विनोद मुसान
जिस तरह एकता कपूर नहीं जानती कि वह महिलाआें को केंद्रबिंदु बनाकर एक के बाद एक धारावाहिक बनाकर उनका कितना बुरा कर रही हैं, ठीक उसी तरह वर्तमान पीढ़ी के पत्रकार हिन्दी को किस गर्त में ले जा रहे हैं, वह भी नहीं जानते। पत्रकारिता का नया स्वरूप, जिसे अब ट्रैंड कहा जाता है, हिन्दी को प्रतिदिन दयनीय स्थिति में पहुंचा रहा है। समय की मांग और आम बोलचाल की भाषा में अंग्रेजी की घुसपैठ के नाम पर आज अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में पढ़ाया जा रहा है। इसे अपमान नहीं तो या कहेंगे? हिन्दी शब्दकोष का खजाना इतना बड़ा है कि हर शब्द की अभिव्यि त केलिए हिन्दी में एक नहीं चार-चार शब्द मौजूद हैं। लेकिन आजकल पत्रकार अंग्रेजी के शब्दों को हिन्दी में गोल-मोल कर ऐसे पेश करते हैं, जैसे अगर इन शब्दों को वाकई में हिन्दी में लिख दिया गया तो अनर्थ हो जाएगा। अंग्रेजी कोई बुरी भाषा नहीं है, हमें इसे भी जानना चाहिए। आखिर यही एक भाषा (अंग्रेजी) है जिसके जरिए हम अंतरराष्ट ्रीय वार्तालाप कर सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी का बे़डागरक करने में केवल पत्रकारों या हिन्दी सामाचार पत्रों का ही हाथ है। नेता से लेकर अभिनेता तक, अध्यापक से लेकर अधिकारी तक रोज हिन्दी का कत्ल करते हैं। यहां पर मैं खासकर पत्रकारों की बात इसलिए कर रहा हूं, योंकि मैं भी इसी बिरादरी से जु़डा एक जीव हूं। सामाचार पत्र समाज का आईना होता है। हम, रोज सवेरे पाठकों के सम्मुख जो प्रस्तुत करते हैं, उसे आमतौर पर पत्थर की लकीर मान लिया जाता है। ऐसे मैं जब हम अंग्रेजी के 'शब्द विशेष` को रोज हिन्दी में लिखकर पाठकों को पढ़ाते हैं, तो इसका एक चलन सा निकल पड़ता है। इसके बाद अध्यापक-टीचर, प्र्राचार्य-प्रिंसिपल, विद्यार्थी-स्टूडेंट, कक्षाएं- लास, महाविद्यालय-कालेज, विश्वविद्यालयऱ्यूनिवर्सिटी, बाजार-मार्केट, विज्ञान-साइंस, प्रौद्योगिकी-टे नोलॉजी, कुर्सी-चेयर, मेज-टेबल, समाचार पत्र-न्यूज पेपर, सरकार-गवर्नमेंट, योजना-स्कीम, परियोजना-प्रोजे ट बन जाता है।
ऐसे में यदि किसी पत्रकार भाई से पूछा जाता है कि भाई यों इतना अंग्रेजी केशब्दों का प्रयोग करते हो। तर्क होता है, ''लोकल रीडरस की भावनाआें को ध्यान में रखना पड़ता है और अब तो यही ट्रेंड चल रहा है। आज इसका यूज नहीं करोगे तो पीछे छूट जाओगे। अब तो आम बोलचाल की भाषा में भी बिना अंगे्रजी के घालमेल किए काम ही नहीं चलता। ...और फिर हम कौन सा हिन्दी के ठेकेदार बैठे हैं, अपन को तो बस नौकरी करनी है। चलने दो जैसा चल रहा है।``
चलो मान लिया अब आम बोलचाल की भाषा में बिना अंग्रेजी के काम नहीं चलता, लेकिन लेखनी में हम यों अंग्रेजी का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। यों नहीं हम हिन्दी को हिन्दी में लिखते। वैसे भी २१वीं सदी में आते-आते हिन्दी अपना मूल स्वरूप तो खो ही चुकी है और हिन्दी की जननी संस्कृत भाषा तो लगभग लुप्तप्राय सी हो गई है। ऐसे में या हमें चिंता नहीं करनी चाहिए कि हम इसके बचे-खुचे स्वरूप को बचाए रखें। हम पत्रकारिता करते हैं और हिन्दी में पत्रकारिता करते हैं। हिन्दी मतलब हिन्दी। इसको बचाना हमारा धर्म भी है और कर्त्यव्य भी। आखिर इसी हिन्दी ने हमें रोजी भी दी है। मैं कहना चाहूंगा, हिन्दी के साथ अंग्रेजी का घालमेल करने वाले उन हिन्दी पत्रकारों से 'दोस्तों हिन्दी को जानो-पहचानों, इससे प्यार करो और इसका विस्तार करो, बताने की जरूरत नहीं है कि यह हमारी राष्ट ्रीय भाषा है। इसमें मिठास भी है और उल्लास भी। फिर यों हिन्दी केसाथ अंग्रेजी की खिचड़ी पकाते हो।
गर्व से कहो -
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्तां हमारा
हिन्दी हैं हम हिन्दी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा।
हां चलते-चलते बात वहीं खत्म करना चाहूंगा, जहां से मैंने शुरू की थी। शुरू में जिक्र आया था एकता कपूर का। या आपको नहीं लगता, घरों में लड़ाई-झगड़े और साजिश करने के जितने नुख्शे एकता कपूर ने औरतों को सिखा दिए हैं, वे कम नहीं है। कोई अगर एकता कपूर से पूछे तुमने इस समाज को या दिया है। तो शायद वह यह कहने में भी गुरेज न करे कि मैंने नारी का असली चेहरा परदे पर ला दिया। योंकि एकता जो कुछ अपनी धारावाहिकों में दिखाती है, उसके लिए वही सच्चाई है।
Monday, 15 September 2008
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2 comments:
अपना अपना नजरिया है.
अच्छी सामग्री के लिए बधाई,
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