हर इंसान की भगवान के प्रति अपनी आस्था होती है। कोई अपने फायदे के लिए तो कोई मन की शांति के लिए भगवान को प्रसन्न करने में जुटा हुआ है। पर कभी सोचा है कि हम अंजाने में भगवान का आदर नहीं निरादर कर रहे है। मेरी मंशा किसी की भावना को ठेस पहुंचाने की नहीं है, बस मैं कुछ बातों के जरिए सब का ध्यान इस तरफ लाना चाहती हूं कि जिस भगवान की पूजा करते है उसे ही क्यों कूड़े का ढेर बना देते है। हम जिस भगवान की पूजा के लिए हर चीज को शुद्ध करते है। उसी का निरादर होते देख हम चुप्पी क्यों साध लेते है। अभी हमने कुछ दिन पहले गणेश महोत्सव मनाया है। दस दिन तक श्री गणेश की स्थापना के साथ उनकी दिन रात पूजा की। पूरी श्रद्धा के साथ उनका गुणगान किया। फिर बाद में उनको जल प्रवाह किया। इसी के साथ क्या हमारी आस्था, श्रद्धा भी जल में बह गई। जिस भगवान को हमने जल में प्रवाह कर दिया, क्या बाद में हमारी नजर गई उस भगवान की प्रतिमा का क्या हुआ। दरिया, नदियों के किनारे वह उनकी प्रतिभा किस हाल में है। शायद भगवान के भक्तों के पास इतना समय कहां कि देख पाए कि हमने किया क्या है। बस दस दिन पूजा की, काम पूरा कर लिया अब क्या देखना कि हमारी श्रद्धा कहा है। जिस भगवान के हम जोर शोर से घर पर लाए, उसी शान से विदा भी किया। आज नगरनिगम की सफाई की गाड़ियां उन प्रतिमा को उठा रही है तो कहीं हमारे पैरों के नीचे आ रही है। इतना ही नहीं खंडित भगवान की प्रतिमा हमारी आंखों के सामने है पर हम चुपचाप तमाशा देख रहे है। यह सब देख कर हमारी आस्था क्यों नहीं जागती। हमारी श्रद्धा कहां चली जाती है, जब हम खुद अपने भगवान का अपमान करते है। इतना ही नहीं हम भगवान की प्रतिमा वाले कार्ड, कलैंडर तक छपवाते है, लेकिन फिर उन्हीं को खुद कुड़े के डिब्बे में फैंक देते है। क्या ऐसी श्रद्धा रखने में हम भगवान के सच्चे भगत कहलाने के काबिल है? क्या ऐसी पूजा हमें आस्तिक बना रही है या हम उस नास्तिक से बढ़ कर है जिसने कभी भगवान से दर पर माथा नहीं टेका। क्या भगवान का निरादर इसी तरह करते रहेंगे हम। इसको देखर क्यों नहीं हमारा जमीर जागता। क्यों हमारी श्रद्धा आस्था मर रही है। अगर हम आदर नहीं कर सकते तो कम से कम मेरी नजर में हमें निरादर करने का भी कोई हक नहीं है।
Friday, 19 September 2008
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1 comment:
ठीक कहा बंधू......कई लोगो ने इस मुद्दे को उठाया है पर जहाँ धर्म की बात आती है लोग चुप रहना समझदारी समझते है....
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