Monday 16 June, 2008

हरित क्रांति पर बुद्धिजीवी भ्रम में

धर्मबीर वामपंथी संगठन के काडर होने के बावजूद सामाजिक संबंधों पर स्वंत्र नजरिया रखते हैंहरियाणा और पंजाब में हरित क्रांति की चकाचौंध के बीच सामाजिक संबंधों में विद्रूपता पर उनकी टिपण्णी सामाजिक व्यवस्था की जड़ों की ओर फिर से देखने और सोचने को विवश करता है

धर्मबीर
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लगभग एक दशक पहले जब कैथल जिले के शिमला गांव में एक प्रेमी जोड़े को तालीबानी अंदाज में पत्थरों से पीट-पीट कर मार डाला गया तो मामला कुछ दिन अखबारों की सुरखी बनकर दब गया। मगर जब असंडा व जोणधी में प्रेम विवाह करने वाले दम्पति को करीबी गोत्र का बताकर राखी बंधवाकर भाई-बहन घोषित किया तो हरियाणा भी उस बहस का हिस्सा बनने लगा जो अक्सर हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में सामाजिक सम्बंधों को लेकर उठती रही है। हरित क्रंाति के क्षेत्र पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बौद्धिक हल्कों में यह विचार सर्वमान्य है कि हरित क्रांति ने यहां के सामाजिक सम्बंधों में बदलाव ला दिया है। मगर हाल ही में करोड़ा गांव के मनोज-बबली व बल्ला गांव के अनीता-सतीश की हालिया हत्याऐं फिर से उस सवाल को उठा रही है। ७०-८० के दशक में शुरू हरित क्रांति ने बहुत से बुद्धिजीवीयों को भ्रम में डाल दिया। ये बुद्धिजीवी हरित क्रांति से भूमि सुधारों का सपना पाले हुए थे जबकि सच्चाई इसके विपरित थी।
हरित क्रांति ने खाद, बीज व कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के बाजार को तो विस्तार दिया लेकिन भूमि सम्बंधों में कोई बदलाव नही आया। फलस्वरूप हरियाणा का ग्रामीण परिवेश परम्परागत सांमती सम्बंधों मंे जकड़ा रहा। खाप पंचायतों के ये फैसले और रोजबरोज होने वाली प्रेम हत्याओं की जड़ इसी अर्धसामंती व्यवस्था और उससे उपजी मानसिकता की अभिव्यक्ति है। ग्रामीण हरियाणा में भूमि जोतों का आकार आज भी भूमि सुधारों की जरूरत को दर्शाता है। जमीनदारी उन्मूलन कानून व भू-हदबन्दी जैसे कानून के अस्तित्व में आए ५० साल से अधिक होने पर भी हरियाणा में सैंकड़ों एकड़ वाले भू-स्वामी मौजूद है जो ग्रामीण हरियाणा में इन निरंकुश खाप पंचायतों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये खाप पंचायतें ही ग्रामीण हरियाणा में वास्तविक सत्ता का स्वरूप है।
भूमि कानूनों के निष्फल होने का प्रमुख कारण यहां किसी ऐसे जनआन्दोलन की अनुपस्थिति है जिसके निशाने पर सामंती व्यवस्था रही हो। मुजारा आन्दोलन के समय जरूर कुछ छिटपुट घटनाएं हुई थी। १९६७ में जमीन जोतने वाले की नारे के साथ उठा नक्सलवादी आन्दोलन भी यहां कोई दस्तक नही दे पाया। पंजाब में इसका कुछ असर जरूर दिखाई दिया। सामाजिक संगठनों की बात छोड़ भी दी जाये तो खुद सरकारी आंकड़े भूमि सुधारों की मंथर गति को दर्शाते हैं।
यह सच है कि सरकारी आंकड़े सच्चाई को हमेशा ही धुंधला पेश करते हैं फिर भी २००१ के सांख्यिकी सारांश में दिए आंकड़े भूमि सम्बंधों को समझने में समझने में महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं। इसके मुताबिक हरियाणा में एक से ढाई एकड़ वाले १४,३६,००० किसानों के पास कुल कृषि योग्य जमीन का मात्र ११ प्रतिशत हिस्सा है। ढाई से सात एकड़ वाले ९,४२,००० मध्यम किसानों के पास कुल कृषि योग्य जमीन का २६ प्रतिशत हिस्सा है। ये गरीब और मध्यम किसान हरियाणा के कुल किसानों का ७८ प्रतिशत हिस्सा बनते हैं। इस तरह देखा जाए तो ७८ प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि योग्य जमीन का मात्र ३७ प्रतिशत हिस्सा है। शेष ६७ प्रतिशत हिस्से पर २२ प्रतिशत धनी किसान व बड़े जमीनदार काबिज हैं।
हरियाणा में भू-हदबन्दी की सीमा १८ एकड़ है। १८ एकड़ से अधिक एकड़ वाले किसानों की जमीनदार की श्रेणी में रखा गया है। भू-हदबन्दी कानून के मुताबिक १८ एकड़ से अधिक जमीन का अधिग्रहण करके भूमिहीनों में वितरण होना चाहिए। सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा इसी सीमा से अधिक के किसानों का है। हरियाणा में १,४३,४७० ऐसे जमीनदार हैं जिनके पास हदबन्दी की सीमा से अधिक जमीन है। इसमें भी ७,६२८ जमीनदार तो उस श्रेणी के हैं जिनके पास न्यूनतम ५० एकड़ जमीन है और अधिकतम की कोई सीमा नही है। ये ४ प्रतिशत जमीनदार कुल कृषि योग्य जमीन के लगभग २८ प्रतिशत हिस्से पर काबिज हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक सत्ता को नियंत्रित करते हैं। खाप पंचायतों के निरकंुुश फैसले और दलित पिछड़ों के सामाजिक बहिष्कार के फतवे इन्ही के इशारे पर जारी किए जाते है। आर्थिक तौर पर सशक्त होने के साथ-साथ जातिय तौर पर भी प्रभावशाली होने के कारण कोई भी राजनीतिक पार्टी इनके विरोध का साहस नही कर पाती।
कृषि योग्य भूमि के कुछ हाथों में केन्द्रित होने के कारण जहां भू-संख्यक आबादी, बेरोजगारी व अर्ध बेरोजेगारी की स्थिति में गुजर-बसर कर रही है वहीं समाज के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया भी अधर में है। भूमि सुधारों को ईमानदारी से लागू करके ग्रामीण हरियाणा को भूखमरी, बेरोजगारी व इन निरंकुश खाप पंचायतों से छुटकारा दिलाया जा सकता है। लेकिन क्या वर्तमान संसदीय पार्टियों से ऐसी राजनीतिक इच्छा शक्ति की उम्मीद करना बेमानी नही होगा?

4 comments:

दिलीप मंडल said...

मृत्युंजय भआई, हम आपको लगातार पढ़ रहे हैं। पंजाब-हरियाणा को लेकर कई मिथक टूटने हैं।

मृत्युंजय कुमार said...

िदलीप जी, इन दोनों राज्यों की सामािजक िस्थित वास्तव में िमथक तोडने वाली है। शुरूआत में यहां की समृिद्ध इतनी चकाचौंध करती है िक सच िदखता ही नहीं। िदखता है िसर्फ िवदेश से आ रहा पैसा और उससे बन रही कोिठयां और शानदार गािडयां। दूसरा पहलू तो स्थानीय मीिडया भी नहीं देखना चाहता, क्योंिक यह सच उसके िवग्यापन के बाजार के अनुरूप नहीं। भूिम सुधार के बारे में तो अब कोई सरकार चर्चा भी नहीं करना चाहती।

अबरार अहमद said...

प्रणाम सर। बहुत कुछ सीखने को मिला इस लेख से। यह बात सही है कि पंजाब और हरियाणा की जो तसवीर बनी है वह वाकई में रेगिस्तान में पानी वाले भ्रम को दर्शाती है। जो दिख रहा है असल में वह है नहीं। पंजाब और हरियाणा का किसान कर्ज तले दबा हुआ है। यहां की पूरी खेती कर्ज व्यवस्था पर आधारित है। यही वजह है कि यहां का किसान सिर्फ नाम भर के लिए खुशहाल है। वास्तविकता यही है कि आढती और बडे जमींदार ही यहां संपन्न हैं। खोखली संपन्नता और दिखावे ने इन राज्यों का बेडा गर्क कर रखा है। जालंधर, लुधियाना अमृतसर आदि महानगरों को छोड दिया जाए तो पंजाब कहीं से भी संपन्न नहीं दिखेगा। साथ ही कनाडा की सारी चकाचौंध की असलियत भी दिख जाएगी।

ओमप्रकाश तिवारी said...

धरमबीर जी
संसदीय पारटियां उदारीकरण नामक घॊड़े की सवारी कर रही हैं। उनके पास अब कहां समय है। आज की राजनीति में विचार के लिए जगह कहां है। सभी तॊ अपनी दुकान चला रहे हैं। देश में असमानता बढ़ती जा रही है। हम हैं कि हर देश में अरबपतियॊं की संखया गिन रहे हैं। हमारे नेता तॊ देश कॊ विकसित बनाने में लगे हैं एक आप हैं कि भूमिसुधार की बात कर रहे हैं। हरियाणा पंजाब में यही एक विसंगितयां नहीं हैं। मादा भूणा हतया कॊ कया कहेंगे।