Thursday 17 January, 2008

देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये



ओमप्रकाश तिवारी ------------------
हिंदी के कहानीकारों और कवियों का यदि सर्वे किया जाए तो पाया जाएगा कि अधिकतर रचनाकार गांव की पृष्ठ भूमिसे हैं या थे। लेकिन इसी के साथ शायद यह तथ्य भी सामने आ जाए कि किसी भी लेखक (अपवाद मुंशी प्रेमचंद) ने ग्रामीण समस्या, किसान समस्या, खेतिहर मजदूरों पर प्रमाणिक, तार्किक और वस्तुपरक रचना शायद ही की है। मुंशी प्रेमचंद ने अपना अधिकतर लेखन इन्हीं विषयों या इनके ईद-गिर्द किया। गोदान और रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद के ऐसे उपन्यास हैं जो न केवल किसान, दलित, खेतिहर श्रमिकों की समस्याआें पर केंद्रित हैं, बल्कि यह विश्वस्तरीय रचनाएं हैं। इसके बाद व्यापक फलक पर (मेरी समझ से) जगदीश चंद्र ने इस ओर ध्यान दिया है। लेखक और आलोचक तरसेम गुजराल लिखते हैं कि प्रेमचंद ने गोदान में होरी को छोटे किसान से भूमिहीन मजदूर के रूप में स्थगित होते दिखाया है। इसी तरह जगदीश चंद्र के उपन्यास 'धरती धन न अपना` उपन्यास में भूमिहीन दलित सामने आया है।` इसके अलावा जगदीश चंद्र के दो उपन्यास 'नरककुंड में बास` और जमीन अपनी तो थी` उपन्यासों की चर्चा की जाती है। मेरे मित्र अमरीक, जोकि हिंदी साहित्य के खूंखार और प्रोफेशनल पाठक हैं, कहते हैं कि किसानों, दलितों, भूमिहीन श्रमिकों पर जगदीश चंद्र का लेखन सराहनीय है। वैसा लेखन प्रेमचंद के बाद अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता।
हो सकता है और भी किसी लेखक ने किसानों पर लिखा हो। जो अनदेखा रह गया। अचर्चित रह गया। यह भी हो सकता है कि मैं ही उस बारे में अज्ञान हूं, लेकिन इतना तो सच है कि गांव की पृष्ठ भूमि और किसान पृष्ठ भूमि से आने वाले अधिकतर लेखक इस समस्या की अनदेखी करते रहे हैं। अब लंबे अंतराल के बाद कथाकार शिवमूर्ति का उपन्यास 'आखिरी छलांग` किसान समस्या पर आया है। 'नया ज्ञानोदय` के जनवरी २००८ के अंक में प्रकाशित यह रचना अंधेरी सुरंग में किसी रोशनी से कम नहीं है। इस उपन्यास में एक लोकगीत की चर्चा है।
'देसवा होई गवा सुखारी हम भिखारी रहि गये`
मेरे ख्याल से यही लाइन इस उपान्यासकी जान है। यही इसकी विषयवस्तु भी है। कंटेंट भी। किसानों की दुर्दशा और हालात पर यह लाइन बिल्कुल सटीक बैठती है। इस पंि त को जब मैं पढ़ रहा था तब भारतीय शेयर बाजार हिरण की तरह कुलाचे भर रहा था। अनिल अंबानी धीरूभाई गु्रप की कंपनी रिलायंस पावर का आईपीओ शेयर बाजार में उतारा गया था। दूसरे ही दिन इस कंपनी के प्रारंभिक इश्यू के लिए १४ गुना सब्सक्रिप्शन मिल चुका था। कंपनी द्वारा जारी किये गये २२।८०_करोड_शेयरों के मुकाबले ३१५।८७_कराे़ड शेयरों के लिए आवेदन प्राप्त हो चुके थे। छोटे-छोटे_शहरों के टर्मिनलों में रिलायंस पावर के शेयर खरीदने वालों की भीड उमड़ पड़ी थी। कंपनियों के दफ्तरों में कर्मचारी इसी आईपीओ_की बात करते नजर आते रहे। भारतीय शेयर बाजार में ऐसा कमाल पहली बार हुआ। इससे यह समझा जा सकता है कि नौकरीपेशा वर्ग की आय बढ़ी है। देश का एक वर्ग है जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बाद इतना कमा पा रहा है कि वह शेयर बाजार में निवेश कर सके। लेकिन यह वर्ग कितना बड़ा है। यह सोचने की बात है। दूसरी ओर किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। आज देश में दो तिहाई किसानों हैं, जिनकी रोजी-रोटी_का साधन कृषि है, लेकिन अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि का योगदान दिनप्रतिदिन घटता ही जा रहा है।
जिस समय रिलायंस पावर के शेयरों को खरीदने के लिए देश का एक वर्ग बेताब दिख रहा था उसी समय भारत में हरित क्रांति के जनक रहे एस.एस._स्वामीनायन_किसानों की आर्थिक दशा पर चिंता व्य त रहे थे। उनका कहना था कि भारतीय उप महाद्वीप में मैन्यूफै चरिंग ग्रोथ_इस बात का प्रमाण है कि भारतीय कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र है जो सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराता है। देश में दो तिहाई (लगभग १.१_बिलियन)_लोग अब भी कृषि पर निर्भर हैं। उनकी रोजी-रोटी_का एक मात्र साधन कृषि ही है, लेकिन ये सभी सरकार की गलत नीतियों के कारण पूरी तरह से उपेक्षा के शिकार हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक तरफ छोटे-छोटे_शहरों में एक वर्ग शेयर बाजार की उछाल पर उछल रहा है। तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत प्रतिपल_एक ऐसी सुरंग में फंसता जा रहा है कि जिसका कोई ओर-छोर_ही नहीं_है। किसान आज किसानी नहीं करना चाहता। उसके पास समस्याआें की भरमार है। उसका जीना मुश्किल हो गया। उसकी भावनाआें को यह लोकगीत अच्छी तरह से अभिव्य त करता है। .....'देसवा_होई गवा सुखारी_हम भिखारी रहि_गये।`
किसान भिखारी हो गया है। वह भीख भी नहीं मांग सकता। वह मौत भी मांगता है तो नहीं मिलती। उसे तो सल्फास खाकर जान देनी पड़ती है। फांसी का फंदा लगाना पड़ता है। ऐसे में शिवमूर्ति_का उपन्यास बहुत ही मौजू है।_लेकिन यह उपन्यास अपेक्षाआें पर खरा नहीं उतरता। शिवमूर्ति_जैसे समर्थ कथाकार से ऐसी रचना की उम्मीद मैं तो या शायद कोई भी नहीं करता। सभी जानते हैं कि शिवमूर्ति_बहुत कम लिखते हैं, लेकिन जो लिखते हैं वह मील का पत्थर साबित होता है। अफसोस की 'आखिरी छलांग` उनकी अब तक की शायद सबसे कमजोर रचना है।
हालांकि नया ज्ञानोदय_के संपादक रवींद्र कालिया_अपने संपादकीय में लिखते हैं कि 'हिंदी में फैशन के तौर पर ग्राम्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा गया है परंतु यह उपन्यास प्रेमचंद_के बाद पहली बार भारतीय किसान के जीवन संघर्षों, कठिनाइयों, अंतरविरोधों_तथा विडंबनाआें को प्रमाणिक और वस्तुपरक रूप से प्रस्तुत करता है।` संपादक के इस दावे पर यह उपान्यास_खरा नहीं उतरता। यही नहीं अपने संपादकीय में किसानों की समस्याआें की जो तस्वीर कालिया_जी ने प्रस्तुत की है उसके एक अंश को भी यह उपन्यास नहीं छू पाता।
आज की किसान समस्या बहुत व्यापक है। कोई भी लेखक यदि जल्दबाजी में इस विषय पर लिखेगा तो शायद ऐसा ही लिखेगा। शिवमूर्ति_जी ने इसकी रचना प्रक्रिया का उल्लेख किया है। वह यह भी कहते हैं कि इसे मात्र १७ दिनों में लिखा है। यह भी बताते हैं कि जो लिखना चाहा था नहीं लिख पाया। इतनी जल्दबाजी में शायद लिखा भी नहीं जा सकता है। जल्दबाजी की वजह समझ में नहीं आई। लेकिन संतोष की बात यह है कि जल्दबाजी में भी उन्होंने जो लिखा वह संपादक के दावे पर बेशक खरा न उतरा हो, परंतु पाठकों की भावनाआें पर खरा उतरने में जरूर कामयाब होगा। हालांकि रचनाकार किसान समस्या पर लिखने चला था, पर वह बीच में शायद बहक गया और दहेज समस्या में अधिक उलझ गया। कहा जा सकता है कि यह भी किसान की ही समस्या का एक अंश है। जोकि ठीक भी है। लेकिन यदि किसी समस्या का अंश ही कहानी का मुख्य अंश बन जाए तो शायद यह ठीक नहीं कहा जाएगा।
यह भी सच है कि आज की किसान समस्या इतनी व्यापक है कि आप केवल दो-चार_पात्रों के माध्यम से उसे अच्छी तरह से नहीं उकेर सकते। 'आखिरी छलांग` में यही कमी खलती है। इसमें केवल एक मुख्य पात्र है पहलवान। शेष चरित्र इस पात्र की सहायता में आते हैं और चले जाते हैं। उनका विकास नहीं हो पाता। यही कारण है कि पूरी कहानी में पहलवान के बाद ऐसा कोई चरित्र जीवंत नहीं हो पाता।
एक और बात। संपादक रवींद्र कालिया_ने इसे उपान्यास_कहकर छापा है। संपादकीय में लघु उपान्यास_लिखा है जबकि यह एक लंबी कहानी ही हो सकती है। यदि हम इसे उपान्यास_मानें और कालिया_जी के दावे को खारिज करते हुए एक कहानी के तौर पर पढ़ें_तो शायद यह उचित होगा। इससे लाभ यह होगा कि फिर हम रचना में उन दावों को नहीं खोजेंगे, जोकि किया गया है। हम रचना को पढ़ेंगे और जो उसमें है उसके अनुसार उसे सझेंगे।_ऐसा करने पर पाठक शायद रचना को बेहतर समझ पाएगा। मुझे लगता है रचना में खराबी नहीं है, बल्कि दावे करके पाठकों की अपेक्षाआें को जो हाइप_दी गई है, यह उस पर खरा नहीं उतरता। रचना पर यदि कोई दावा नहीं किया जाता_तो तो इसका एक स्वतंत्र फ्रेम बनता, जोकि ज्यादा सार्थक होता।
देखा जाए तो रचना में या नहीं है। रचना की शुरूआत होती है-'पहलवान_ने चरी का बोझ चारा मशीन के पास पटका तो पास में सोया पड़ा कुत्ता चौंककर भौंकते हुए भागा।` इस एक वा य से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किस शैली में और कितने सरल व सहज भाषा में रचना की शुरुआत होती है। यह वा य पूरा होते-होते_पाठकों के दिमाग में गांव की तस्वीर उभर जाती है। (जिसने गांव देखा है उसके) पाठक सीधा गांव पहंुच_जाता है, और एक किसान की छवि उसके दिमाग में बनती है।_कहानी में ऐसे दृश्यों की भरमार है। इसके अलावा देशज और स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी सहज-सरल_और पात्रानुकूल_किया गया, जिससे रचना ग्रामीण जीवन से आसानी से जु़ड जाती है।
हालांकि रचना की पृष्ठभूमि जिस क्षेत्र की है उससे बाहर के पाठकों को इसे समझने में दि कत आ सकती है। मसलन जिन शब्दों को पढ़कर मैं गदगद हो रहा था उन्हीं शब्दों को मेरे मित्र अमरीक_अपनी डायरी में नोट कर रहे थे मुझसे पूछने के लिए। रचना की भाषा-शैली_बेजाे़ड है। प्रवाह भी देखते-पढ़ते_ही बनता है। हां, कहीं-कहीं_पर किसी-किसी_पात्र से ऐसी बौद्धिक बातें कहलवाई गईं हैं जो गले की नीचे नहीं उतरतीं और खटकती हैं। विश्वास भी नहीं होता। साफ लगता है कि लेखक अपना ज्ञान उड़ेल रहा है।
पत्रिका के संपादक के दावे को दरकिनार करके यदि इसे पढ़ा जाए तो यह एक अच्छी कहानी है। मैं इसे किसान समस्या से अधिक दहेज समस्या पर आधारित कहानी मानता हंू।_हालांकि यह मेरी अपनी समझ हो सकती है। समझने की मेरी अपनी सीमाएं हैं। लेकिन इसे पढ़ने के बाद जो महसूस किया वह यहां व्य त कर दिया। इतना जरूर कह सकता हंू_कि किसानों की समस्या पर यह रचाना एक शुरुआत भर है, जो बंद नहीं होनी चाहिए। उम्मीद है कि शिवमूर्ति_जी किसान समस्या पर एक बेहतर_रचना के साथ सामने आएंगे। उन जैसे लेखक से ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

2 comments:

Ashish Maharishi said...

मीडिया संबंधी अच्‍छी जानकारी है आपके ब्‍लॉग पर

पुनीता said...

ओमप्रकाश जी को सबसे पहले बहुत बहुत बधाई अति विशिष्ट लेख के लिए. आपका लेख पढ़कर बहुत मजा आया या विशेष तौर पर यह सिखने को मिला कि आपकी समिक्षा की शैली में पकड़ जबरदस्त है. आप लिखते बढ़िया है ऐसा मैं नहीं कह सकती क्यों कि लिखने वाला खुद जानता है कि वह कितना सामने वाले को अपनी बात समझा पाया.
हर ब्लागर को यह लेख अच्छा लगा होगा पर कमेंट लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया होगा. अनुभवी लोगों सो बात करने में बहुत दिक्कत होती है. आपको भी होती होगी. पर मैने हिम्मत इसलिए की कि मैने देखा कि लोग ब्लाग पर मफलर, तौलिया, सुटकेस, पैजामा, टेबल कुसर्ी सब पर लिखते हैं और 50 कमेंट मिल जाते हैं पर जब कोई जानकारी दे तो कोई इटरेस्ट नहीं लेता.
तो फिर से आपको बहुत बहुत बधाई.