Friday 22 February, 2008

उपन्यासकार जगदीश चंद्र को समझने के लिए

हिंदी की आलोचना पर यह आरोप अकसर लगता है कि वह सही दिशा में नहीं है। लेखकों का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है। गुटबाजी से प्रेरित है। पत्रिकाआें के संपादकों की मठाधीशी चल रही है। वह जिस लेखक को चाहे रातों-रात सुपर स्टार बना देता है। इन आरोपों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। आलोचना का हाल तो यह है कि अकसर रचनाकर को खुद ही आलोचना का कर्म भी निभाना पड़ता है। मठाधीशी ऐसी है कि कई लेखक अनदेखे रह जाते हैं। उनके रचनाकर्म को अंधेरी सुरंग में डाल दिया जाता है। कई ऐसे लेखक चमकते सितारे बन जाते हैं जिनका रचनाकर्म कुछ खास नहीं होता।

इन्हीं सब विवादों के बीच कुछ अच्छे काम भी हो जाते हैं। कुछ लोग हैं जो ऐसे रचनाकारों पर भी लिखते हैं जिन पर व त की धूल पड़ चुकी होती है। ऐसा ही सराहनीय काम किया है तरसेम गुजराल और विनोद शाही ने। इन आलोचक द्वव ने हिंदी साहित्य के अप्रितम उपन्यासकार जगदीश चंद्र के पूरे रचनाकर्म पर किताब संपादित की। जिसमें इन दोनों के अलावा भगवान सिंह, शिव कुमार मिश्र, रमेश कंुतल मेघ, प्रो. कुंवरपाल सिंह, सुधीश पचौरी, डा. चमन लाल, डा. रविकुमार अनु के सारगर्भित आलेख शामिल हैं। इनके अलावा देवेंद्र इस्सर का जगदीश चंद्र पर एक आत्मीय संस्मरण भी शामिल है। इन लेखकों ने अपनी रचनाआें में जगदीश चंद्र के कृत्तव से लेकर व्यि तत्व का मूल्यांक इतने बेबाक और आत्मीय तरीके से किया है कि यह किताब हिंदी आलोचना में मील की पत्थर साबित हो सकती है।

ऐसा माना जाता है कि दलितों पर मुंशी प्रेमचंद के बाद यदि किसी लेखक ने अपनी लेखनी चलाई है तो वह हैं जगदीश चंद्र। उन्होंने अपने तीन उपन्यासों धरती धन न अपना, नरककंुड में बास और जमीन अपनी तो थी में दलितों से संबंधित विसंगतियांे को पूरी सि त से उकेरा है। इन उपान्यासों के कई चरित्र प्रेमचंद के उपान्यासों के चरित्रों से मुकाबला करते हैं।

एक जगह तरसेम गुजराल लिखते हैं कि प्रेमचंद ने गोदान में होरी को छोटे किसान से भूमिहीन मजदूर के रूप में परिवर्तित होते दिखाया है। जबकि जगदीश चंद्र के उपन्यास धरती धन न अपना में भूमिहीन दलित सामने आया है। काली का चित्रण दलित जीवन का खाका बदलने की संघर्ष गाथा है परंतु वहां के पिछड़े लोगों को उसी तरह न्याय नहीं मिलता जैसे सूरदास को। उ त पंि तयों से पाठकों के सामने जगदीश जी का रचनाकर्म खुलता है। ऐसा मूल्यांकन है जो बेहद ईमानदारी और संवेदनशीलता की मांग करता है और जिसे निभाया गया है।

भूमिहीन मजदूरों के दर्द को आवाज देने वाले जगदीश चंद्र ने फौजी पृष्ठ भूमि पर भी तीन उपान्यास लिखे हैं। तरसेम गुजराल लिखते हैं कि जगदीश चंद्र को अर्नेस्ट हेमिंग्वे बहुत पसंद थे। हेमिंग्वे की तरह ही वह भी एक बड़े स्वप्न के उपन्यासकार हैं। हेमिंग्वे की तरह ही उन्होंने युद्धकालीन भयावह परिस्थितियों का जोखिम उठाकर पत्रकारिता की भूमिका का निर्वाह किया। दोनों की यथार्थ की पहंुच फोटोग्राफिक यथार्थ या खबर नवीसी से आगे की है। फौजी जीवन के अपने अनुभव को उन्होंने आधा पुल, टुंडा लाट और लाट की वापसी जैसे तीन उपन्यासों में समेटा है।

विनोद शाही ने अपने साक्षात्कार-वह मूलत: एक लेखक ही थे (जगदीश चंद्र की पत्नी श्रीमती क्षमा वैद्य और बेटे पराग वैद्य के साथ भेंटवार्ता।) में जगदीश जी के जीवन के कई पहलुआें को उकरते हैं। साक्षात्कार की भूमिका बहुत ही संवेदनशीलता और आत्मीयता से लिखी गई है। यही वजह है कि शाही जी जगदीश चंद्र के व्यि तत्व की कई खूबियों को बाखूबी समझा और लिखा। जिसे पढ़कर पाठक भावविभोर हो जाता है। इस साक्षात्कार से जगदीश चंद्र के कृतित्व से लेकर व्यि तत्व तक कई पहलू खुलते हैं। लेखक के दांपत्य और पारिवारिक जीवन के कई यथार्थ सामने आते हैं। एक लेखक की पत्नी को कितना कुछ सहना और समेटना पड़ता है इस बात से समझा जा सकता है। विनोद शाही सवाल करते हैं कि जिस उपन्यास पर वह काम कर रहे होते थे, अवचेतन तौर पर वे उसी में हमेशा जीते रहे होंगे ओर जब भीतर-भीतर कोई कड़ी या सूत्र अचानक जु़ड जाता होगा तो ...पर उनके ऐसे व्यवहार से एक पत्नी के तौर पर आपको कोफ्त नहीं होती थी? श्रीमीती क्षमा वैद्य जवाब देती हैं - होती थी। शुरू-शूरू में जब मैं उन्हें ऐसा करते देखती तो बड़ी उपेक्षित महसूस करती। मुझे या बच्चों को साथ लेकर वे कम ही घूमने जाते थे। हो सकता है अकेले घूमते हुए भी वह लिखने से जु़डी बातें सोचते होंगे। ....अच्छा तो नहीं लगता था पर मैंने ही धीरे-धीरे इस स्थिति के साथ समझौता कर लिया था। मैंने खुद को उकने मुताबिक ढाल लिया था, योंकि मैं उन्हें लिखने से जबरन रोकना नहीं चाहती थी।

इन बातों में एक लेखक की पत्नी की सारी व्यथा समाहित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक लेखक यदि कोई रचना करता है तो उसमें उसके परिवार का भी कितना योगदान होता है। यह ऐसा सहयोग होता है जो उपेक्षित ही रह जाता है। कभी सामने नहीं आ पाता।

दो सौ पेज की जगदीश चंद्र एक रचनात्मक यात्रा पुस्तक में वह सब कुछ है जो एक लेखक को समझने के लिए जरूरी होता है। जाहिर सी बात है कि तरसेम गुजराल और विनोद शाही ने इसे बड़ी मेहनत और मनोयोग से तैयार किया है। किताब पढ़ने के बाद यदि पाठक निराश नहीं होता तो इसके लिए यह दोनों बधाई के पात्र हैं।

इस किताब को पंचकूला के सतलुज प्रकाशन, एससीएफ, २६७, द्वितीय तल, से टर-१६, ने प्रकाशित किया है। पेपरबैक संस्करण कीमत है मात्र सौ रुपये।
- ओमप्रकाश तिवारी

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