Thursday 31 January, 2008

मीडिया में महिलाएं और देह का दुर्गद्वार


मीडिया मुखर होता है समाज में घटित अपराधों, उत्पीड़नों के खिलाफ। समाज के किसी वर्ग के साथ हुए अन्याय को वह स्वर देती है। खासकर महिलाआें के साथ किसी अभद्रता और उत्पीड़न को लेकर यह मीडिया कुछ ज्यादा ही सेंसेटिव होता है, होना भी चाहिए। लेकिन सच का एक पहलू यह भी है कि इसी मीडिया में महिलाआें की भागीदारी, उनके साथ बर्ताव सवालों के घेरे में है। मैं भी इस मुद्दे को नहीं उठाता अगर एक महिला मीडियाकर्मी ने अपना सच साझा नहीं किया होता।
हमारे साथी पहले भी सवाल उठाते थे कि फलां लड़की अभी आई और बिना खास योग्यता के तुरंत ही तर की की सीढ़ियां चढ़ती चली गई, आखिर यों और कैसे? ये सवाल अधिकतर मीडिया संस्थान के पत्रकारों के पास हैं और आपसी बातचीत मेंं वे खुलकर इसे शेयर भी करते हैं। बाद में जब उस लड़की ने अपने दो तीन संस्थानों के अनुभव सुनाए तो यही लगा कि मीडिया में तर की के लिए देह कई बार रोड़ा साबित होती है तो कई बार सीढ़ी का काम करती है। कई वरिष्ठों ने उसके सामने शरीर समर्पण की पेशकश रखी थी और कुछ अन्य लड़कियों की तर की का उदाहरण भी दिया था। जो इसे स्वीकार कर लेती हैं वे आगे बढ़ जाती हैं और न मानने वाली लड़कियां अगर जीवट की नहीं होतीं तो दूसरी नौकरी की तलाश करती हैं या घर बैठ जाती है। 'टीमलीज सर्विसेज` द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक कार्यस्थलों पर रोमांस की कई वजहें हैं। लंबी कार्य अवधि, सहकर्मियों से निकटता और पदोन्नति के लिए इसका इस्तेमाल कार्यस्थलों पर रोमांस की प्रमुख वजहें हैं। वेतन वृद्धि और पदोन्नति पाने का सबसे आसान और सीधा तरीका बॉस के साथ रोमांस हो सकता है।
आप कह सकते हैं कि यह तो सभी आफिसों का सच है। पत्रकार भी समाज का हिस्सा हैं लेकिन चौथा स्तंभ होने के नाते यहां नैतिक जिम्मेदारी बढ़ जाती है। अभी हाल ही में एक वरिष्ठ पत्रकार और चैनल के एडीटर इसलिए पैदल से कर दिए गए योंकि किसी बैंक के एटीम रूम में ही वे अपनी सहकर्मी के साथ रासलीला करते धरे गए। कहीं मजबूरी होती है तो कहीं जबरदस्ती तो कहीं इस्तेमाल। जो कुछ नहीं कर पाते वह निगाहों से ही कपड़े फाड़ते रहते हैं। यह पुरूष और स्त्री किसी एक पर नहीं दोनों पर लागू होती हैं। हंस ने जब मीडिया केंद्रित कहानियों का अंक निकाला तो उसमें भी यही गलाजत भरी हुई थी। अधिकतर के अनुभवों का दायरा इस खास बिंदु पर सिमटा हुआ था।
इस परिदृश्य को किस नजरिए से देखा जाए, इस पर बहस जरूरी लगी। इसी के लिए इस मीडिया केंद्रित ब्लाग पर अनुभव आमंत्रित किए गए। इस कड़ी में कल वरिष्ठ पत्रका संजय मिश्रा की टिप्पणी इसी ब्लाग पर देख सकते हैं।

1 comment:

Unknown said...

bilkul sach kaha aapne sir. mai bhi 1 ladki hu aur media me 1 sthan banane ki jaddojehad me pichle do saalo se lagi hui hu. meri kai sehpathi nose for news na hote huye bhi aaj top channels ke sath kaam ker raqhi hu. mai ab bhi chappal ghis rahi hu. aur jin mandando pe media me 1 ladki ko naukri me progress milti hai mai shayad ta umr chapple hi ghiste rahu.
dhanyawad sir hum jaise kuch logo ko aawaz dene ke liye.

with best regards,
garima
hamaramedia.blogspot.com