Saturday, 27 September 2008
तकलीफ तो दूसरे को भी होती है ओमकार जी
भाई ओमकार जी, महज ये इत्तेफाक है कि आज पहली बार आपका ब्लॉग देखा है। उसमे भी आपकी पीडा देखी। फोटू देखकर लगता है कि उमर में हमसे छोटे ही होगे आप। जायज है आपकी तकलीफ। कभी आपसे मिला तो नही लेकिन पढ़ा बहुत है। वह भी गंगा जमुना के बीच में बसे शहर में रहते हुए। जिंदगी यहीं बीत गयी है। जब अपने साथ होता है तो तकलीफ होती है। फ़िर दूसरे के साथ क्यों किया जाता है। जो कुछ भी हरिभूमि में रोहतक में हुआ। उसके नायक आप ही बताये जाते हैं। वह भी सिर्फ़ इसलिए कि आप उसी बिरादरी के हो जिसके अख़बार के मालिक हैं। नहीं तो उस वरिष्ठ पत्रकार डा रविन्द्र अग्रवाल का क्या दोष था कि उनको नौकरी छोड़ने को कह दिया गया। क्योंकि वहां आपकी स्थापना की जानी थी। जब नाम कटने में इतनी तकलीफ होती है तो जिनका पेट कट रहा होगा उन पर क्या बीत रही होगी, यह आप जैसा संवेदनशील प्राणी बेहतर समझ सकता है। कम से कम आपको यह तो याद कि यह वही हरिभूमि है जहाँ लोकल जाट ने अपने जाट प्रभारी को ही पीट दिया था। देखिये कोई भी वाद वैसा ही सांप्रदायिक होता है जैसा कि मलियाना में हुआ था। या फ़िर बटला हाउस के बाद जो कुछ हो रहा है। अभी तो यह बातें देल्ही से इलाहबाद तक पहुँची हैं। और भी फैलेंगी और आपके यश में चार चाँद लगाएंगी। कभी कहीं आपसे मुलाकात का मौका मिला तो आपको मुबारकबाद जरुर दूंगा। मुशायरों के सिलसिले में हरियाणा दिल्ली आना जाना होता ही है। हरिभूमि का पानी जरुर पिया है, नमक नहीं खाया। अब आपको फैसला करना है कि तकलीफ आपकी सही है कि डा रविन्द्र अग्रवाल की। आपका भैया इलाहाबादी।
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12 comments:
बेबाक सच !! बिना नाम पता दिये वाले सच बहुत देखे !मगर आपके सच ने प्रभावित किया !!
अगर सच मालूम न हो तो किसी विषय पर इस तरह के कमेन्ट नहीं करने चाहिए. रविन्द्र अग्रवाल को वहां स्थापित करने वाला मै ही था. मैंने ही उन्हें सेलेक्ट किया था. वो संभवत : प्रबंधन तंत्र की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे. इसलिए उन्हें जाना पड़ रहा है. जहाँ तक मेरा सवाल है, मै हरिभूमि में तीन साल तक काम कर चुका हूँ, उस दौरान उस अख़बार में जो परिवर्तन हुए हैं, उनसे आप अपरिचित हैं, अन्यथा मेरे नाम के के साथ जाति नहीं लगाते. मै जहाँ रहा, वहां केवल उस जाति के लोग काम नहीं करते, जैसी बीमारी कुछ संपादकों को, और अख़बारों में है. हरिभूमि के अलावा श्रीमान जी मैंने 23 साल तक ऐसे अख़बारों में काम किया है, जहाँ के मालिक उस जाति के नहीं हैं, जिसका जिक्र अपने किया है. अपने ज्ञान को अपडेट करिए और तब कमेन्ट करिए.
भैय्या जी
आप बहुत सच्ची बात लिख दिए हैं अपनी पोस्ट में...एक दम कडुवी लेकिन सो टका सच्ची बात.
नीरज
पत्रकारिता में अपनी लेखनी से पहचान बनाने वाले एक बेहतर इंसान को जाति के आधार पर तौलना शर्मनाक है! हरिभूमि में रहते हुए उसे एक अख़बार के तौर पहचान दिलाने के लिए ओमकार जी हमेशा याद किए जायेंगे! उनके मार्गदर्शन में इस अख़बार ने हरियाणा, हरियाणवी, इस परदेश के साहित्य, संस्कृति, राजनीती और जन जीवन पर जितना लिखा उतना आज तक किसी भी अख़बार ने नही लिखा! मैंने भी इनके मार्गदर्शन में काम किया है मुझे ये कभी महसूस नही हुआ की इनमे कहीं जाति की भावना है!
आदित्य
ये छोटी और घटिया राजनीति है भैय्या। हो सकता है जो आप कह रहें हों वह ठीक हो क्योंकि उस प्रसंग को आप और ओमकार जानते हैं। लेकिन ओमकार ने अपने ब्लाग पर एक जायज बात कही है। अगर ओमकार कहीं गलत हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि प्रतिक्रियावादी हो जाया जाए। इस पोस्ट में तो आप जाट लग रहें हैं।
इस पोस्ट में जिस डा रविन्द्र अग्रवाल का जिक्र है, कहीं वे वही तो नहीं जिन्होंने १०-१२ साल पहले राष्ट्रीय सहारा में भारत गुलामी की ओर.. चर्चित सीरिज चलाई थी. अगर वे वही हैं तो उनके साथ हुआ व्यवहार निंदनीय है. ओमकार जी और प्रबंधको को इस बारे में सोचना चाहिए था. वैसे मेरा अनुभव ये रहा है कि पत्रकारिता में ज्यादा योग्य लोगों के लिए नौकरी करना मुश्किल ही होता है.
anand bharti--
patrakarita ka yeh naya trained ho gaya hai ki kuchh na kuchh bakte raho.maine onkarji ke saath chandigarh mein kaam kiya hai. unke saath kai muddon par matbhed bhi the lekin akhbar kee pavitrata ko banaye rakhne kee koshish me lage rahte the. jativad toh unki soch mein bhi nahin tha.
चाणक्य ने कहा, मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, अर्थात जितनी खोपड़ीयां, उतनी ही राय या विचार ।
लोकतंत्र है भइये, सबको कहने दो, सबकी सुनो अपनी भी कह लो क्या दिक्कत है, ''सार सार को गहि रहो, थोथा देओ उड़ाय '' तुलसी या संसार में भांति भांति के लोग, सबसों हिल मिल चालिये नदी नाव संजोग ।
सामने वाला अपनी नजर में सही होता है, लेकिन आपकी नजर में गलत, आप अपनी नजर में सही हो सकते हैं लेकिन दूसरों की नजर में गलत । ये दुनियां इसी सिद्धान्त पर टिकी है ।
माडरेशन लगा दीजिये टिप्पणी पसन्द आये तो प्रकाशित कर दीजिये वरना धता बता दीजिये
yah sach hai ki akhbaro me havi rajniti ke chalte partibhaon ki aksar andekhi hoti rahti. magar ravinder aggarwal ke jane ko omkar ji ki vapsi se na joda jae to achchha hai. yah malikon ki marji hai. isko lekar patarkar biradari me aapsi jutampajar khedjanak hai.
घूमते घूमते इस ब्लॉग पर आ गया. मामला अपने पास का लगा. इसलिए कमेन्ट दिए बिना रुक नही सका.
ये झगडा ही बेकार का है. मै हरिभूमि को तब से जानता हूँ जब ये साप्ताहिक था और धर्मपाल धनखड़ इसके संपादक
थे. उसके बाद गुलशन कुमार की अगुआई में डेली हुआ. बाद में मृत्युंजय आए. उसी समय उसके लोकल
सप्लीमेंट रोहतक प्लस आदि शुरू हुए. बाद में जितने भी संपादकीय प्रभारी सबके समय में अखबार में परिवर्तन हुए. और हर संपादक के समय में परिवर्तन होते हैं. ये सिर्फ़ ओंकार जी और रविन्द्र जी पर ही लागु नहीं होती. वैसे भी एक पत्रकार को प्रबंधन का चम्पू होने aur ek dusare se jhagarane की बजाये पत्रकारों से ही सहानुभूति होनी चाहिए.
YAH SAHI HAI KI AKSAR PRATIBHA PAR AVSAR HAVI HOTA HAI, KAYONKI PRATIBHA AVSAR MILNE PAR HI DIKHAI JA SAKTI HAI. JAHAN TAK ES MAMLE KA SAWAAL HAI OMKARJI AUR RAVINDERJI DONO KO HARIBHOOMI MAIN AVSAR MILA DONO NE APNI PRATIBHA BHI DIKHAI, LEKIN YAH BAAT TO MANAGEMENT KO TAH KARNI HAI KI AKHBAR KE LIYE KAUN JYADA UPYOGI HAI. RAVINDERJI KE JANE KO OMKARJI KI WAPSI KE TOR PAR NAHIN DEKHNA CHAHIYE. AAJ AGAR VE HARIBHOOMI MAIN NA AATE TO AKHBAR KISI AUR KO R.EDITOR BANA DEGA. HALANKI OMKARJI NE EK BAAR MERE SAATH BHI BHEDBHAV KIYA THA, HARIBHOOMI PAR PAHLE BHI JATIWAD KE AAROP LAGTE RAHE HAIN AUR VAISE BHI AKHBARON MAIN RAJNITI AAM BAAT HAI, LEKIN FIR BHI MERA MANNA HAI KI OMKARJI YA KISI AUR PATARKAR PAR JATIWAD KA AAROP DURBHAGYAPURAN HAI.
BALRAM SAINI
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