Monday 15 September, 2008

टके के लिए सब कुछ जायज






पिछले दिनों परिकल्पना प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित बेर्टोल्ट बे्रष्ट की कृति तीन टके का उपन्यास पढ़ रहा था। इस रचना में लेखक ने व्यापारिक पंूजीपति वर्ग की अनैतिकता, लालच और उसके कथित राष्ट ्रवाद की असलियत को नंगा कर दिया है। पंूजीपति वर्ग की जिस तरह से लेखक ने बखिया उधे़डी है उससे सहसा यकीन नहीं होता कि ऐसा भी होता है। यदि होता है तो बहुत ही खतरनाक है। लेखक ने बताया है कि इस समाज में तो मुनाफे के लिए सबकुछ जायज है। यहां लाभ के लिए प्रेम का एक नाटक है, शादी एक व्यापार है, किसी की हत्या करना, बेटी और पत्नी का इस्तेमाल करना सबकुछ ऐसे होता है जैसे किसान अपने पशुआेंे के लिए चारा काटता है। व्यापार और अपराध जगत का गुप्त संबंध ऐसी हकीकत के रूप में सामने आता है कि रूह कांप जाती है।
यह सब ऐसी बातें हैं जिन पर मैं विश्वास ही नहीं कर पाया। कई दिनों तक सोचता रहा कि या ऐसा भी होता है? यही कारण है कि उपन्यास पढ़कर रख दिया। किताब में जिन चरित्रों, घटनाआें और दृश्यों को पढ़ा था उनका विश्लेषण जरूरी था। हालांकि प्रकाशक ने दावा किया है कि उपन्यास पढ़ते समय कई बार लगता है कि यह आज के भारत के लिए लिखा गया है। लेकिन मेरा दिमाग इसे मानने को तैयार नहीं था। नजरें थीं कि ऐसे चरित्रों और घटनाआेंं को खोज रही थीं। इसी बीच मधुर भंडारकर की फिल्म कारपोरेट देखी तो लगा कि प्रकाशक का दावा तो बिल्कुल सच है। देश और समाज कोई भी पंूजी और पंूजीपति का चरित्र नहीं बदलता।
कारखाने लगाने के लिए राज्य सरकारें किसानों से जमीनें छीनकर उद्योगपतियों को दे रही हैं। औद्योगीकरण के लिए किसानों को उजाड़ा जा रहा है, लेकिन उन्हें बसाने की चिंता किसी को नहीं है। बसाने की चिंता में यदि कोई राजनीतिक दल आगे आ रहा है तो उसे अपनी राजनीति की चिंता है, किसानों की नहीं। कंपनियों के मालिक कराे़डों रुपये प्रतिमाह वेतन ले रहे हैं। उनके शेयरधारकों को या मिला रहा है? किसान कर्ज, भूख और गरीबी से मर रहा है और देश में मुठ्ठ ी भर लोग अरबपति बनते जा रहे हैं। कराे़डों लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिल रही है और कई लोग हैं कि पैसा कहां खर्च करें इसके लिए चिंतित हैं। किसी भी राज्य में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल रही है। दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह में कराे़डों लोग अपनी जिंदगी बिता रहें हैं। देश की एक चौथाई से अधिक आबादी नारकीय जीवन जीने को मजबूर है और बाजार है कि लग्जरी सामानों से भरा पड़ा है। सेना के लिए सौदे होते हैं और खुलेआम दलाली खाई जाती है। पंूजीपति मजदूरों को निर्धारित न्यूनतम वेतन तक नहींं देते और धर्म के नाम पर पैसे लुटाते हैं। यह सब ऐसी बातें हैं जिसे यह उपन्यास पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। इस लिहाज से यह बहुत ही उपयोगी किताब है। किताब प्रेमियों को इसे एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।

4 comments:

रंजन राजन said...

अच्छा लिखा है।
देश की एक चौथाई से अधिक आबादी नारकीय जीवन जीने को मजबूर है और बाजार है कि लग्जरी सामानों से भरा पड़ा है। दो-ढाई हजार रुपये प्रतिमाह में कराे़डों लोग अपनी जिंदगी बिता रहें हैं। ..यही तो पूंजीवाद की कड़वी सच्चाई है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह उपन्यास पूंजीपति वर्ग के चरित्र को खोल कर रख देता है।
आप ने पाठकों के लिए इसे प्राप्त करने का मार्ग भी सुझा दिया होता तो उत्तम रहता।

Anonymous said...

अच्छा है, पर पुराना मॉल? ये किसी और ब्लॉग bhi पर पढ़ चुका हूँ. कुछ नया लिंखें.

Anonymous said...

अच्छा लिखा है।