Tuesday 21 October, 2008

रानीगंज में माकपाइयों की गुण्‍डागर्दी, सांस्‍कृतिक कार्यक्रम रद्द कराया

नन्‍दीग्राम से जारी माकपा की गुण्‍डागर्दी का एक नमूना पिछले दिनों देखने को मिला। रानीगंज (प. बंगाल) के सांस्कृतिक-सामाजिक मंच 'मानविक' द्वारा आयोजित 'गणमित्र सम्मान समारोह' (19-20 अक्टूबर, 2008) को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने गुण्डागर्दी और धमकियों द्वारा आतंक फैलाकर स्थगित करने पर विवश कर दिया। माकपा का यह सांस्कृतिक आतंकवाद .एस.एस.-विहिप-भाजपा आदि के ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' की ही तरह यह माकपा के ''सांस्कृतिक जनवाद'' का एक नमूना है।
रानीगंज (प. बंगाल) की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था 'मानविक' इस वर्ष पाँचवाँ गणमित्र सम्मान कवयित्री और सामाजिक-सांस्कृतिक कर्मी कात्यायनी को देने वाली थी। यह सम्मान सुविख्यात बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी के हाथों दिया जाना था। इस अवसर पर आयोजित दो दिवसीय सांस्कृतिक आयोजन (19-20 अक्टूबर) के दौरान दो परिसंवाद, कविता-मंचन और फिल्म प्रदर्शन के कार्यक्रम और कवयित्री सम्मेलन भी होने थे। इस आयोजन में स्थानीय और निकटवर्ती रचनाकारों-संस्कृतिकर्मियों के अतिरिक्त दिल्ली, कोलकाता, पटना, रांची, भोपाल आदि शहरों के कई लेखक-कवि-संस्कृतिकर्मी भी हिस्सा लेने वाले थे।
इस आयोजन के क़रीब हफ्ता भर पहले से माकपा के कार्यकर्ताओं ने रानीगंज में धमकी और गुण्डागर्दी का सिलसिला शुरू कर दिया। न केवल आयोजकों और उनके परिवारों को तबाह कर देने की धमकी दी गयी, बल्कि इस बात का व्यापक प्रचार किया गया कि आयोजन में भाग लेने वालों को गम्भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। 'मानविक' के अध्यक्ष के पिता को, जो हृदय रोग से गम्भीर रूप से ग्रस्त हैं, धमकाया गया कि उनका परिवार और व्यवसाय तबाह कर दिया जायेगा। सचिव और अन्य सहयोगियों को धमकी दी गयी कि वे रानीगंज में रह नहीं पायेंगे। विभिन्न शहरों में आमन्त्रितों को फोन करके और माकपा के सांस्कृतिक संगठनों के सूत्रों से दबाव डलवाकर उक्त आयोजन में हिस्सा लेने से रोका गया। माकपा के स्थानीय लोगों का कहना था कि यह आयोजन दो शर्तों पर हो सकता है। पहली शर्त, इसमें महाश्वेता देवी न आयें क्योंकि वे वाममोर्चा सरकार की नीतियों की मुखर आलोचक रही हैं और नन्दीग्राम में माकपा-विरोधी मुहिम का उन्होंने भी समर्थन किया था। दूसरी शर्त, यह थी कि कात्यायनी को माकपा के विरुध्द एक शब्द भी नहीं बोलना होगा और सम्मान ग्रहण करने के अतिरिक्त किसी प्रकार के राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रचारकार्य में हिस्सा नहीं लेना होगा। ज़ाहिर है कि आयोजकों ने इन अपमानजनक शर्तों को स्वीकार नहीं किया और स्थानीय तौर पर क़ायम व्यापक आतंक राज के चलते विगत 16 अक्टूबर को उन्हें यह आयोजन स्थगित करने की घोषणा करनी पड़ी।
कोलकाता और प. बंगाल के अन्य नगरों के अख़बारों में और टी.वी. चैनलों पर इस ख़बर के आने के बाद जब महाश्वेता देवी ने भी क्षोभ प्रकट करते हुए बयान दिया और संस्कृतिकर्मियों ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रकट किया, तो पश्चिम बंगाल के एक माकपा-सम्बध्द सांस्कृतिक संगठन और एक लेखक संगठन के प्रतिनिधि ने बयान दिया कि महाश्वेता देवी का माकपा-विरोध जगज़ाहिर है और कात्यायनी नक्सल राजनीति से जुड़ी हैं।
यदि विचारों में धुर-विरोध है, तो माकपाइयों को वैचारिक विरोध और बहस के जनवादी तरीक़ों का ही इस्तेमाल करना चाहिए, न कि गुण्डागर्दी और आतंक-राज का सहारा लेना चाहिए। जो लोग वैचारिक विरोध का यह तरीक़ा अपनाते हैं वे लोग हुसैन की कला-प्रदर्शनी पर बजरंगदली फसिस्टों के हमले और तोड़फोड़ की राजनीति का विरोध भला किस मुँह से करते हैं?
रही बात नक्सलवादी होने के आरोप की, तो माकपा और भाकपा जैसी पार्टियां सत्ताभोगी, संसदमार्गी, अर्थवादी राजनीति करती हैं और संशोधनवादी हैं। चीन मार्का ''बाज़ार समाजवाद'' बर्बर और निरंकुश सर्वसत्तावादी पूँजीवाद है। लेकिन साथ ही, आतंकवाद या ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद की राजनीति भी पूरी तरह गलत है। नक्सलवाद अपने आप में कोई राजनीतिक कैटेगरी नहीं है। प्राय: इस श्रेणी में आतंकवादी वामपन्थी धारा और क्रान्तिकारी जनसंघर्ष की धारा - दोनों को शामिल कर लिया जाता है। हम क्रान्तिकारी जनसंघर्षों के पक्षधर हैं और माकपा की ''बाज़ार-समाजवादी'' आर्थिक नीतियों का और उस कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करते हैं जो साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुध्द व्यापक जनता को सड़कों पर लामबन्द करने के बजाय संसद में कभी कांग्रेस तो कभी सपा तो कभी बसपा के साथ गँठजोड़ करने और राजधानी की सड़कों पर फ़ासीवाद का रस्मी विरोध करने में यक़ीन रखती है। माकपा के संशोधनवाद का विरोध करना और क्रान्तिकारी वामपन्थी विचारों की हिमायत करना यदि नक्सलवाद है तब नक्सलवादी कहलाने में कोई परहेज नहीं है।
रानीगंज प्रसंग वस्तुत: नन्दीग्राम प्रसंग की सांस्कृतिक दायरे में पुनरावृत्ति मात्र है। मुद्दा चाहे आर्थिक हो या सांस्कृतिक, माकपा का रवैया सभी मामलों में निरंकुश सर्वसत्तावादी ही होता है। माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ पूरी दुनिया की अन्य सामाजिक-जनवादी पार्टियों और एन.जी.ओ. की तरह, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प के लिए संघर्ष करने के बजाय उन्हें मात्र ''मानवीय चेहरा'' देने लायक पैबन्दसाज़ी करना चाहती हैं। इनका मॉडल चीन का ''बाज़ार समाजवाद'' है जो बर्बर फ़ासिस्ट तरीक़े से वहाँ लागू हो रहा है। नन्दीग्राम ने सिद्ध कर दिया है मौक़ा मिलने पर माकपा भी उसी तरीक़े से नवउदारवादी नीतियों को लागू करेगी। माकपा के गुण्डा राज की वास्तविक झलक पानी हो तो कोलकाता से बाहर प. बंगाल के अन्य छोटे-छोटे शहरों-कस्बों में जाना पड़ेगा। वैसे कोलकाता में भी इसकी बानगी देखने को मिल जाती है। माकपा का ''समाजवाद'' दिल्ली में कुलीन लिजलिजे सुधारवाद के रूप में सामने आता है और प. बंगाल में सामाजिक फ़ासीवाद (चेहरा समाजवादी, आचरण फ़ासीवादी) के रूप में सामने आता है।

6 comments:

drdhabhai said...

यही और यही माकपा का असली चेहरा है...उन्हें किसी की सुननी ही नहीं है वे जो कहते हैं वही सच है

Anonymous said...

बात त बिल्कुल ठीके कहत बाड भईया

Anonymous said...

बात त बिल्कुल ठीके कहत बाड भईया

Anonymous said...

बात त बिल्कुल ठीके कहत बाड भईया

Anonymous said...

One of the reasons why people hold on to memories so tight is because memories are the only thing that don't change when everyone else does!

Anonymous said...

One of the reasons why people hold on to memories so tight is because memories are the only thing that don't change when everyone else does!