विनोद के मुसान
भारतीय संस्कृति में धर्म का बड़ा स्थान है। संविधान नेप्रत्येक नागरिक को अपने धर्म के अनुसार जीवन व्यापन करने, उसकी रक्षा करने और उसके विस्तार का अधिकार प्रदत्त किया है। यहां तक तो ठीक है, लेकिन दि कत तब आती है, जब संविधान में दिए गए इस अधिकार का लोग दुरुपयोग करने लगते हैं, जिससे दूसरे कई लोगों को दि कत होती है। बात 'धर्म` से जु़डी होती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध भी नहीं कर पाता है। लेकिन बापू के इस देश में ऐसा नहीं होना चाहिए, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।
मैली होती गंगा : गोमुख से निकलने वाली निर्मल और स्वच्छ गंगा हरिद्वार के बाद अपना रंग बदल देती है। या आपने कभी सोचा है, ऐसा यों होता है। यकीनन उसमें जगह-जगह सीवरेज और फैि ट्रयों से निकलने वाला गंदा पानी मिल रहा है। लेकिन, गंगा में आस्था रखने वाले उसके भ त या कर रहे हैं। उसे साफ रखने के बजाय उसे और गंदा कर रहे हैं। पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद की पॉलीथीन, बच्चे के मुंडन के बाद उसके बाल, साथ में लाई गई अन्य गंदगी गंगा में बहा दी जाती है। नहाने के बाद मैले कपड़े उसमें निचाे़ड दिए जाते हैं।
एक कुप्रथा देखिए-पता नहीं किस मूर्ख ने इसकी शुरूआत की-ऋषिकेश में राम झूला के पास एक घाट है, जहां लोग नहाने के बाद अपने अंडरवियर छाे़ड जाते हैं। पूछने पर आस-पास बैठे पंडे बताते हैं, ऐसा करने से आदमी पूरी तरह शुद्ध हो जाता है। लेकिन, वहां घाट पर बिखरे सैकड़ों अंडरवियर को देखकर मन खिन्न हो जाता है। गंगा हमारी मां के समान है, लेकिन उसके बेटों को कौन समझाए कि बेटा अब तुम जवान हो गए है। कम से कम नहाने के बाद अपना अंडरवियर तो संभाल लो। या अब भी इसे मुझे ही धोना पड़ेगा।
नगर कीर्तन : आप घर से किसी जरूरी काम के लिए निकले और रास्ते में आपको मिल गया नगर कीर्तन। सड़कें जाम। ट्रैफिक का बुरा हाल। पुलिस वालों द्वारा अमुक चौराहे पर आपको तब तक रोके रखा जाता है, जब तक की पूरा नगर कीर्तन न गुजर जाए। इस दौरान ट्रैफिक में कोई मरीज भी फंसा होता है तो किसी की बस या ट्रेन छूटने वाली होती है। इतना ही नहीं इस दौरान नगर कीर्तन के साथ गुजरने वाला जत्था अपने पीछे सड़कों पर छाे़ड जाता है तमाम गंदगी। जिससे साफ करने वाला कोई नहीं। नगर कीर्तन का स्वागत करने वाले अपने श्रद्धा जताने को जगह-जगह लंगर तो लगा देते हैं, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं देते की पीछे छूटने वाली गंदगी को कौन साफ करेगा। खासकर के पंजाब में यह दृश्य आम है।
जगराते : भगवान ने रात बनाई है सुकून से सोने के लिए। लेकिन आए दिन गली-मोहल्लों में होने वाले जगराते इसमें खलल डालते हैं। मुझे नहीं लगता दुनिया के किसी भी धार्मिक ग्रंथ में यह बात लिखी हो कि ऊंची आवाज में की गई भ तों की प्रार्थना भगवान जल्दी सुनते हैं। फिर यह शोर यों? आजकल हर गली मोहल्ले में कुछ लोगों ने अलानां-कमेटी, फलानां-कमेटी बनाकर हर साल निश्चित दिन पर जगराता कराने का ठेका ले रखा है, जिसके खर्चे वे आम जन से चंदे के रूप में वसूलते हैं। जगराता कमेटी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी के बच्चों की परीक्षा हो रही है, या आस-पास के घरों में कोई बीमार है। आधुनिक युग में भि त की यह परंपरा कम से कम मुझे तो रास नहीं आती, आपका या कहना है।
'भजनों` का शोर : सुबह तड़के चार बजे मुर्गे की बाक, घर के पास स्थित मंदिर से आती शंक की ध्वनि, मस्जिद से आजान और गुरुद्वारे के लाडस्पीकर से सुनाई देती गुरुवाणी यकीनन कर्णप्रिय होती है। नए दिन की शुरूआत को आलौकिक करने वाली ये ध्वनियां भारतीय जनमानस के हृदय में बसी हैं। लेकिन, आधुनिक युग में धार्मिक वातावरण अब वैसा नहीं रहा। आज जब एक गली में दो गुरुद्वारे तीन मंदिरों और एक मस्जिद से एक साथ ये ध्वनियां उत्पन्न होती हैं तो 'शोर` का रूप धारण कर लेती हैं, जो कतई कर्णप्रिय नहीं लगती। धर्म के विस्तार की हाे़ड में हमने गली-गली में इतने मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे खड़े कर दिए हैं कि अब वे धार्मिक स्थल कम और धर्म के नाम पर खोली गई दुकानें ज्यादा लगती हैं।
प्रसाद का 'प्रदूषण` : जैसा कि मैने पहले भी कहा, आस्था के उन्माद में हम भूल जाते हैं, हमारे द्वारा लगाए गए लंगर के बाद पीछे छूटने वाली गंदगी की ओर कोई ध्यान नहीं देता। जहां कहीं भी प्रसाद का वितरण होता है, अकसर वहां इतनी गंदगी छाे़ड दी जाती है कि अगले दिन वहां खड़ा रह कर कोई सांस भी नहीं ले सकता। यह हाल तमाम धार्मिक स्थलों का है। हम प्रसाद ग्रहण करने के बाद उसके पात्र को जहां-तहां फेंक देते हैं। इस परंपरा कोई बदलना होगा। जैसे हम अपने घरों में सफाई रखते हैं, इसी तरह सार्वजनिक स्थलों का भी हमें ध्यान रखना होगा।
अंत में,
उपरो त लिखी गई बातों से मेरा आशय किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं, धर्म के नाम पर हम ढकोसला न करें। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातों का अध्ययन करें और उन पर चलने का प्रयास करें। दिखावे की भि त से जीवन कभी भवसागर पार नहीं कर सकता। इतिहास गवाह है, जितने भी संत हुए हैं, उन्होंने अपने कर्मों की बदोलत मोक्ष प्राप्त किया। एक व्यवहारिक उदाहरण देना चाहूंगा। आप तय करें, किस की भि त में शि त है।
-एक आदमी किसी धार्मिक स्थल पर जाता हैं, कई घंटे लाइन में खड़े रहने के बाद उसका नंबर आता है, इसके बाद वह घर के लिए बस पकड़ता है। बस में एक वृद्धा खड़ी है, जिसे सीट नहीं मिलती। लेकिन, वह आदमी उसकी ओर से मुंह फेर लेता है और सोने का नाटक करने लगता है।
-एक आदमी कभी किसी धार्मिक स्थल पर नहीं जाता है। उसका मानना है, प्रभु घट-घट में निवास करते हैं। वह अकसर बस में बड़े बुजुर्गों और गर्भवती महिलाआें को अपनी सीट देकर घंटों खड़े होकर सफर करता है। अपने इसी तरह के कर्मों को वह अपनी पूजा मानता है
Saturday, 1 November 2008
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4 comments:
बिल्कुल सही कहना है आपका । धर्म वास्तव में कर्तब्य है , जिसका पालन हमें करना चाहिए।
धर्म नितांत व्यक्तिगत वस्तु है। एक तरह की संहिता जिस में आप विश्वास करते हैं कि आप को ऐसे जीना चाहिए। आप उस के अनुरूप कितना जी पाते हैं यह एक अलग बात है। लेकिन जब भी यह प्रदर्शन की वस्तु और सामाजिक होने लगता है। तभी वह जीवन को नष्ट करने लगता है।
good
Feel good......
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