Saturday 20 September, 2008

एक खुला पत्र 'दोस्त` के नाम

उस बच्ची को चेहरा आज भी आंखों के सामने जाता है। जब उसने कहा था 'बाबा मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं।` ...और अचानक उसके बाबा ने कहा 'हां बेटा यों नहीं, तुम भी कल से स्कूल जाओगी।` हमें खुशी हुई, चलो हम अपने प्रयास की कड़ी में एक और ऐसी बच्ची का नाम जाे़ड पाए, जो अब शिक्षित होकर समाज में उजाला फैलाएगी।
थै अंजुला। तुमने कर दिखाया।
मैं जनता हूं, तुम आज भी इस नेक काम में लगी हो। दो साल पहले जब तुम स्कालरशिप लेकर अमेरिका पढ़ने चली गई थी, उसकेबाद से मुलाकात नहीं हुई। लौटी तो कुछ पुराने दोस्तों ने बताया कि तुम फिर से अपने काम में लग गई हो। गरीब बच्चियों को शिक्षा के मंदिर तक पहुंचाने का तुमने जो बीड़ा उठाया है, मैं उसे सलाम करता हूं। हां अफसोस जरूर रहेगा कि तुम्हारी इस मुहिम में मैं बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर सका। जिस समय तुम अमेरिका की उड़ान भर रही थी, उस मैं लाहौरी सप्रेस में बैठकर एक नए अखबार के साथ जु़डने जालंधर की यात्रा पर था। इन दिनों अचानक कुछ ऐसा वाकया सामने आया कि तुम्हारी याद गई। सोचा फिर कभी मौका मिला तो जरूर मिलकर काम करेंगे। ऊपर लिखी लाइनों को पढ़कर शायद तुम्हारे सामने भी अंजनीसैण (टिहरी गढ़वाल) की उस बच्ची का चेहरा याद गया हो, जो उस घास लेकर रही थी। वह पढ़ना चाहती थी, लेकिन उसके पारिवारिक हालात उसे इस बात की इजाजत नहीं दे रहे थे। फिर हमने मिलकर पहल की और उसके बाबा को मना लिया। मुझे याद है, वह बच्ची बराबर स्कूल जाए, इसके लिए तुमने उस बच्ची की पढ़ाई का पूरा खर्च भी अपने कंधों पर ले लिया था। ...और फिर यह तो एक उदाहरण है। मैं जानता हूं, तुमने अपनी संस्था के माध्यम से सैकड़ों बच्चियों को गोद लिया है, जिनकी पढ़ाई का खर्च तुम आज भी उठा रही हो। तुमने खुद जिस स्तर की पढ़ाई की थी, उसके बाद तुम चाहती तो किसी भी मल्टीनेशनल कंपनी के साथ जु़डकर एक आलीशान जिंदगी गुजार सकती थी। कोई फर्क नहीं पड़ता, ज्यादातर लोग आज ऐसा ही कर रहे हैं। हां, इतना जरूर है फिर शायद मैं तुम्हें यह खुला पत्र कभी नहीं लिख पाता। लेकिन, आज मैं गर्व से कहता हूं, तुम मेरी दोस्त हो। तुम्हें याद होगा, जब हम शुरू में मिले थे तो मैं तुम्हें मैम कहकर संबोधित करता था, फिर तुमने अपने साथ जु़डे छोटी-बड़ी उम्र के साथियों की तरह मुझे भी नाम लेकर संबोधित करने का हक दिया। शुरू में मैं कई बार गलती कर जाता था और बार-बार तुम्हें मैम कहकर पुकारता था। अच्छा लगा तुम्हारा ये खुलापन। यकीन मानो इसके बाद तुम्हारे इस दोस्त की नजरों में तुम्हारा कद और ऊंचा हो गया।
इन दिनों मैं पंजाब में हूं। शिक्षा को लेकर यहां के हालात भी इतर नहीं हैं। पुस्तैनी जायजाद और डालर की चमक में शिक्षा की अलख बराबर धूमिल होती नजर रही है। ...और जिनके पास गंवाने को कुछ नहीं, उनके हालात के बारे में तुम खुद ही अंदाजा लगा सकती हो। युवा वर्ग नशे के दलदल में फंसा है। अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन, अच्छी खबर यह है कि अंधेरे के इस मायाजाल में तुम्हारी तरह कुछ लोग हैं, जो ज्ञान की अलख को बराबर जलाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। उम्मीद की जा सकती है आने वाले समय में हालात बेहतर होंगे।
अंत में,
मेरी आदरणीय दोस्त, इस पत्र को पढ़ने के बाद शायद तुम्हारे दिमाग में यह प्रश्न उठे कि मैंने तुम्हें यह खुला पत्र यों लिखा। तो इस बारे में मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा, मेरे देश को मेरी दोस्त की तरह और बेटियों की जरूरत है, अगर किसी और को वह मिल जाएं तो उनसे जरूर दोस्ती कर लेना।
भूलचूक के लिए क्षमायाचना के साथ
तुम्हारा दोस्त
विनोद के मुसान

1 comment:

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर.