Monday 25 February, 2008

मीडिया का मतलब सिर्फ दिल्ली ही नहीं

('आउटलुट' के संपादक आलोक मेहता से बातचीत)
आलोक मेहता न सिर्फ एक पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं बल्कि लेखक और साहित्यकार के रूप में भी उनकी ख्याति है। नई दुनिया (इंदौर) अखबार से बतौर उपसंपादक पत्रकारिता शुरू करने वाले आलोक मेहता नवभारत टाइम्स (समाचार संपादक), हिन्दुस्तान (कार्यकारी संपादक), दैनिक भास्कर (संपादक)जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभाल चुके है और फिलहाल आउटलुक हिंदी साप्ताहिक के संपादक हैं। पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा, राइन के किनारे, स्मृतियां ही स्मृतियां, राव के बाद कौन, आस्था का आंगन, सिंहासन का न्याय, अफगानिस्तान बदलते चेहरे जैसी पुस्तकों के लेखक आलोक मेहता को नेशनल हारमानी अवार्ड फॉर जर्नलिज्म और एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म अवार्ड समेत कई पुरस्कार मिल चुके हैं। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के नाते भी उनकी सक्रियता है। मौजूदा पत्रकारिता की स्थिति-परिस्थितियों पर उनसे बातचीत की संदीप कुमार और सत्यकाम अभिषेक ने। प्रस्तुत है उनसे हुई चर्चा के महत्वपूर्ण अंश :-

लगभग चार दशक से निरंतर पत्रकारिता। उपसंपादक से संपादक तक का शानदार सफर, क्या अंतर देखा आपने इन वर्षों में?
- बहुत अंतर आया है। 1970 में जब नई दुनिया से शुरूआत की तो अखबार की अपनी सीमाएं हुआ करती थीं। छह से आठ पृष्ठ होते थे। 80 के दशक में अखबार 10-12 पेज के हुए पर आज पन्ने अधिक हैं। साधन अधिक हैं। काम करने की सुविधाएं भी अधिक हैं। मेरा मानना है कि मीडिया का विस्तार हुआ है। चुनौतियां बढ़ीं हैं। दबाव भी बढ़े हैं, आर्थिक भी, सामाजिक भी। लेकिन साथ ही निरंतर काम करने की गुंजाइश भी पत्रकारिता में बढ़ी है, घटी नहीं है। कमियों की बात करें तो तब भी पत्रकारिता में कमियां थीं। ऐसा नहीं है कि तब संपादक और प्रकाशक धोखा देते थे या वे किसी राजनीतिक दल या सत्ता से जुड़े हुए नहीं होते थे। देखिए, बात कल की मीडिया की हो या आज की, पन्ने आठ हों या 16, महत्वपूर्ण यह है कि जैसी परिस्थिति है और जो सुविधाएं हैं, उसमें आप किस तरह बेहतर करके दिखाते हैं।

आपने चुनौतियों की बात की। क्या आपका अभिप्राय इलेक्ट्रोनिक मीडिया से प्रिंट को मिलने वाली चुनौतियां से है?
- देखिए ऐसा नहीं है कि टेलीविजन के आने के बाद अखबारों-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या में कमी आई है। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि हर अखबार और पत्रिका के सामने यह चुनौती है कि वे टीवी से बेहतर क्या और कैसे दे सकते हैं। इसे आप एक चुनौती के रूप में भी देख सकते हैं और श्रेष्ठ साबित होने की प्रतियोगिता के रूप में भी। समाचार मीडिया में जो समाचारों और विचारों का विस्फोट-सा सामने आया है उससे यह चुनौती जरूर उभरकर सामने आई है कि आप बेहतर प्रस्तुतिकरण के साथ बेहतर सामग्री कैसे दें।

आपने प्रस्तुतिकरण की चर्चा की। क्या आपको नही लगता कि आज की मीडिया में टेक्नोलॉजी ज्यादा हावी हो गयी है?
- यह ठीक है कि टेकनोलॉजी का विस्तार हुआ है और इस कारण प्रस्तुतिकरण का रंग-ढंग बदला है। लेकिन मीडिया में टेक्नोलॉजी एक हद तक ही सहायता कर सकती है, असली ताकत तो कटेंट ही है। जैसे कि कुछ समय पहले देश के एक बड़े पूंजीपति ने 100 करोड़ की पूंजी और सबसे अच्छी टेक्नोलॉजी लगाकर अखबार निकालना शुरू किया। प्रसार संख्या बढ़ने की बात तो दूर, अखबार ही बंद हो गया। मतलब, टेक्नोलॉजी और पूंजी की भी एक सीमा है। कंटेंट के बिना आप अखबार-पत्रिका कब तक चला पाएेंंगे? कुछ अखबारों ने भी कंटेंट से समझौता कर एडिटर को नजरंदाज करने की कोशिश की थी पर यह ज्यादा दिन तक नही चला। आखिर आप थाली में सिर्फ चटपटा और मसालेदार ही कबतक परोसेंगे, घी-मक्खन भी तो डालना ही होगा।

फिर भी लोग कहते हैं कि मीडिया का पतन हो गया है?
- जो लोग कहते हैं कि मीडिया का नाश हो गया है, पतन हो गया है, उनसे मेरी सहज असहमति है। लोगों के साथ मुश्किल ये है कि वे बंद अखबारों से ही पूरी मीडिया का आकलन कर लेते हं। आप दिल्ली के चार अखबारों को ही देखकर, जो कि 40 लाख बिकते हैं, पूरे मीडिया के पतन हो जाने की बात कैसे कर सकते हैं। देश के अन्य हिस्सों से जो देशबंधु, नवज्योति, प्रभात खबर, मलयालम मनोरमा, नई दुनिया, लोकमत, भास्कर आदि निकल रहे हैं, आप उसे कैसे नजरंदाज कर सकते हैं? ये करोड़ों की तादाद में बिक रहे हैं। आखिर 40 लाख बड़ा है या 10-15 करोड़। मीडिया का मतलब सिर्फ दिल्ली से प्रकाशित अखबार ही नहीं होता।

तो क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों की अपेक्षा क्षेत्रीय अखबार अच्छा कर रहे हैं?
- बिलकुल, मेरा तो यही मानना है। प्रभात खबर, इनाडु, मातृभूमि को देख लीजिए। प्रसार संख्या ही सब कुछ नहीं होती। एक अच्छा अखबार निकालना भी कम बड़ी बात नहीं होती। हो सकता है इस अखबारों में भी कमियां होंगी, उतने रंग-बिरंगे नहीं होंगें लेकिन इसके बावजूद इनकी पठनीयता है, लोग इसे पढ़ना चाहते हैं। ये अखबार गंभीर विषयों को उठा रहे हैं और बिक भी रहे हैं। मीडिया, समाज और जनमानस में इन अखबारों की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आप देखेंगे कि जब चुनाव की घंटी बजती है तो पीएम भी यही पता करता है कि उड़ीसा में कौन सा क्षेत्रीय अखबार है उसको इंटरव्यू देता है।

कहा जाता है कि पहले मीडिया सिटीजन्स के लिए होता था पर अब कंज्यूमर्स के लिए है। आप क्या कहना चाहेंगे?
- मेरा कहना है कि पाठकों के लिए है। मार्केटिंग के लोग कंज्यूमर्स कह सकते हैं। पहले भी पाठकों के लिए ही अखबार होता था, आज भी है। मैं फिर कहूंगा कि पाठकों को उपभोक्ता वे लोग कह रहे हैं जो 40 लाख अखबार बेचते हैं। ऐसा दो-चार अखबार वाले कहते हैं और कंटेट की परवाह न कर अखबार को प्राडॅक्ट की तरह बेचने की कवायद करते है। पर इन्हीं चंद अखबारों को मापदंड नहीं बनाया जा सकता। देश के अन्य जो अखबार 10-15 करोड़ बिकते हैं, वे तो पाठकों को उपभोक्ता-मात्र मानकर नहीं चलते। चूंकि दिल्ली से छपने वाला एक बड़ा अखबार कहता है कि पाठक उपभोक्ता है तो यह मैसेज चला जाता है कि पाठक उपभोक्ता है। लेकिन यह गलत धारणा है।

आजकल संपादक नाम की संस्था के गौण होने और उसपर मैनेजमेंट के हावी होने की बात कही जा रही है। आप कई जगह संपादक रहे हैं? क्या कहता है आपका अनुभव?
- आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 50-60 के दशक के अखबारों में पहले पृष्ठ पर खबर के लिए महज एक कॉलम की गुंजाइश थी, शेष सात कॉलम में विज्ञापन छपा होता था। इसलिए यह कहना कि पहले संपादकों को भरपूर छूट थी, प्रबंधन का दबाव नहीं था, सही नहीं है। संपादक जो भी करते थे या कर सकते थे, वह मालिक की सहमति के दायरे में ही। जिस समय यूनियन बहुत मजबूत हुआ करती थी, बड़े-बड़े संपादकों तक को एक दिन में निकाल बाहर किया गया। न सिर्फ इमरजेन्सी के समय बल्कि उसके बाद भी संपादकों को रातों -रात चलता कर दिया गया। आजादी के बाद के सबसे बड़े प्रकाशक माने जाने वाले एक सज्जन तो अपने संपादकों को अश्लील गाली तक दिया करते थे। आज मालिक अधिक-से अधिक क्या कर सकते हैं? यही न कि नोटिस दे सकते हैं। सीमा पार कर जाने पर या असहमति होने पर संपादक भी तो छोड़ सकता है। मैंने भी छोड़ा है। अब खुद ही तय कीजिए कि संपादकों का पतन आज ज्यादा है या उस समय ज्यादा था।

आप एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी हैं, क्या वहां इन सब बातों पर चिंता होती है?
- जरूर होती है। मैं चार साल तक गिल्ड का सचिव रहा, मैथ्यू साहब अध्यक्ष थे। हमने सालभर तैयारी करके बाकायदा एक कोड ऑफ कंडक्ट बनाया। दरअसल, राज्यसभा जाने के चक्कर में संपादक भी समझौते करने लगे हैं, पार्टी विशेष की तारीफ में कसीदे पर कसीदे गढ़े जा रहे हैं। एडिटर्स गिल्ड ने बराबर संपादक नाम की संस्था के पतन पर चिंता व्यक्त की और यह सोचा कि हमें भी अपने लिए कुछ कोड ऑफ कंडक्ट बनाने चाहिए। अगर हम पहल न करें और सरकार इसके लिए कुछ कानून बनाए तो यह एक तरह से सेंसरशिप हो जाएगी। पत्रकारिता में प्रदूषण नहीं है, ऐसी बात नहीं है लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि खुद को इससे किस तरह बचाकर रखा जाए।

सीधा-सा सवाल है कि एक पत्रकार को राजनीति में जाना चाहिए या नहीं? अब तो मालिक भी राज्यसभा पहुंचने लगे हैं?
- मैं तो इसके बिल्कुल खिलाफ हूं। मेरा तो कहना है कि अगर आपको राजनीति में जाना है तो जाइए पर पहले पत्रकारिता छोड़िए। कुछ सालों तक क्षेत्र में जाकर समाज के लिए काम कीजिए ,भले ही आपको राज्यसभा में जाना हो।

क्या आप मानते हैं कि पेज थ्री पेज वन पर आ रहा है और ऐसा है तो क्यों?
- देखिए, इसमें मानने या न मानने वाली कोई बात नहीं है। सब दिख रहा है। दरअसल, हुआ यह है कि भारत में टैबलॉयड अखबार नहीं निकले और हमने गंभीर अखबारों को टैबलॉयड बना दिया। जिन संस्थानों में मैंने काम किया, वहां भी ये बात आती थी कि पंजाब केसरी का मुकाबला करना है। पर मेरा कहना था कि हम पंजाब केसरी की तरह एक और अखबार निकाल सकते हैं। जैसे, लंदन में टाइम्स भी निकलता है और सन और मिरर भी। अगर बड़े संस्थानों से टैबलॉयड अखबार भी साथ निकलते तो इस तरह का पतन नहीं होता। आज तो बेचने के लिए सीरियस अखबारों का भी टैबलॉयडीकरण कर दिया जा रहा है।

संदीप कुमार- इन दिनों स्टार न्यूज (नोएडा) में कार्यरत हैं और सत्यकाम अभिषेक न्यूज एजेंसी यूनीवार्ता (दिल्ली) में हैं। यह इंटरव्यू पिछले साल तब लिया गया था जब ये दोनों भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में पत्रकारिता प्रशिक्षणार्थी थे।)

4 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

तीस बरस पहले छोड़े गए क्षेत्र अखबारी दुनियां के बारे में बारे में जान कर अच्छा लगा।

अनुनाद सिंह said...

मृत्युंजय जी,

आपके द्वारा उठाये गये विषय बहुत ही महत्वपूर्ण और स्तरीय हैं। पढ़ने से शकुन मिलता है। इसमें सोचने-विचारने के लिये पर्याप्त सामग्री है।

हिन्दी ब्लागिंग में इस समय अधिकतर बकवासबाजी हो रही है। ऐसी अवस्था में आप जैसे लोगो का यहाँ होना गम्भीर पाठकों के लिये एक मजबूत सहारा है।

Anonymous said...

A great blog

Nandan Singh said...

Bahut badiya, padne ke bad aisa mahsus hua ki aam log akele nahi hai abhi bhi bhudhijeevi unke sath hain.

thanks Satyakam, Sandeep and Mritunjay