Monday, 22 September 2008

निशीथ जोशी की दो कवितायें



स्वर्गीय आपा और लाला भाई (मो माबूद ) के नाम जिनके बिना ये बेटा इतना बड़ा नहीं हो सकता था। आपकी बहुत यद् आती है। इंशा अल्लाह कभी तो मुलाकात होगी। वैसे तो आप हरदम मेरे साथ हो। कभी तहजीब के रूप में तो कभी दुआओं के ताबीज के रूप में। सिर्फ़ यही है मेरी जिंदगी की कमाई -------निशीथ

खौफ

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रोक लो
इन हवाओं को
मत आने दो
शहर से
मेरे गांव की ओर

वरना मंगल मामा
हिंदू हो जाएगा

और रहमत चाचा

मुसलमान हो जाएगा

और रहमत चाचा
मुसलमान.....


जीवन साथी के नाम
चाह
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टेलीफोन की घंटी
की
आवाज सुनकर
जब वो रिसीवर उठाती है
सुनकर आवाज
एक पागल की

कमल सा खिल जाती है

जो फोन होता है किसी गैर का
तो दिल से निकलती है एक आह
जी, यह सच है मैडम
इसे ही कहते है चाह

10 comments:

सचिन मिश्रा said...

Bahut khub.

Unknown said...

इन्सान ही रह जाए, इसकी दुआ करें. अच्छी कविता

makrand said...

great sense
regards

Anonymous said...

नहीं रुक रहीं ये हवाएं निशीथ भाई। तुम्‍हें सलाम आपकी कलम को सलाम।

ओमप्रकाश तिवारी said...
This comment has been removed by a blog administrator.
Anonymous said...

Priya hari bhai bahut dino bad samvad kisi roop me hua. thanks. please provide your mail id .

अबरार अहमद said...

सर, सादर प्रणाम
आज वह दिन याद आ गया जब यह कविता आपके मुख से सुनी थी। यकीनन आज भी इस कविता को जब पढ रहा था तो ऐसा लगा आपके मुख से इसे सुन रहा हूं। दिमाग में आपकी ध्वनी ही गूंज रही थी। आपने मुझे जो प्यार दिया उसके लिए मैं सदैव आपका आभारी रहूंगा। साथ ही इस बात का दुख भी रहेगा कि मैंने आपके विश्वास को तोडा। हो सके तो मुझे माफ कर दीजिएगा। मैं सदा आपके आशीष वचनों का इंतजार करूंगा। मुझे यह भी विश्वास है कि आप मुझे मायूस नहीं करेंगे। मैं चाहूंगा कि इसी तरह आपका मार्गदर्शन आगे मिलता रहे।
आपका
अबरार अहमद

Anonymous said...

डियर अबरार, बचपन में सुना था क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात. बड़ा तो मैं कभी बन नहीं सकता क्योंकि अभी भी टीन एजर ही हूँ. एटीन से आगे उम्र बढती ही नहीं, करूँ क्या? पत्रकारिता में लोग आते जाते हैं और यह शायद हमने भी किया है. खफा जरुर हूँ, बिन बताये शादी जो कर ली. लेकिन उम्र भर के लिए नहीं. साहसी हो, जो दिल की बात सार्वजानिक तौर पर कह सके. अल्लाह ताला इस रमजान के मुक़द्दस महीने में वह सब बक्शे जो आपने सपनों में संजो रखा है. खुदा हाफिज.

ओमप्रकाश तिवारी said...

बेहद संवेदनशील कविता है.
आजकल ऐसी ही भावनाओं की दरकार है.

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

बडे भाई प्रणाम
शब्द बोलते हैं, आपकी संवेदनशीलता को शत शत नमन।