ही विकल्प थे कि काम करने के बाद भी उनका भारोत्तोलन करते या फिर नौकरी छोड़ते। कई जगह ऐसा ही हुआ। मालिक-संपादकों के पिछवाड़े पर लात मारकर पेशे से ही बाहर हो गया। आजकल दिल्ली यमुनापार के शकरपुर के एक मोहल्ले में चाय की दुकान चलाता हूं और जहां-तहां अपनी भड़ास निकालता रहता हूं। वहां कोई मुझे नहीं जानता। न झूठी विद्वता का रौब है और न ही अहंकार। गरीब लेकिन बड़े दिलवाले लोगों की नई दुनिया भी देख रहा हूं। इतनी कमाई हो जा रही है कि मजे से अपने दायित्व का निर्वाह हो रहा है।
पत्रकारिता के नाम पर दोगले लोगों को तेल लगाने से अच्छा रिक्शेवालों का जूठा ग्लास धोना लग रहा है। अभी मोबाइल फोन चालू नहीं करवाया है पर पास के एक ग्राहक के साइबर कैफे में अपनी भड़ास निकालने का जुगाड़ फिलहाल कर लिया है। फिलहाल यही मेरी रामकहानी।

बिहारी दास उर्फ बमबम बिहारी

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Reply
from Yashwant Singh
yashwantdelhi@gmail.com

bhayi, aap se zarur milne aaunga kisi din. aap shandar aadmi hain. ham logo ke liye asali Bhadasi hain aap. aap pls zarur Bhadas pe likhiye. jo jo huwa uska khul kar lekhan kariye taki un kutton ka pardaphash ho sake jo aap aur ham jaise logo ka khoon peete hain. mai aapko ek alag se mail bhej kar bhadas ki membarship ke liye invitation bhejunga.

thanks
yashwant


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बमबम बिहारी जी ने जो निजी पत्र मुझे भेजा है और मैंने जो उसका जवाब दिया है, उसे सार्वजनिक करके मैं जरूर अपराध कर रहा हूं और इसके लिए हो सके तो बमबम बिहारी जी मुझे माफ करेंगे लेकिन ऐसा करने के पीछे मेरा मकसद सिर्फ एक है। सैकड़ों हजारों पत्रकार नौकरी को ही अंतिम सत्य मानकर जिस हद तक पतित हो जाते हैं, अपनी आत्मा को बेच खाते हैं, अपने जमीर को गिरवी रख देते हैं, अपने स्वाभिमान को भुला देते हैं....उनके लिए बमबम बिहारी जी एक सबक हैं। ये आदमी चाय की दुकान चलाता है और दबंगई से अपनी ज़िंदगी जीता है। पैसे इसमें भी गुजर बसर लायक मिल जाते हैं और पैसे उसमें भी गुजर बसर लायक ही मिलते हैं पर चाय की दुकान चलाने के दौरान जो आजादी, जो उन्मुक्तता, जो शांति मिलती है, वो पत्रकारिता करते हुए कहां।

कहने का आशय ये है कि पत्रकारों बंधुओं, अंदर से मजबूत बनिए वरना अगर समझौते शुरू कर देंगे तो कुत्ते टाइप के लोग आप पर भोंकते रहेंगे, आप पर राज करते रहेंगे, आपको ज़िंदगी व पत्रकारिता के दर्शन पिलाते रहेंगे और आप यूं ही कुछ पैसों के लिए सब कुछ जानते जीते हुए भी टुकुर टुकुर देखकर चुप रहेंगे। जहर पीते रहेंगे। आप ना कहना सीखिए, अपनी बात रखना सीखिए, पत्रकारिता में चीजें आपके बहुत अनुकूल नहीं दिख रही हैं तो पत्रकारिता के बाहर की दुनिया में गुजर बसर करने लायक काम करने के बारे में सोचिए। भड़ास इस नेक काम में आपके साथ हैं।

उम्मीद है मुझे यह पत्र सार्वजनिक करने के लिए माफ किया जाएगा और सभी भड़ासी गैर भड़ासी साथी बमबम बिहारी जी को दाद देंगे कि वो एक मर्द की माफिक दिल्ली मे ज़िंदगी जी रहे हैं, किसी चूहे के माफिक नहीं।

आजकल बड़े बड़े मी़डिया हाउसों में पत्रकारों की स्थिति चूहे जैसी हो गई है, बस केवल चूं चूं चां चां कर सकते हैं, वो भी इतना धीरे धीरे कि पड़ोसी की कान तक आवाज न पहुंच जाए वरना ये चूं चूं चां चां भी उपर तक पहुंचा दी जाएगी और अफसर लोग तलब कर लेंगे कि भाई सुना है तुम चूं चूं चां चां कर रहे थे और आप जवाब में हें हें पें पें कें कें करते रहेंगे लेकिन अफसर पर कोई असर नहीं होगा और आपको संदिग्ध मानते हुए वो आपका तबादला कर देगा, या फिर आपका इनक्रीमेंट रोक देगा या फिर आपको इस्तीफा देने के लिए कह देगा या फिर आपको ब्लैक लिस्टेड करके छोड़ देगा या फिर आपको आगे से ध्यान रखने की हिदायत देकर माफ कर देगा....

कुछ भी हो सकता है लेकिन जो कुछ होगा.....


... उससे दो चीजें होंगी ......

या तो आप डर जाएंगे या आप नहीं डरेंगे।
नहीं डरेंगे, ऐसा संभव ही नहीं है क्योंकि आपको पत्रकार बने रहना है।
डर जाएंगे तो दो बात होगी।
या तो आपका आत्मविश्वास और कमजोर होगा या फिर नहीं होगा।
आत्मविश्वास नहीं कमजोर होगा, ऐसा संभव ही नहीं है।
आत्मविश्वास कमजोर होगा तो दो बातें होगीं।
या तो आप चूहा से चींटी हो जाएंगे या नहीं होंगे।
नहीं होंगे, ये हो ही नहीं सकता।
चूहा से चींटी होंगे तो दो बातें होंगी।
आप या तो चूं चूं चां चां करेंगे या नहीं करेंगे।
नहीं करेंगे ये हो ही नहीं सकता।
चूं चूं चां चां करेंगे तो दो बातें होंगी।
आपकी बात उपर पहुंचेंगी या नहीं पहुंचेगी।
नहीं पहुंचेगी ये संभव नहीं क्योंकि आजकल हर आदमी मुखबिर बन चुका है।
पहुंचेगी तो दो बातें होंगी।
या तो आपको अफसर तलब करेगा या नहीं तलब करेगा।
नही तलब करेगा, ये संभव नहीं।
तलब करेगा तो दो बातें होंगी। या तो आप डर जाएंगे या आप नहीं डरेंगे......
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................

हरि अनंत हरि कथा अनंता......

फिलहाल तो यही बोलिए....


जय बमबम बिहारी जी
जय भड़ास
यशवंत

4 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,बिहारी भाईसाहब तो भड़ास शब्द का साक्षात मूर्त रूप हैं, अनुकरणीय़ हैं उनके लिये जिनकी आत्मा का अभी सौदा नहीं हुआ है। बिहारी भाई डटे रहिये आत्मसम्मान के मैदान में...
बोलो बम बम बिहारी की जय
जय जय भड़ास

bambam bihari said...

sorry, मैं अपनी भड़ास निकालने के च कर में यह भी नहीं देख पाया कि यशवंत जी ने पोस्ट डाल दी है। उन्होंने मेरा पत्र सार्वजनिक करके कोई गलती नहीं की है योंकि यही मैं करनेवाला था। ब्लाग पर आने की मंशा ही अपने को (कई बार दूसरों को भी)सार्वजनिक करने की होती है।

VARUN ROY said...

भड़ास रंग दिखाने लगा है भाईसाहब . बस ये मशाल जलती रहे और देसाई जैसे कीट-पतंगे इसमें जलते रहें यही तम्मना है.
वरुण राय

रजनीश के झा said...

बम बम भोले,
दादा अब लग रहा है की सार्थक हो गया भडास , जीवन की सच्ची वास्तविकता कटु अनुभव से ही सामने आती है, और पुरी उम्मीद है की बिहारी भाई कटु से कटु अनुभवों से काले पन्ने को सामने लायेंगे।

जय जय भडास

Wednesday, 2 April 2008

जोर का झटका धीरे से

-राजीव थपलियाल

कल बाजार में फत्तेखां मिला, तो उसे देखकर मैं दंग रह गया। पहचान में ही नहीं आ रहा था। मैं लपककर उसके पास गया और गब्बर सिंह की तरह डॉयलॉग मारा, 'अरे फत्ते खां, तुम्हारी यह दुर्गति किसने की? मुझे बताओ तो सही।` हालांकि इसके पीछे मेरी मंशा उनकी हालत जानने की थी। कभी गले में सोने की मोटी चेन और कलाई में कीमती घड़ी पहनने वाले फत्ते खां मेरी बात सुनते ही रो पड़े। बोले, 'यह सब अमरीका की रची गई साजिश का परिणाम है। अपने कॉमरेड बार-बार कह रहे थे कि बुश से दोस्ती की पींगे मत बढ़ाओ, लेकिन कोई माने तब न! कर दिया न सारा गु़ड गोबर।`
फत्ते खां की बात सुनकर मुझे लगा कि उनका दिमाग हिल गया है। मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, 'यार फत्ते खां, लंतरानी छोड़ो और सीधी बात बताओ कि मामला या है? आखिर तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? तुम्हारा तो मिजाज ही बदला हुआ है..बिल्कुल बर्ड फ्लू से पीड़ित मुर्गी की तरह। राम कसम...लगता है कि जैसे अभी-अभी किसी ने तुम्हारी गर्दन मरोड़ी है।`
फत्ते खां ने अपने आंसुआें को पोंछते हुए कहा, 'यह सब अमरीकियों की साजिश है मुझे बरबाद करने की। अपने दार जी जब बुश से 'लारालप्पा` कर रहे थे, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन जब तक मामले की पूंछ पकड़ में आती, अमरीकी अर्थव्यवस्था की मंदी ने भारतीय सेंसे स के बैल को आैंधे मुंह गिरा दिया। मुझ जैसे न जाने कितने फत्तेखां बैठे झक मार रहे हैं।`
फत्ते खां की बात सुनकर मुझे गुस्सा आ गया, 'तुम जिन धर्मनिरपेक्षों, वामपंथियों और दक्षिणपंथियों का राग अलाप रहे हो, वे सभी एक ही थाली के बैंगन हैं। वामपंथियों की 'गु़ड खाकर गुलगुले से परहेज` वाली थ्योरी पर आपको 'डाउट` नहीं हुआ, यही ताज्जुब की बात है। मैं तो बहुत पहले समझ गया था कि मामला न तीन का है और न तेरह का। अंदरखाते सभी एक हैं। राजनीतिक मंचों पर हाथ उठा-उठाकर 'पूंजीवाद हाय..हाय` का नारा लगाने वाले जब पूंजीवाद की आरती उतारने लगे थे, तभी समझ जाना चाहिए था कि मामले का ऊंट किस करवट बैठेगा। कोई दादा बसु से तो पूछे भला कि या समाजवाद एकदेशीय हो सकता है? खैर..छोड़ो। सेंसे स के च कर में पड़ने से अच्छा है कि कबीरदास की तरह 'देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीव` का साधी-सादा फंडा अख्तियार करो और चैन की नींद सोओ।` मेरी बात सुनकर फत्ते खां सड़क के किनारे बैठा सेंसे स को बिसूरता रहा।

Tuesday, 11 March 2008

असगऱ वजाहत ने सम्मान अस्वीकार किया

प्रति,

उपाध्यक्ष

हिन्दी अकादमी दिल्ली


प्रिय महोदय

समाचार पत्रों तथा अन्य सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि हिन्दी अकादमी दिल्ली ने मेरे कहानी संग्रह ''मैं हिन्दू हूँ`` को साहित्यिक कृति सम्मान देने की घोषणा की है। इस संदर्भ में मैं निवेदन करना चाहता हूंं कि अकादमी के इस निर्णय ने मुझे और साहित्यिक कृति सम्मान दोनों को संकट में डाल दिया है।

साहित्यिक कृति सम्मान के बारे में अपनी जानकारियो, परम्परा और साक्ष्यों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि यह प्राय: प्रतिभाशाली, युवा रचनाकारों की कृतियों को दिया जाता है। यह सम्मान एक तरह से नयी और ऊर्जावान प्रतिभा का सम्मान है।

मैं पुरस्कार समिति का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे 'युवा` स्वीकार किया। पर शायद उन्हें यह पता नहीं है कि मैं १५-२० साल पहले युवा था और तब यह पुरस्कार मुझे मिला था। मैं यह भी सोच रहा हूँ कि यह सम्मान मुझ जैसे 'साठे` को न मिल कर यदि वास्तव में किसी युवा रचनाकार को मिला होता तो उसे तरंगित करता और मुझे यह न लगता कि जाने अनजाने यह सम्मान/पुरस्कार देकर हिन्दी अकादमी दिल्ली ने मेरी अवमानना का प्रयास किया है।

इस प्रसंग के अधिक तूल न देते हुए आपसे निवेदन है कि मैं साहित्यिक कृति सम्मान स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं यह सम्मान/पुरस्कार इस कारण भी अस्वीकार कर रहा हँू ताकि हिन्दी अकादमी दिल्ली की पुरस्कार समिति भविष्य में पुरस्कार देते समय अधिक सचेत रहे।

सादर।


असगऱ वजाहत
दिनंाक - ११ मार्च २००८


संपर्क : ७९, कला विहार, मयूर विहार-प्ए

दिल्ली - ११००९१

मो. ९८१८१४९०१५

Sunday, 9 March 2008

अजित पुष्कल और सत्यकेतु सम्मानित

सांस्कृतिक एवं नाट्य संस्था 'समयांतर` की ओर से वरिष्ठ नाटककार और साहित्यकार अजित पुष्कल को उनके उत्कृष्ट और सतत नाटक लेखन के लिए 'लक्ष्मीकांत वर्मा नाट्य लेखन सम्मान` और युवा कथाकार और पत्रकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को पत्रकारिता में भाषा और कथ्य के स्तर पर अलग स्वाद और दृष्टिसंपन्न नाट्य समालोचना के लिए 'लक्ष्मीकांत वर्मा सांस्कृतिक पत्रकारिता सम्मान` प्रदान किया गया। साथ ही इस वर्ष के पुरुष रंगकर्मी के रूप में सुधीर सिन्हा को पुरस्कृत किया गया। यह पुरस्कार १५ से १८ फरवरी तक इलाहाबाद में आयोजित स्व. लक्ष्मीकांत वर्मा स्मृति नाट्य समारोह-२००८ केसमापन पर दिया गया। चार दिवसीय समारोह का उद्घाटन पलोक बसु और समापन उ?ार प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के उपसभापति बाबूलाल भंवरा ने किया। पहले दिन 'समानांतर` की ओर से अनिल रंजन भौमिक के निर्देशन में सत्यजीत रे लिखित और अख्तर अली द्वारा रूपांतरित नाटक 'असमंजस बाबू` और ममता कालिया लिखित 'उनका जाना` का मंचन किया गया। दूसरे दिन 'थर्ड बेल` भोपाल की ओर से अनूप जोशी के निर्देशन में महेश एल कुंचवार लिखित 'आर त क्षण` की प्रस्तुति हुई। तीसरे दिन 'आधारशिला` इलाहाबाद की ओर से अजय केशरी के निर्देशन में डॉ. चंद्र लिखित 'लड़ाई जारी है` का मंचन किया गया। चौथे और आखिरी दिन 'समन्वय` इलाहाबाद ने सुषमा शर्मा के निर्देशन में कमलेश्वर लिखित 'राजा निरबंसिया` की प्रस्तुति की। इस दौरान 'नाट्य प्रस्तुतियों में दर्शकों की उदासीनता` विषय पर विचार गोष्ठी भी आयोजित की गई।

Sunday, 2 March 2008

किसान हंसे, सोनिया मुसकराइंर् लेकिन .....

केंद्र सरकार ने अपने पांचवें बजट में किसानों की सुध ली है। उसके वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पांच एकड़ वाले किसानों के मार्च २००७ तक सरकारी बैंकों, ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों से लिए कृषि ऋण को माफ कर दिया है। कहा जा रहा है कि सरकार ने ऐसा चुनाव की वजह से किया है। उसके इस कदम से आने वाले लोकसभा के चुनाव में उसे फायदा होगा। कदाचित यह सही हो लेकिन इससे खास फायदा होने वाला नहीं है। बेशक इस ऋण माफी से देश के चार कराे़ड किसानों को लाभ होने का दावा किया जा रहा है लेकिन एक हकीकत यह भी है कि अधिकत किसानों को तो बैंक कर्ज देते ही नहीं। बैंकों से कर्ज लेने में भी काफी भ्रष्ट ाचार है। निचले स्तर से लेकर बैंक प्रबंधक कर्ज देने में रिश्वत लेते हैं। इस कारण किसान बैंकों के पास कम ही फटकते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि किसान अधिकतर कर्ज साहूकारों-आढ़तियों से लेते हैं। यह लोग फसल पकते ही किसान से अपना कर्ज वसूल लेते हैं। यदि अध्ययन किया जाए तो यह बात जरूर सामने आएगी कि कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करने वाले अधिकतर किसान साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से पीड़ित रहे हैं। अब लाख टके का सवाल यह है कि साहूकारों और आढ़तियों के कर्ज से किसानों को कौन मुि त दिलाए। यदि इस कर्ज से किसानों को राहत नहीं मिलती है तो कांग्रेस को कर्ज माफी से अधिक लाभ नहीं मिलने वाला है।
यही हाल अन्य दलों का भी होने वाला है। कारण यह लोग भी किसानों की कर्ज माफी का श्रेय लेने की हाे़ड में लगे हैं। इनकी भी समझ में नहीं आ रहा है कि कर्ज माफी का फैसला बीमार किसानी का उचित समाधान नहींं है। इससे फौरी तौर पर कुछ किसानों को राहत मिल गई है। लेकिन मार्च २००७ के बाद के कर्ज का या होगा? सरकार को यह सीमा दिसंबर २००७ तक करनी चाहिए थी। इसके अलावा यह बात भी गौर करने वाली है कि छोटे और सीमांत किसानों के दम पर ही तो चुनाव नहीं जीता जा सकता। सरकार ने भूमिहीनों और श्रमिकों के लिए ऐसा कोई उपाय नहीं किया है।
शहरों और गांवों में कराे़डों लोग हाड़ताे़ड मेहनत करते हैं फिर भी उनका जीना मुश्किल हुआ पड़ा है। वह आत्महत्या नहींं करते योंकि वह मेहनतकश है। वह जिंदगी से लड़ते हैं भागते नहीं इसलिए उनकी नहीं सुनी जाती लेकिन वोट तो वह भी देते हैं। किसानों का कर्ज माफ कर वाहवाही लेने वाली सरकार को इस वर्ग की बिल्कुल भी याद नहीं आई। सच तो यह है कि उदारीकरण की च की में सबसे अधिक यही वर्ग पिस रहा है। बारह-बाहर घंटे श्रम और मजदूरी के नाम पर दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह। या इतने में गुजारा हो सकता है? सरकार ने शायद यह मान लिया है कि यह लोग तो वोट देते ही नहीं इस लिए चुनावी बजट में भी इनके हितों की अनदेखी की गई है। लेकिन वह यह भूल गई कि यदि यह लोग पोलिंग बूथ तक पहंुच गए तो उसकी खुशी का गुब्बारा फूट जाएगा।
सरकार ने किसानों का कर्ज माफ करके कोई तीर नहीं मारा है। विसंगतियों में घिरी किसानी का यह सही हल नहीं है। सरकार को चाहिए था कि वह कृषि में निवेश को बढ़ाने के लिए सस्ते ऋण की व्यवस्था करती। बैंकों से भ्रष्ट ाचार दूर करती। बैंकों से कर्ज लेने में नियम-कायदों को सरल बनाती। ताकि किसान साहूकारों और आढ़तियों के चंगुल में न फंसते। बेशक अभी किसान हंस रहे हैं और सोनिया गांधी मुसकरा रही हैं लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाला नहीं है।

Saturday, 1 March 2008

स्त्री विमर्श और शब्दों की संगीत लहरी

वरिष्ठ कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के उपन्यास देश निकाला की समालोचना की दूसरी और अंतिम किस्त।



चीनू ने एकाएक सवाल किया- मम्मा, पापा हमारे साथ यों नहीं रहते? स्तब्ध मल्लिका या जवाब दे? कैसे बताये कि गौतम की दुनिया से उन दोनों को देश निकाला मिला है। कैसे समझाये इतनी सी चीनू को कि औरत अगर अपने मन मुताबिक जीना चाहे तो उसे देश निकाला ही मिलता है। मिलता रहा है।

उ त पंि तयां हैं वरिष्ठ कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के उपान्यास देश निकाला की। यह उपन्यास रवींद्र कालिया के संपादकत्व में निकलने वाली नया ज्ञानादेय पत्रिका के फरवरी २००८ अंक में प्रकाशित है। उ त लाइनों को पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह स्त्री विमर्श पर आधारित है। हालांकि इसकी पृष्ठ भूमि थियेटर, मुंबई और फिल्मी दुनिया है।

कहानी आरंभ होती है लिव इन रिलेशनसिप से। मल्लिका और गौतम सिन्हा थियेटर करते हैं। और एक साथ यानी रहते हैं। लेकिन शादी नहीं की। मल्लिका का मोह धीरे-धीरे थियेटर से भंग होता है और वह अभिनय छाे़डकर किसी कालेज में पढ़ाने लगती है। अपना फ्लैट खरीद लेती है और ट्यूशन भी पढ़ाने लगती हैं। उधर, गौतम थियेटर की दुनिया में रमा है, लेकिन प्रतिबद्ध लोगों को थियेटर कुछ नहीं देता। यहां सिर्फ बौद्धिक जुगाली ही की जा सकती है। (या फिर थिएटर का इस्तेमाल करके कलाकार फिल्मी दुनिया या टीवी सीरियल की दुनिया में निकल जाए। )

गौतम की निठल्लागीरी का असर मल्लिका और गौतम के रिश्ते पर पड़ता है। एक दिन मल्लिका का घर छाे़डकर गौतम अपने फ्लैट में रहने चला जाता है। (हालांकि हिंदी फिल्मों की तरह यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आती कि जब थियेटर में पैसा नहीं है और कालेज की नौकरी में इतना पैसा नहीं मिलता कि ट्यूशन पढ़ाना पड़े तो, पहले मल्लिका और बाद में गौतम फ्लैट कैसे खरीद लेते हैं???? बैंक लोन का संकेत है, लेकिन यह एक कड़वी हकीकत है कि बैंक लोन मिलना इतना आसान नहीं होता। खासकर मल्लिका और गौतम जैसे लोगों के लिए।)
अपने फ्लैट में गौतम याद करता है कि केवल चार वर्ष में या- या बदल गया। मल्लिका चारघोप में छूट गयी। गौतम मीरा रोड के फ्लैट में आ गिरे। मल्लिका एि टंग छाे़डकर कालेज ले चरर में बदल गयी। गौतम निर्देशन और अभिनय छाे़डकर स्क्रीन रायटर बन गए।

मंच पर मिले थे। मंच पर जिये थे। नेपथ्य में फिसल गये। इन शब्दों से कहानी खुलती है। कुछ भूत ज्ञात होता है तो कुछ भविष्य का अंदाजा होता है। और शुरू होती है संगीतमय भाषा की मधुर धुन।

उपन्यास की पहली पंि त ही है। सीढ़ियों पर सन्नाटा बैठा हुआ था। (आमतौर पर सन्नाटा पसरा हुआ का उल्लेख मिलता है, लेकिन यहां सन्नाटा बैठा हुआ है!!!!) यह वा य पाठक के दिमाग पर एक झन्नाटेदार चांटे की तरह पड़ता है, जो उसके चक्षुआें को खोल देता है। पाठक सजग हो जाता है। उसकी जिज्ञासा कर पट खुल जाता है और वह कहानी रूपी सरिता में छलांग लगा देता है।

'मैं जानती हूं कि तुम्हें खुद को शहीद कहलाना अच्छा लगता है। यह भी जानती हूं कि मेरे साथ रहकर तुम अपनी शर्तों पर नहीं जी पा रहे हो। मंच पर नये लोग आ गये हैं। यह कसक भी तुम्हारे दिल में है, लेकिन इसमें परेशान होने की या बात है? मैं पूरी तरह से मंच को छाे़ड चुकी हूं। तुम चाहो तो इसी माध्यम में बने रहकर अपना रास्ता बदल सकते हो। जिंदगी का डॉयलाग बोलते रहे हो। पटकथाएं जीते रहे हो। अब पटकथाएं और डॉयलॉग लिखना शुरू कर दो। लेकिन इस घर में अब रिहर्सलें नहीं होंगी। पार्टियां नहीं चलेंगी। मुझे ट्यूशन पढ़ाने के लिए सुबह छह बजे उठना पड़ता है, रात आठ बजे तक तीन शिफ्टों में चौबीस घंटे पढ़ाती हूं। उसी से यह घर चलता है।` उ त बातें मल्लिका गौतम से कहती है। इन शब्दों में मल्लिका एक मजबूत, दृढ निश्चयी, और आत्मनिर्भर चरित्र वाली महिला के रूप में सामने आती है। यह ऐसी औरत का चरित्र है जो हमारे समाज मंे बहुत कम मिलता है, लेकिन जिसकी संख्या बढ़ रही है। हालांकि आश्चर्य होता है कि जो मल्लिका गौतम को थियेटर के बाद फिल्मी दुनिया से जु़डने की बात कहती है। वही मल्लिका बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने में अपनी जिंदगी खपा रही होती है। वह फिल्मी दुनिया की तरफ यों नहीं जाती? अधिकतर थियेटर को लोग फिल्म और टीवी सीरियल में जाने का साधन मानते हैं। इसी ध्येय से वह थियेटर की दुनिया में आते हैं और मौका मिलते ही थियेटर को नमस्कार कर देते हैं।

रंगकर्म से जुडे बड़े-बड़े प्रतिबद्ध लोग ऐसा करते रहे हैं और कर रहे हैं। बहुत कम लोगों के लिए थिएटर साधन नहीं साध्य है। मल्लिका जो सलाह गौतम को देती है वही वह यों नहीं करती? यह बात साफ नहीं हो पाती, जो खटकती है। यही नहीं मल्लिका जब गौतम से शादी कर लेती है तो उसे अचानक एक बड़े रोल के लिए एक बड़े फिल्मी बैनर से आफर आता है। इस आफर को स्वीकर करने से पहले वह गौतम से बात करती है। उसके हां कहने के बाद ही आगे हां कहती है। पत्नी बनने के बाद मल्लिका का यह कमजोर चरित्र खटकता है। यहां आकर वह एक हिंदुस्तानी पत्नी बन जाती है, जो पति के ही निर्णय को सर्वोपरि मानते हुए ही जिंदगी गुजार देती है। यहां यह सवाल उठता है कि आत्मनिर्भर औरतें भी पति से बिना पूछे कोई निर्णय नहीं ले पातीं? जबकि यह सही नहीं है। अपने विवेक से निर्णय लेने वाली औरतें अधिक सफल होती हैं।

उपन्यास में मल्लिका का चरित्र बार-बार चौंकाता है। वह लिव इन रिलेशनसिप को स्वीकार करती है। वह गौतम को छाे़ड सकती है। वह थियेटर करती है, लेकिन पढ़ाने लग जाती है। अचानक उसे फिल्म का रोल मिलता है और वह सुपर स्टार अभिनेत्री बन जाती है। वह गर्भवती होती है, तो कैरियर के लिए गर्भपात नहीं कराती। वह बच्चा पैदा करती है और फिर जब उसका कैरियर शुरू होते ही पीक पर होता है तो वह फिल्मों में काम करने से मना कर देती है। मल्लिका कब या करेगी, पाठक समझ नहीं पाता। मानोवैज्ञानिक रूप से यह एक स्वाभाविक चरित्र लगता है। कहा जा सकता है कि हर चरित्र की कुछ खासियत होती है, लेकिन मल्लिका जैसे चरित्र जल्दी नहीं मिलते। इस कारण यह चरित्र स्वाभाविक भी नहीं लगता। कई बार लगता है कि लेखक ने इस चरित्र को मनचाहा गढ़ा है। गौतम का चरित्र बड़ा स्वाभाविक लगता है। वह पूरी तरह पुरुषवादी है। उसके जैसा चरित्र अपनी पत्नी से कैरियर के लिए मां बनने से वंचित रहने की सलाह दे सकता है। यह और बात है कि जब उसकी सलाह नहीं मानी जाती तो वह उसे स्वीकार भी कर लेता है। लेकिन जब मल्लिका बच्ची को पालने के लिए फिल्मों में काम करना बंद कर देती है तो वह झल्ला जाता है। वह मल्लिका को बहुत समझाता है। नाराज होता है। यह नाराजगी इतनी बढ़ जाती है कि वह मल्लिका को अपनी दुनिया से ही निकाल देता है।

हालांकि उपन्यास के बारे में पत्रिका के संपादक का दावा था कि यह फिल्मी दुनिया के अंधेरे को सामने लाएगा। लेकिन उपन्यास ऐसा करने में पूरी तरह से विफल रहा है। इसकी कहानी फिल्मी पृष्ठ भूमि पर है, लेकिन उस दुनिया के बारे में यह एक सतही जानकारी ही दे पाता हैं, जबकि वहां बहुत कुछ हो रहा है और होता रहता है। फिल्मी दुनिया में एक स्ट्रगलर की या हालत होती है राहुल के बहाने इसका थाे़डा जिक्र हो जाता है, लेकिन फिल्मी दुनिया के जादू को यह तार-तार नहीं कर पाता।

यह थियेटर से जु़डे एक कुंठित व्यि त की कहानी है, जो अधे़ड उम्र तक थियेटर करता है और बाद में स्क्रीन प्ले राइटर बन जाता है। वह थियेटर का अभिनेता होता है लेकिन कैरियर राइटर का बन जाता है। फिल्मी लेखक बनकर वह पैसे कमाता है, लेकिन चूंकि उसके लिखे संवाद बोलने वालों को कराे़डों मिलते हैं और उसे लाखों मिलता है तो उसकी कुंठा बढ़ती जाती है। इस कुंठा में वह अपने भविष्य को असुरक्षित सा महसूस करने लगता है। हां, गौतम के चरित्र से यह सच सामने आता है कि फिल्मी लेखक एक बेचारा व्यि त होता है। उसकी कोई औकात नहीं होती है। वहां अभिनेताआें और अभिनेत्रियों की ही चलती है। वही स्टार हैं। यही कहानी बदलवा सकते हैं। संवाद बदलवा देते हैं। उनके सुझाव पर लेखक वैसा करने को मजबूर होता है। हालांकि यह भी जगजाहिर बात हो चुकी है। यही कारण है कि गंभीर लेखन करने वाला लेखक फिल्मी दुनिया से नहीं जु़ड पाता। मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर जैसे कितने लोग हैं जो फिल्मी दुनिया और साहित्य में बराबर की पकड़ रखते हों?

यह भी उतना ही सच है कि कितने लोग स्टार बनने का सपना लेकर मुंबई जाते हैं और या बन जाते हैं। फिल्मी दुनिया में ऐसे लोगों की भरमार है जो स्टार बनने गए और स्पाट ब्वाय बनकर रह गये। यह सब ऐसी बातें हैं जो उपन्यास में नहीं आती हैं। यदि उपन्यास को स्त्री विमर्श पर आधरित मान लिया जाए तो इस मु े पर भी पर्याप्प्त फोकस नहीं हो पाया है।

लेखक ने जुलाई २००६ में हुई मुंबई की बारिश की तबाही पर बड़े ही मनोयाग से लिखा है। जो किसी रिपोरर्ताज जैसा लगता है। जहां-जहां बारिश का जिक्र है वहां-वहां भाषा की रवानगी काबिले तारीफ हो जाती है। आंखों के सामने एक चित्र सा चलने लगता है। हालांकि उस समय टीवी चैनलों ने बारिश को लाइव दिखाया था, लेकिन अपनी भाषा से जो दृश्य अस्थाना जी दिखाते हैं वह कैमरे से अधिक जीवंत और लाइव हो जाता है।
- ओमप्रकाश तिवारी