Tuesday, 16 September 2008

संवेदनाएँ

जगह -जगह जलते चूल्हे के धूम्र से
उपजी भूख से कुलबुलाती आंते लिए
शीत से पराभूत आती हुई साँझ की चुप्पी में
उस पृथुल रेल स्टेशन की
ठिरती सीड़ियों पर
गूदड़ ओढ़े वह निर्मज्ज -गलदश्रु -पोया
भूल रहा था शनेः-शनेः
शिशिराघात के उद्रेग से
असह्य भूख की निष्ठुर पीड़ा ;
मार-खा माँ से गुम्मा -सा
बैठ उसी समीप नही तिरते जिसके समक्ष
मरिचिज़ल तक
मुस्करा पड़ा
चमकती आंखों से देखकर
आय -गए अघाय पेटों पर अंकल -चिप्स की स्थूल परत
ताकता उसे पा
वह ढचर-काय माता
कचोटता था जिसका ह्रदय माँ होने के अपराध से
और लड़ती ही रही जो जनम भर
दुखों के दारुण यथार्थ विरूद्ध
मुक्त ठहाकों के प्रतिघात से
उस थगित -अवश् -क्षण
हथफेर भर कृशांक में काँप उठी
महाशून्य -सी गहनता में पुत्र को विलीन होता देखकर
विस्मय से देख सुत को
सो रहा था जो प्रथम बार उस काकरव स्थल पर
लिया था जहाँ जनम लाख योनिओपरांत और
गिने भी थे वहीं कुछ क्षण प्रारब्ध के विराम के
चूम उस पैत्रमत्य को वहीं छोड़ वह
ओझल हो गई कहीं किसी शून्य में
और इधर कढ़ रहे थे स्तब्ध जन
मृत संवेदनाये काँधे लिए शनेःशनेः

No comments: